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‘हिंदी महोत्सव’ ने कई मिथ तोड़े हैं


पिछले रविवार की बात है. आज सुबह सुबह याद आ रही है. ‘वाणी फाउंडेशन’ और ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर ने पिछले रविवार 6 मार्च को ‘हिंदी महोत्सव’ का आयोजन किया था, जो कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. अब तक हिंदी के लिए इस तरह के विशिष्ट आयोजन दिल्ली में अकादमियों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में ही होते रहे हैं. हिंदी का एक अकादमिक ढांचा ही रहा है, जिसमें हिंदी के बड़े-बड़े विद्वान आकर व्यख्यान देते और हिंदी आयोजनों की इतिश्री हो जाती. लेकिन वाणी फाउंडेशन के इस आयोजन ने इस मिथ को तोड़ दिया कि हिंदी सिर्फ हिंदी विभागों के खित्ते का है. ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर जैसे इलीट बुक स्टोर में हिंदी के नाम पर एक जीवंत आयोजन में गए एक सप्ताह हो गए और आज एक सप्ताह बाद भी उसकी याद आ रही है.

एक दिन में छह सत्र हुए. पहला सत्र रहा कालजयी सहित्य और कलाएं आस-पास के नाम, जिसमें मालिनी अवस्थी, और हरदिल अज़ीज़ शायर शीन काफ निजाम के साथ यतीन्द्र मिश्र ने जमकर साहित्य और कलाओं के नजदीकी रिश्तों को लेकर बातचीत की. सुबह जवां जुबा : द लल्लनटॉप हिन्दी के सत्र में गायक उजज्वल नागर, आरजे रौनक के साथ सौरभ द्विवेदी ने नए दौर की भाषा को लेकर ऐसा सामान बाँधा कि देखने सुनने वालों को जल्दी ही यह बात समझ में आ गई कि असल बात यह नहीं है कि हिंदी की शुद्धता, शास्त्रीयता को लेकर बात हो बल्कि असल बात यह है कि विविधताओं भरे इस देश में हिंदी की व्याप्ति को लेकर चर्चा हो. हिंदी नए रंग-नए ढंग में ढल चुकी है, बस शास्त्रीयता उसको लेकर नाक-भौं सिकोड़ती रहती है.
इसी तरह विचारोत्तेजक सत्र रहा लोकप्रिय हिंदी का. जिसमें सुरेन्द्र मोहन पाठक, पंकज दुबे के साथ विचारोत्तेजक लेखक अनंत विजय ने जोरदार बहस की. संचालन अनु सिंह चौधरी का रहा, जो हमेशा लाजवाब होता है. इस सत्र में यह बात उभर कर आई कि अब हिंदी के लोकप्रिय लेखन को खारिज नहीं किया जा सकता है, गंभीरता के नाम पर साहित्य के उस विपुल भण्डार को महज इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता है कि उसमें उच्च मूल्य नहीं होते. हिंदी को हर दौर में पाठकों से जोड़ने में उसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है. अनंत विजय ने मार्क्सवाद की भूमिका पर सवाल उठाये, जिससे सहमत तो नहीं हुआ जा सकता लेकिन यह जरूर है कि हिंदी के मार्क्सवादियों ने हिंदी को एक छवि में कैद कर दिया और अपनी अकादमिक सत्ता के बल पर उसके दूसरे रूपों को दबाये रखने का काम किया. यह एक यादगार और बहासतलब सत्र रहा, जिसमें लोकप्रियता के नए पुराने मानकों के ऊपर जमकर चर्चा हुई.

सुबह की बहसों के बाद समापन सत्र की बसों को याद करते लोग घर गए जिसमें राष्ट्रवाद को लेकर तरुण विजय, रागिनी नायक के साथ अभय कुमार दुबे की चर्चा दिलचस्प रही. अभय कुमार दुबे को सुनना हर बार कुछ नया जानने को दे जाता है. दो पार्टियों के नेताओं के बीच तीखी नोंक-झोंक के बीच अभय जी की वैचारिक छौंक ने इस सत्र को यादगार अंतिम सत्र में बदल दिया.

युवा अदिति महेश्वरी का विशेष रूप से धन्यवाद दिया जाना चाहिए जिसने साहसपूर्वक न केवल इस आयोजन के बारे में सोचा बल्कि सुन्दर ढंग से इसे परिकल्पित भी किया. ‘हिंदी महोत्सव’ आने वाले समय में एक नजीर की तारः याद किया जायेगा- जैसे जैसे हिंदी का माहौल बनेगा. अगर पूर्व मंत्री जसवंत सिंह के शब्दों में कहें तो हिंदी की सेक्स अपील जैसे जैसे बढ़ेगी!  
 
      

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4 comments

  1. हिन्दुस्तान मे तो हिन्दी का ही बोलबाला चलेगा ।
    Seetamni. blogspot. in

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