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बेशर्म समय की शर्म का व्यंग्यकार मनोहर श्याम जोशी

आज हिंदी के विलक्षण लेखक मनोहर श्याम जोशी की जयंती है. इस मौके पर राजकमल प्रकाशन से उनका प्रतिनिधि व्यंग्य प्रकाशित हुआ है. जिसका संपादन आदरणीय भगवती जोशी जी के साथ मैंने किया है. आज उनको याद करते हुए उस पुस्तक की भूमिका-प्रभात रंजन 
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व्यंग्य मनोहर श्याम जोशी के लेखन का स्थायी भाव है. 1980 के दशक में अधुनिकोत्तर उपन्यास लेखक के रूप में चर्चित होने से पहले वे एक व्यंग्यकार के रूप में हिंदी भाषी समाज में घर कर चुके थे. ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य स्तम्भ ‘नेताजी कहिन’ के माध्यम से उन्होंने हिंदी में व्यंग्य की एक नई शैली विकसित की जिसमें बालमुकुन्द गुप्त से लेकर हरिशंकर परसाई तक के व्यंग्य लेखन का निचोड़ दिखाई देता है. बालमुकुन्द गुप्त की तरह भाषा का खेल और परसाई जी की तरह व्यंग्य के माध्यम से गहरी राजनीतिक टिप्पणियों के कौशल के संतुलन के माध्यम से उन्होंने जिस व्यंग्य विधा का विकास किया वह अपने आप में हिंदी के लिए एकदम नई चीज थी.

अगर मनोहर श्याम जोशी ने उपन्यास न भी लिखे होते तो भी एक व्यंग्यकार के रूप में हिंदी में उनका आला मुकाम रहा होता. लेकिन उन्होंने अस्सी के दशक में अपने उपन्यासों के माध्यम से व्यंग्य विधा का पुनाविष्कार किया. असल में मनोहर श्याम जोशी हिंदी की वाचिक परंपरा के संभवतः आखिरी बड़े लेखक थे. इसलिए बातचीत के माध्यम से किस तरह सहजता में व्यंग्य के मारक प्रसंग पैदा होते हैं यह उनके लेखन में समझ में आता है.

इसी तरह उनके कुछ व्यंग्य वे हैं जो उन्होंने ‘राजधानी के मसीहाई सलीब पर कुछ चेहरे’ श्रृंखला के अंतर्गत ‘सारिका’ पत्रिका के लिए लिखे थे. आज कल आप व्यंग्य भाव से किसी लेखक के व्यक्तित्व, उनके लेखन का विश्लेषण कर दीजिए तो कोर्ट कचहरी की नौबत आ सकती है. लेकिन अगर आप उनके व्यंग्य लेख ‘एक अपना ही अजनबी’ को पढ़ें तो पाएंगे कि कवि-लेखन-विचारक अज्ञेय के व्यक्तित्व का ऐसा गहरा विश्लेषण शायद ही कहीं मिले, सो भी विनोद भाव से लिखा गया.  

‘जिस देश में जीनियस बसते हैं’ पुस्तक में यह कोशिश की गई है कि अलग-अलग विधाओं में लिखे उनके व्यंग्यों का एक प्रतिनिधि रूप देने का प्रयास किया गया है. जोशी जी फिल्म और टीवी जगत में भी बतौर लेखक अपनी धाक रखते थे. इस संकलन में एक लेख है ‘इस्टोरी से स्क्रीन तक’ जिसमें व्यंग्य भाव से उन्होंने बड़ी सहजता से एक फिल्म निर्देशक के ‘स्टोरी सेशन’ का वर्णन किया है. उनका लिखा और प्रकाश झा निर्देशित टेलिविजन धारावाहिक ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ ने भारतीय समाज को महज एक नया मुहावरा ही नहीं दिया, जिसका की राजनीतिक सन्दर्भों में हाल के वर्षों में खूब इस्तेमाल हुआ है, बल्कि व्यंग्य-विधा को मनोरंजन-माध्यम में ठोस नैरेटिव-आधार भी दिया. उसी तरह, उनका व्यंग्य-स्तम्भ ‘नेताजी कहिन’ जब टेलिविजन के परदे पर ‘कक्काजी कहिन’ के रूप में आया तो ओम पुरी ने उनके व्यंग्यबोध को जीवंत कर दिया. पुस्तक में इनके अंशों को शामिल करने का यही उद्देश्य है कि उनके व्यंग्य-लेखन के उस रेंज से पाठकों का परिचय करवाया जा सके जिसने उनको अपने दौर में इस विधा के एक ऐसे व्यंग्यकार के रूप में स्थापित किया जिनके व्यंग्य-लेखों, व्यंग्य-कथा-प्रसंगों में गहरी राजनीतिक निराशा होती थी और एक गहरा विडंबनाबोध. शायद व्यंग्य गहरे अर्थों में यही काम करता है- वह अपन समय के विद्रूप को इस तरह मुखर करता है कि वह आने वाले समय के लिए सन्दर्भ बिंदु बन जाता है.

मनोहर श्याम जोशी एक बौद्धिक व्यंग्यकार थे, जिनके व्यंग्य में आपको फूहड़ता या वह ‘लाउड’ छिछलापन नहीं मिलेगा जो समकालीन व्यंग्य लेखन की विशेषता मानी जाती है. इस अर्थ में देखे तो वे व्यंग्य की की एक समृद्ध परम्परा के सशक्त हस्ताक्षर की तरह लगते हैं तो कई बार अपने फन में अकेले भी, जिसकी नक़ल करना आसान नहीं है. ‘जिस देश में जीनियस बसते हैं’ पुस्तक के आलेखों में उनकी यह खासियत उभर कर आती है. इसमें उनके उपन्यासों के अंश हैं, उनके संस्मरण के हिस्से हैं और उनके स्वतंत्र व्यंग्य-लेख भी जो उनके व्यंग्य के रेंज को भी दिखाते हैं.

अपने आखिरी दिनों के एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि हमारा समाज विद्रूप के मामले में अधिक आगे है, ऐसे में व्यंग्य-विधा उससे बहुत पीछे दिखाई देती है. अपनी आखिरी बातचीत में उन्होंने बीबीसी से यह कहा था कि हम एक बेशर्म समय में रहते हैं. सच में, व्यंग्य हमारे भीतर की शर्म को जाग्रत करने की एक सशक्त विधा रही है, पुस्तक के लेखों में यह बात उभरती हुई दिखाई देती है. आशा है पुस्तक के व्यंग्य-आलेखों को पढ़ते हुए महज मनोहर श्याम जोशी के व्यंग्य की रेंज का परिचय नहीं मिलता है बल्कि हिंदी व्यंग्य की सीमा और विस्तार का भी. 
 
      

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4 comments

  1. सुंदर प्रस्तुति। नई किताब के लिए बधाई। उनके व्यंग्य लेखन का एक प्रतिनिधि संकलन ‘उस देश का यारो क्या कहना’ मेरे पास है पर मैं उम्मीद करता हूँ कि इस नये संयोजन में जोशी जी की कुछ नई रचनाएँ भी पढ़ने को मिलेंगी।

    जोशी जी इतने प्रिय लेखक हैं कि उनके जाने के बाद भी यह मन तो करता ही रहता है कि उनका लिखा कुछ नया पढ़ने को मिले।

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