बहुत सहज कहानी है, बिना किसी अतिरिक्त कथन के. हाँ, आप चाहें तो उसकी ओवररीडिंग कर सकते हैं. कहानी में यह स्पेस है- प्रकृति करगेती की यह कहानी पढ़ते हुए सबसे पहले यही बात ध्यान में आई. प्रकृति की कवितायेँ पहले जानकी पुल पर आ चुकी हैं, उनको ‘हंस’ पत्रिका का कहानी पुरस्कार मिल चुका है. समकालीन जीवन-स्थितियों, संबंधों को लेकर एक अच्छी कहानी- मॉडरेटर
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नए दफ़्तर की नयी खुशबू थी. पुराना दफ़्तर इतना पुराना हो चुका था कि आँखें बंद करके भी वहां घूमा जा सकता था. नपे-तुले कदम. सामने बैठे वहीँ पुराने लोग. आसपास से गुज़रो तो अगले कदम पे किसी को देखकर मुस्कुराना है, और दस क़दमों बाद फ़िर से किसी और को देखकर मुस्कुराना है, और पाँच क़दमों बाद जैसे कोई बैठा ही नहीं, ये जताना है. पुराने दफ़्तर ऐसे ही पुराने होते जाते हैं- कदम दर कदम. ढ़ेरों क़दमों से अप्रेयसल तक की दूरी नापी जाती है. अप्रेयसल के उस पन्ने से जहाज़ बना, फ़िर दूसरे दफ़्तर की ओर फ़ेंक देते हैं. निशाना और हवा की दिशा अनुकूल रही तो, अगले जहाज़ पर ख़ुद सवार हो पुराने हुए दफ़्तर से रवाना हो जाते हैं. ये सोचकर कि नया आसमान ढूढेंगे. पर ये भूल जाते हैं कि दफ्तरों का आसमान 70 बाय 120 इंच के क्यूबिकल से बड़ा नहीं होता. कभी हुआ ही नहीं.
पर वो ये सब बातें भूलकर नए दफ़्तर की नयी खुश्बू को अन्दर समेटने लगी. नए दफ़्तर के नए लोग, नए चेहरे! पर ज़्यादा देर देखने तक उनमें भी एक पुरानापन धीरे-धीरे झलकने लगा. उसने पुराने से बचते हुए, अपनी आँखें किसी से नहीं मिलाई, ये सोचकर कि पुराना तो थोड़ी देर से आना चाहिए. अभी तो नयी बिल्डिंग, नयी लिफ्ट, नयी दरो-दीवार, नए केबिन, नयी कुर्सियां, नए कंप्यूटर, यहीं देखकर खुश होने का वक़्त था. वो खुश भी हुयी. अमृता की ये तीसरी या चौथी नौकरी थी. अच्छे से अब याद नहीं रहा था, क्यूंकि नए से पुराने तक का सफ़र हमेशा ही एक जैसा रहा था.
अमृता जब अपनी नयी जगह पर बैठी तो नौकरी की नीरसता का पहला कोंपल फूटा. उसके सामने रखी गयी मशीन वाली कॉफ़ी. वो कॉफ़ी रखने वाले को देखकर थोड़ा मुस्कुराई. और जब वो चला गया, तब थोड़ी देर कॉफ़ी के कप को देखकर नाक चढ़ाई. उसका ध्यान एक आदमी ने ये कहते हुए तोड़ा “ आज पहला दिन है मैडम, इसलिए आप तक आई है कॉफ़ी. कल से आपको ही जाना पड़ेगा लेने.” अमृता आगे कुछ और कह पाती इससे पहले ही आदमी ने कह डाला “ हेल्लो! मैं आशीष. आपके बगल के क्यूबिकल में बैठता हूँ. और आप ?” अमृता ने कहा “ मैं अमृता.” और वो थोड़ा मुस्कुरा दी. आशीष मुस्कुराते हुए अपनी जगह वापस चला गया.
अगला दिन थोड़ा कम नया था. एक दिन बीत चुका था. अमृता को असल में पुराने से डर नहीं लगता था. पर पुराना होने के एहसास से डर लगता था. सुबह जल्दी आकर उसने अपने काम निबटाने शुरू किये, फ़िर ध्यान आया कि उसे उस दिन से कॉफ़ी ख़ुद ही लानी थी. वो कॉफ़ी लेने गयी. पिछले दफ़्तर में उसने अपने लिए एक कप रखा था, जिसे वो अपने साथ लाना भूल गयी थी. वो एक तरह से जानबूझकर ही भूली थी, क्यूंकि जब-जब वो कप लेकर कॉफ़ी लेने जाए करती, तो बाकी भी कतार में होते, लगभग एक सा ही कप लिए हुए. उसे लगता कि वो हिल्टर के कंसंट्रेशन कैंप की एक यहूदी है, जिन्हें सुविधा के नामपर बस एक कप ही नसीब था. अब नए दफ़्तर के नए कप ज़रूर थे सामने, पर वो भी एक जैसे- जिनपर कंपनी का नाम गुदा हुआ था. और उस ख़ाली कप को भी हैंडल से पकड़कर कॉफ़ी लेने के लिए कतार में लगना था. अमृता का पुरानेपन का एहसास कुछ इंच और बढ़ गया.
उस बीच उसकी नज़र गयी कॉफ़ी मशीन पर. बड़ी पुरानी मशीन थी. पर काम करने में दुरुस्त ही जान पड़ती थी. पहले कप में थोड़ी सी कॉफ़ी, फ़िर दूध, और फ़िर स्टीम, सब कुछ बराबर मात्रा और समय पर आया, दूसरे कप में भी, तीसरे कप में भी. चौथा कप अमृता का था. अमृता कॉफ़ी मशीन के आगे आई. कॉफ़ी मशीन से ‘श्याआआअये” की आवाज़ आई, जो पहलों में नहीं आई थी. अमृता ने थोड़ा रुककर ‘कैपुचिनो’ का बटन दबाया. फ़िर से वो ही- कॉफ़ी, दूध और फ़िर स्टीम. अमृता ने चीनी अच्छे से घोलने के लिए स्टरर लिया, पर जब वो स्टरर को कॉफ़ी में डुबाने ही वाली थी, उसका दिल धक् सा रह गया. उसे ऐसा लगा जैसे कॉफ़ी में दिल बना हुआ हो. वो थोड़ी देर देखती रही. आकार तो दिल सा ही था. पर फ़िर ये सोचकर मुस्कुराने लगी कि स्टीम के बाद तो बहुत से आकार संभव थे. आज स्टीम ने दिल ही बना दिया.
फ़िर वो सोचने लगी दिल के आकार के बारे में. इंसान ने जो दिल का आकार बनाया है, वो भी असल दिल सा कहाँ होता है! और यहीं सोचते हुए उसने कॉफ़ी में चीनी मिलाते हुए स्टरर से कॉफ़ी पर उभरे दिल के आकार को भेद दिया. दिल का उभरा हुआ आकार बिखर गया. और कॉफ़ी में मिलकर ग़ायब हो गया. अमृता ने कॉफ़ी का घूँट लिया, तो कुछ नया स्वाद लगा. कल वाली से बेहतर, जिसमें दिल का आकार भी नहीं आया था. वो अपने ही ख़याल में मुस्कुरा दी कि “ वाह! आज दिल भी चख़ लिया.” और फ़िर सकपकाते हुए आसपास देखा कि उसे किसी ने मुस्कुराते हुए तो नहीं देख लिया. उसे बचपन में जब भी उसकी माँ अकेले में मुस्कुराते देखा करती तो टोकती थी कि “यूँ अकेले अकेले मुस्कुरायेगी, तो लोग पागल कहेंगे.” ऐसा नहीं था कि उसका कोई काल्पनिक दोस्त हो जिससे वो बतियाती थी, पर वो कुछ कुछ सोचते हुए अकसर अकेले में मुस्कुराती थी. हर बार टोक लगने से भी उसकी आदत नहीं गयी. बल्कि एक नयी आदत लग गयी-मुस्कुराते ही सचेत हो जाने की, जैसे वो उस वक़्त हो गयी थी. उसने सोचा कि आज कुछ नया हुआ था . और पूरा दिन उस नए में बिताया जा सकता था. काम करना ज़रा आसान हो गया था.
अगला दिन पिछले की तरह ही शुरू हुआ. बस पिछले दिन से थोड़ा और पुराना था. उसके नयेपन में बस इतना हुआ कि अमृता जब कॉफ़ी लेने गयी, तब कतार नहीं थी. फ़िर से कप उसी तरह भरा- कॉफ़ी, दूध और उसके बाद स्टीम. और हाँ, कल ही तरह ही दिल का आकार, और वो भी बिलकुल पिछले दिन जैसा. उसने इस बार बिना हैरान हुए इस बात को अपना लिया. सोचा कि अगर दूसरी बार ऐसा हुआ है तो, ये मशीनों की कोई तकनीकी उपलब्धि होगी, जो पिछले दफ्तरों की कॉफ़ी मशीनों में नहीं थी. और यहीं सोचकर उसने फ़िर से स्टरर से दिल के आकार को भेदते हुए, कॉफ़ी में चीनी मिलायी.
इसी बीच आशीष भी कॉफ़ी लेने आ गया था. दोनों एक दूसरे को देखकर औपचारिता में मुस्कुराए. जब अमृता कॉफ़ी लेकर सामने की बेंच पर बैठी तो आशीष भी साथ आकर बैठ गया. आशीष ने चीनी नहीं ली थी. अमृता इससे पहले कुछ कहती, उसकी नज़र आशीष के कॉफ़ी कप पर गयी. उसका दिल फ़िर से धक् सा रह गया. आशीष की कॉफ़ी में दिल नहीं बना था. अमृता ने सोचा, मिलाते हुए दिल का आकार बिखर गया होगा. पर आशीष ने न चीनी ली थी, और न ही स्टरर. इस बात की हैरानी को मशीन की तकनिकी उपलब्धि में ख़राबी समझ कर किनारे कर दिया गया.
अब ऐसा रोज़ होने लगा था . पर बात की पुष्टि अभी भी नहीं हुयी. वो पूछे भी तो किससे? और क्या? कि क्या तुम्हारी कॉफ़ी में भी दिल का आकार क्यूँ नहीं बनता है, और मेरी में बनता है? वो अपनी कॉफ़ी लेने से पहले दूसरों की कॉफ़ी कप में झांकती. किसी की भी कॉफ़ी में दिल का आकार, या दिल जैसा कुछ भी नहीं होता. बाकियों में रहता था बस ढेर सारा झाग. पर उसकी में बहुत ही सुन्दर सा दिल का आकार- एक प्यार का आकार. पर उसे उस आकार को किसी को भी दिखाने की हिम्मत नहीं हुई. उसकी माँ की टोक हमेशा उसके साथ रहती थी “….लोग पागल समझेंगे!” बचपन से लेकर आजतक उसने इस टोक को सहेज के रखा था. वो टोक बहुत कारगर भी थी. पागल समझे जाने के डर ने उसे एक समझदार इंसान बनाया था. हर बात कहने से पहले, दस बार सोचती. हर काम करने से पहले हज़ार बार. उसकी ज़िन्दगी इसी कारण बहुत संतुलित थी. पर ये दिल के आकार वाली बात संतुलन तो थोड़ा डगमगा रही थी. ये बात किसी और को बताने की ज़रूरत उसे नहीं लगी. ऑफिस में रोज़गार होता, कामों में घिरी रहती. और घर ख़ाली. न ही उसकी शादी हुयी थी, और न ही उसे किसी से प्यार.
पर न चाहते हुए भी, उसे इस प्यार के आकार से थोड़ा डर लगने लगा था. घरवालों और दोस्तों के अलावा, किसी और का प्यार उसके पास भी नहीं फटका था. पर वो प्यार का आकार रोज़ उसकी कॉफ़ी में मिलता. अब तो कॉफ़ी घूँट लगाती तो, अजीब सा एहसास होता. और सोचकर थोड़ा घबरा जाती. पर वो घबराना अलग था. वो मुस्कुराकर घबराती. घबराती ये सोचकर कि प्यार का आकार कॉफ़ी के साथ मिलकर उसके गले से होता हुआ उसके शरीर में मिल रहा होता. और वो ही बिखरा हुआ प्यार का आकर, खून में मिलकर उसके दिल तक भी पहुँचता. वो दिल, जो उसका था. वो दिल, जो असल था, धड़कता था, और प्यार के आकार से बिलकुल भी मेल नहीं खाता था. और ऐसे ही बहुत से ख़यालों के बीच, उसकी घबराहट में मुस्कराहट की मिलावट होती.
और इस बीच अमृता का नया दफ़्तर पुराना होना भूल गया. अमृता ख़ुद भी भूल गयी थी कि पुराना होना बचा था. वो जितना मन लगाकर काम करती, उतना ही मन लगाकर वो कॉफ़ी पीती. या वो ये सोचना भूल जाती कि हो उसका उल्टा रहा था. वो जितना मन लगाकर कॉफ़ी पीती, उतना मन लगाकर काम करती. कॉफ़ी में अलग सी लज्ज़त थी. काम में नहीं थी. लज्ज़त का ढोंग था, कॉफ़ी के बहाने.
वो अक्सर कॉफ़ी मशीन के बारे में सोचती, जो मूक थी. वो कॉफ़ी मशीन के अलावा कुछ और नहीं थी. पर उसकी अपनी एक भाषा थी. इंसानों से अलग. वो भाषा जो कॉफ़ी निकलने पे आती, दूध निकलने पे आती. और भाषा दूध और कॉफ़ी की मात्र पर निर्भर रहती. साथ में स्टीम की भाषा भी थी , जो कॉफ़ी को स्टीम देने वाले पर निर्भर थी. और एक भाषा थी उसके मौन की, जो कॉफ़ी के दानों का कचरा हटाने का संकेत होती. बटन दबते, पर कोई आवाज़ नहीं आती. बस उसकी छोटी सी स्क्रीन पर लिखा होता “बिन फुल”. ये सब संकेत और भाषाएं बाकी सभी कॉफ़ी मशीनों में थे. पर अमृता सोचती, कि ये प्यार का आकार बनाने की भाषा उस मशीन में कहाँ से आई होगी ! और ऐसी भाषा जो सिर्फ़ उसे ही समझ में आती, जैसे कोई भूत हो, जो सिर्फ़ उसे ही दिखता हो. पर वो पागल नहीं थी. 32 साल तक बिलकुल साधारण ज़िन्दगी जी चुका इंसान पागल नहीं हो सकता था. वो भी नहीं थी. पर दिल का आकार भी सच्चा था. उसने जो दिल के बारे में 32 सालों में नहीं सोचा था, वो तब सोचने लगी. और वो सोच एक ही तरफ़ ले जाती थी- किसी से दिल लगाने की दिशा में.
आशीष, जिसके साथ वो रोज़ कॉफ़ी पीती, खाना खाती, उसके पास भी दिल था, बिलकुल वैसा जैसा उसके भी दिल का आकार था. वो दोनों कब साथ में धड़के, उन्हें भी नहीं मालूम था. सब कुछ वैसे ही हुआ, जैसे किसी भी घिसीपिटी प्रेम-कहानियों में मुनासिब था. घिसापिटा यूँ तो अमृता को रास न आता, पर इस बार कॉफ़ी के घूंटों में वो सब कुछ निगले जा रही थी. और एक दिन ऐसा भी आया कि वो आशीष से प्यार कर बैठी.
प्यार कर बैठने का ख़ुमार, कई दिन उसके साथ रहा. वो प्यार जिससे ‘प्यार की परिभाषा’ लिखी गयी थी. पर प्यार कर बैठने के कुछ दिनों बाद प्यार हाथों से छूटता जाता था. ये बात ‘प्यार की परिभाषा’ में सोच समझकर नहीं लिखी गयी थी,
आज के जीवन काे कॉफी कप में दिल के बनने आैर नहीं बनने में भी देखा जा सकता है …
प्रकृति जी तक बधाई पहुँचे !!
शुक्रिय भाई !!
– कमल जीत चाैधरी .
एक नये तरीके से और खूबसूरती से लिखी हुई पर कुछ उदास सी कहानी।
कहानी बहुत पसन्द आयी, कहानी लेखन की यही प्रयोगात्मक्ता उम्मीद जगाती है कहीं कहीं पर कुछ कहानी में बोझिलता भी आयी है पर कहानीकार ने आगे के हिस्सों में उसे सफाई के साथ रोचकता दे दी .. कहानी में संवाद लगभग नहीं है और इसकी कोई जरुरत भी महसूस नहीं हुई .. यही आज की शैली है और यही उम्मीद भी कि कहानी अब जिन हाथो में है वह वहाँ दिन प्रतिदिन खुद को और भी ताज़ा करेगी .. यह कहानी गंभीर होते हुए भी गंभीर नहीं है कहानी का अंत इसकी विशेषता है जिसे लेखिका ने बखूबी अंजाम तक पहुचाया है .. कहानी नाटकीयता में न जा कर सहज भाव से अपनी बात कहती है और बस हमे यहाँ ही वह प्रमाण मिल जाता है कि लेखिका के सामने कहानी के उद्देश्यबिल्कुल स्पष्ट है और वह एक लंबी यात्रा के लिए तैयार है
बहुत बधाई उन्हें