आज पारुल रावत की कवितायेँ त्रिपुरारि कुमार शर्मा की भूमिका के साथ. पारुल का एक परिचय यह भी है कि वह दिवंगत कवि श्री भगवत रावत के परिवार की तीसरी पीढ़ी की कवियित्री हैं. अपने मुहावरे की ताजगी और बयान की सादगी से इस कवयित्री की कवितायेँ सहज ही ध्यान खींचती हैं- मॉडरेटर
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किसी भी रचनाकार के बारे में कुछ भी लिखना ज़रा मुश्किल काम है। लेकिन ये हम कब होते हैं जो लिखते हैं? सच तो ये है कि उस रचनाकार में, उसकी रचनाओं में ‘कुछ ख़ास’ होता है जो हमसे लिखवा लेता है। पारुल रावत की कविताओं में ये ‘कुछ ख़ास’ कुछ इस तरह से आता है, जैसे सुबह की धूप पड़ते ही पहाड़ों की चोटी पर जमी बर्फ़ अपने आप पिघलने लगती है। पारुल की कविताएँ एक ऐसी दुनिया की सैर के लिए आपको आमंत्रित करती है, जहाँ न बहुत ज़्यादा उजाला है और न ही बहुत ज़्यादा अंधेरा। जहाँ चुपचाप बहती हुई मध्यम रोशनी एक नदी की तरह दिखाई देती है। उस नदी के किनारे टूटी हुई कश्तियाँ भी हैं और साबुत पतवार भी। आप जब ग़ौर से देखेंगे, तो उसी नदी के पास एक भटकती हुई आवाज़ भी मिलेगी। उस आवाज़ में एक मासूम लड़की की ख़्वाहिश भी शामिल है, जो किसी दिन इस दुनिया से बहुत दूर उड़ जाना चाहती है। वो लड़की अपने आसपास महकते हुए ज़हर की गंध को पहचानती भी है और उस गंध का तोड़ ढूँढ़ने की राह पर अग्रसर भी है। वो लड़की ढलती हुई शाम को देखकर उदास होना भी जानती है और नए दिन के नए सूरज का इंतज़ार करना भी। उसे स्मृतियों के साथ चलना भी आता है और घर की चौखट पर उम्मीदों के फूल टाँकना भी। – त्रिपुरारि कुमार शर्मा
पारुल रावत की कविताएँ
कब से…
कब से पढ़ाया जा रहा है
उसे पाठ, उसके ही भोलेपन का
कितनी–कितनी चेतावनियों की छाया में
नज़रें बाँधी जा रही हैं उसके हर फ़ैसले से
कितने–कितने एहतियात बरतने के मशवरे
उछाले जा रहें हैं उसकी ओर।
लड़ाई के इस पड़ाव पर
उसके कन्धों पर बोझ
केवल उसकी आशंकाओं का ही होना था
फिर, कहाँ से पैदा हो रहे हैं
ये बेशक़्ल – बदज़ान मुद्दे!
किस दिशाहीनता की ओर बढ़ेगी ये चर्चा
अब कितनों को बोलना होगा! उसके कुछ कहने से पहले
दरअसल
किसी नायाब धूर्तता के सहारे ही
शायद उलट पाएगी वो अपने भोलेपन के पाठ को
क्या पौरुषता के बल पर ही
अपने स्त्रीतत्व को बचा पाएगी वो।
इस बार निष्कर्ष यही निकलेगा, कि
बंदूकों और तलवारों से काटना पड़ेगा,
अपने आगे बढ़ने का रास्ता
क्योंकि, कलम और आवाज़
ज़ुबान खो बैठे हैं अपनी
वैसे भी
भाषा उसकी थी ही कब?
वो लटकी है समय के उस पड़ाव पर,
जहाँ नपुंसकता की परिभाषा बनी और
सबसे पहले, जहाँ उस पर गढ़ा गया था
उसका लिंग, उसकी योनि अनुसार
अब वहां तक वापस लौटना संभव नहीं;
उसके लौटते पाँव, खींच लायेंगे
धरती की उलटी चाल को अपने साथ
कैसे उखाड़ेगी वो सभ्यता के चरखे को,
किसी आदिम सच की तलाश में !
मंथन करते–करते, दूध से मक्खन
खारे–मैले पानी से अमृत
और न जाने, घड़ी के काँटों से
कितना–कितना समय पैदा हो गया।
मथ रहीं है वो
अपने अन्दर की आवाज़ों को
शरीर, मन, आत्मा की मथनियों में
फँस रहें हैं, भाषाओँ–परिभाषाओं के कंकड़
अभी तक सिर्फ़, एक स्वाधीन चुप्पी हाथ आई है,
सो फ़िलहाल …वो चुप ही रहेगी।
मोरपंख
सीधी सी खाली सी सड़क पर
जब चलते चलते एक अँधा मोड़ आता है
मैं आगे बढ़कर नहीं देख पाती
पीछे छूट गया रास्ता
कितना अजीब था
मुड़ने से पहले की जो अपेक्षाएं थीं
वे सब अब रहती नहीं बाकी
जन्म नई अपेक्षाओं का होता है
कुछ चीज़ें तो रहती है वैसी की वैसी
बाकी जो बदल जाती हैं
उनका असली रूप हो जाता है
स्मृति से ओझल
कुछ बीतें हुए पड़ाव बन जाते है
वास्तविकता से अधिक भयावह
और कुछ बन जाते है
ज़रुरत से ज़्यादा हसीन
चलते चलते फिर भी
बदलते रास्तों और नजारों से गुज़रते हुए
कई बार मेरी आँखें
ऊपर उठकर उस स्थिर आसमान
क
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बेहद जरुरी कविताएँ हैं पारुल जी की । बहुत आभार इन्हें साझा करने के लिए ।
पारुल रावत की सुन्दर रचनाएँ पढ़वाने के साथ ही परिचय प्रस्तुति हेतु आभार!