गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ प्रेम का महाकाव्यात्मक उपन्यास है. इस उपन्यास की न जाने कितनी व्याख्याएं की गई हैं. इसके कथानक की एक नई व्याख्या आज युवा लेखिका दिव्या विजय ने की है- मॉडरेटर
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महबूब कहे तुम मोहब्बत करती हो मगर वैसी नहीं। मैं पूछूँ कैसी? और वो सामने रख दे यह किताब और आँखें जगर मगर हो उठें पहली ही पंक्ति पर। ‘कड़वे बादाम कीख़ुशबू उसे हमेशा एकतरफ़ा प्यार के भाग्य की याद दिलाती थी!’ मार्केज़ के अनेक विलक्षण कार्यों में से एक है ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा।‘
किताब पढ़ना कई तरह का होता है। कई बार आप ख़ुद किरदार हो जाते हैं। कभी पात्रों को बाहर से देखते हैं। इस किताब को पढ़ते हुए मैं किरदार नहीं हो पायी। किरदार यूँ नहीं हो पायी कि फ़्लॉरेंटीनो-सी मोहब्बत करने की न मेरी कुव्वत थी न उस उत्कटता को सहन करने का साहस।मैं नैरेटर की गलबहियाँ डाले चरित्रों का जीवन पढ़ती रही। सादा दीख पड़ने वाली बातों का तला नैरेटर की आँखों से देखती रही। कितनी ही बातें समझ न आने पर उलझने की बजाय कथावाचक को टहोका देती रही कि समझाओ अब।
मृत्यु से आरम्भ होने वाली यह प्रेम कहानी कई तहों को उधेड़ते हुई जीवन तक ले जाती है जब जहाज़ का कप्तान, बहत्तर वर्ष के नायक का अपराजेय और निडर प्रेम देख अनुभव करता है कि ‘मृत्य से अधिक अपरिमितता जीवन में है।‘
यह उपन्यास अन्य प्रेम कथाओं से इसलिए कुछ अलग है कि आरम्भ तब होता है जब प्रतीत होता है कि अंत निकट है। लेकिन यह सिर्फ़ प्रेम कथा नहीं है। प्रेम इसका मूल है परंतु प्रेम के अतिरिक्त बहुत सी गूढ़ छिपी हुई बातें भी हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। प्रेम त्रिकोण होने के अतिरिक्त यह प्रेम के असंख्य हो सकने वाले पहलुओं पर विचार करता है। प्रेम, विवाह, वृद्धावस्था, मृत्यु, निष्ठा जैसे अनेक विषयों से डील करते हुए यह कहानी आगे बढ़ती है।
पतला दुबला, चिपके बालों और ढीला ढाला फ़्रॉक कोट पहने रहने वाला वाला नायक फ़्लॉरेंटीनो रोमांटिक उपन्यासों के नायक के लिए पूर्वनिर्धारित धारणाएँ तोड़ता है। उसके पास अपनी नायिका को रिझाने के लिए न अप्रतिम सुंदरता है न अद्वितीय विशेषता। वो ख़त लिखता है। प्रेम में डूबे हुए लम्बे ख़त। उपन्यास में एक भी ख़त की बानगी नहीं है लेकिन विवरण से हम कल्पना कर सकते हैं कि वो ख़त कितने मीठे, रसपगे होते होंगे। ख़तों की ख़ुशबू हम तक पहुँचती है। उसका प्रेम पहली दृष्टि में ‘स्वीटहार्ट लव‘ लगता है परंतु धीरे धीरे उसके प्रेम के दूसरे पहलू स्पष्ट होते हैं। नायिका की एक झलक के लिए सुबह से रात तक उसके घर के सामने बैठे रहना, नायिका की ख़ुशबू से मेल खाते इत्र को पी जाना, ख़त का जवाब आने पर ख़ुशी के अतिरेक में गुलाब खाना, आधी रात को उसके लिए वाइलिन बजाते हुए गिरफ़्तार हो जाना, हर स्थान पर स्टॉकर की भाँति नायिका का पीछा करना, उसे कहीं न कहीं मनोरोगी प्रमाणित करता है। परंतु फिर भी, जब उपन्यास ख़त्म होता है तब उसके हर आचरण को दरकिनार करते हुए हम उसका प्रेम मुकम्मल होने का उल्लास महसूस करते हैं।
प्रेम क्या है जैसा बुनियादी प्रश्न यह उपन्यास हमारे सामने रखता है। इस आसान प्रश्न का उत्तर उतना ही जटिल है। और इसकी जटिलताओं को सुलझाने का प्रयत्न करते हुए उपन्यास मानव मन और मस्तिष्क की सूक्ष्म पड़ताल करता है। उदाहरण के लिए, दो वर्ष तक नायक फ़्लॉरेंटीनो के पत्रों का उत्तर देने के पश्चात, विवाह का वचन देने के बाद फ़रमीना कुछ अंतराल बाद उसका परित्याग कर देती है। यह इतना आकस्मिक और अप्रत्याशित होता है कि पलट कर देखना पड़ता है कि जो पढ़ा सही पढ़ा या नहीं। यहाँ इस एक प्रसंग से कहानी कहने की कला पर मार्केज़ का कितना आधिपत्य है सिद्ध होता है। पहले क्षण जहाँ वो अपने प्रेमी को पत्र लिखने के लिए स्याही ख़रीद रही होती है। अगले ही क्षण उसके सामने आ जाने पर विगत वर्षों को भ्रम और बेवक़ूफ़ी मान हाथ के एक इशारे मात्र से ख़ारिज कर देती है। किशोरावस्था में शुरू हुआ प्रेम सम्बन्ध उस वक़्त रूमानी लगा होगा मगर जब वो एक लम्बे प्रवास के बाद वापस लौटी उसकी सोच एक स्त्री की-सी हो गयी। स्त्री की सोच से क्या तात्पर्य है इसके अनेक विश्लेषण हो सकते हैं। फ़्लॉरेंटीनो का असौंदर्य दृष्टिगोचर हुआ अथवा उसके साथ कोई भविष्य नहीं है इसका भान हुआ। कच्ची उम्र का संवेदनशील प्रेम तरुणी के वयस्क हो जाने पर उसकी संतुलित और परिष्कृत अभिरुचि के कारण समाप्त हो जाता है।
अर्थात् जो था वह प्रेम था या नहीं! नएपन को जीने की लालसा थी अथवा अनुभव प्राप्त करने की इच्छा। किसी न किसी स्तर पर प्रेम है परंतु दोनों ओर की तीव्रता में अंतर है। नायक के लम्बे और गहन पत्रों के उत्तर अपेक्षाकृत नपे तुले और संतुलित होते हैं। नायक से अधिक, नायिका प्रेम के अहसास से प्रेम करती प्रतीत होती है। लेखक ने मनोविज्ञान की सूक्ष्म पहेलियाँ रख छोड़ी हैं जिसको हम अपने बौद्धिक स्तर के अनुसार हल कर सकते हैं।
मैं असमंजस में नैरेटर को देखती हूँ कि कहानी आगे बची है? प्रेमिका ने नकार दिया। अब क्या हो सकता है! किसी को जबरन मोहब्बत नहीं करवा सकते। ‘मोहब्बत नहीं करवा सकते पर मोहब्बत को संभाल कर तो रख सकते हैं। जीवन लम्बा है और जीवन की गति अज्ञात।‘ अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में नैरेटर बातें घुमाते हुए जवाब देता है। (ओह! क्या मैंने कोई शरारती मुस्कुराहट देखी।)
जब हमें लगता है हम किरदारों को जान रहे हैं और उनसे संबद्ध होने लगते हैं तभी चरित्र इतनी तेज़ी से अपनी छवि को तोड़ निकलने को आतुर हो जाते हैं कि हम अचम्भित हो देखते रह जाते हैं।
अपनी वर्जिनिटी मात्र अपनी नायिका के लिए बचा कर रखने वाला नायक कैसे ‘वुमनाइज़र‘ में तब्दील होता है यह देखना दिलचस्प है। फ़रमीना के प्रेम में आकंठ डूबा फ़्लॉरेंटीनो लगभग सेक्स मेनीऐक बन स्त्रियों का शिकार करता है। स्त्रियाँ उसके लिए सेक्स टूल हैं और सेक्स उसके लिए ड्रग है जिसके प्रभाव में वो अपनी पीड़ा को भुलाए रखता है। ( क्या प्रेम पीड़ा है! नैरेटर कुछ नहीं कहता। यह ख़ुद ही समझना होगा।)
अपने लम्बे जीवन में ६२२ औरतों से सम्बंध और अनेक वन नाइट स्टैंड करने के पश्चात भी नायिका के लिए उसका प्रेम ख़त्म नहीं होता। प्रेम को विस्मृत करना सरल नहीं है और जिस प्रकार के ऑबसेशन से हमारा नायक ग्रस्त है उसमें तो ज़रा भी मुमकिन नहीं। यहाँ मार्केज़ नायक का चरित्र जिस तरह से बुनते हैं वह काफ़ी पेचदार है और कई प्रश्न अपने पीछे छोड़ जाता है। पूरे उपन्यास में देह को प्रेम से अलग रखा गया है। देह के ज़रिए देह की संतुष्टि होती है मन की नहीं। सैकड़ों लोगों के साथ सो चुकने पर भी नायक की निष्ठा नायिका के लिए रत्ती मात्र कम नहीं होती। सम्बन्धों के प्रति ईमानदारी नापने का पैमाना क्या है। देह, मन या दोनों? डॉक्टर उरबीनो का अपनी पत्नी के अतिरिक्त दो स्त्रियों से सम्बंध रखना छोटा छल है अथवा फ़्लॉरेंटीनो का सैकड़ों स्त्रियों के साथ सो रहने के बावजूद फ़रमीना के प्रेम में आकुल रहना बड़ी ईमानदारी है। उत्तर उपन्यास के अंत में हमें मिलता है जब वह फ़रमीना के सामने अपने ‘वर्जिन‘ होने की घोषणा करता है तो हमें कुछ भी विचित्र नहीं लगता। यह असत्य होते हुए भी सत्य ही प्रतीत होता है।
लुभावनी फ़ितरत से इतर नायक का ‘डार्क‘ पहलू बार बार उभर कर आता है। बहत्तर वर्ष की उम्र में, संरक्षण में रह रही चौदह वर्षीया दूर की रिश्तेदार से सम्बन्ध बनाने का वाक़या हो अथवा अपने से बड़ी उम्र की औरतों का साथ हो वह जितनी आसानी से अपने मन को अलग थलग रख सम्बन्धों में आगे बढ़ता है वह वाक़ई कई स्थान पर अचम्भित करता है। निर्दोष लगने वाला व्यवहार घातक तब सिद्ध होता है जब फ़्लॉरेंटीनो के साथ सम्बन्धों के बारे में मालूम होने पर एक पति गला काट कर अपनी पत्नी की हत्या कर देता है।या फिर चौदह साल की प्रेमिका उसके प्रेम में आत्महत्या कर लेती है। अंतरात्मा की आवाज़ की अवहेलना कर ख़ुद की ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ना नायक की नैतिकता पर सवाल उठाते हैं। अपने सम्बन्धों के लिए संवेदनशील लोग कैसे दूसरों की संवेदनाओं को नकारते चले जाते हैं इसका उदाहरण हमारा प्रेम पीड़ित नायक है।
मगर नायक की तमाम विसंगतियों के बावजूद उस से सहानुभूति होती है। हम पात्रों के लिए संवेदना से भर जाते हैं। लेखक अपने पात्रों को बुनते हुए जजमेंटल नहीं होता है। सारे पात्र जटिल होते हुए भी ज़िंदगी जितने असल लगते हैं। कई दफ़ा अनुचित होते हुए भी हम उन्हें आलोचनात्मक दृष्टि से नहीं देख पाते क्योंकि लेखक हमारी समझ विकसित करता चलता है। वो पात्रों की डिटेलिंग इस तरह करता है कि नैतिक रूप से ग़लत होते हुए भी हम निर्दयी होकर उन्हें नकारते नहीं बल्कि उनकी परिस्थितियों को समझते हुए उनके साथ बने रहते हैं।
विवाह पर मार्केज़ के अपने स्टीरियोटाइप हैं। मार्केज़ विवाह में प्रेम और प्रसन्नता से अधिक स्थायित्व पर बल देते हैं। फ़रमीना विवाह के लिए डॉक्टर उरबीनो का चुनाव करती है परंतु प्रेम इस विवाह का कारण नहीं है। फ़्लॉरेंटीनो के अनुसार डॉक्टर की समृद्धि इसकी वजह है। परंतु असल में फ़रमीना की असुरक्षा इसका कारण है। एक स्थान पर उरबीनो की आत्मस्वीकृति है कि वह फ़रमीना से प्रेम नहीं करता परंतु यह भी मानता है कि प्रेम अंकुरित हो सकेगा। विवाह के बाहर उरबीनो के सम्बन्धों से दुखी हो फ़रमीना कुछ वक़्त के लिए घर अवश्य छोड़ती है परंतु अपने पति को नहीं। प्रचंड प्रेम न होते हुए भी एक अलहदा क़िस्म का प्रेम है जिस पर विवाह टिका रहता है। वैवाहिक जीवन की तमाम परेशानियों के बावजूद यह प्रेम बचा रहता है। प्रेम की रोमांटिक अवधारणाओं से इतर यह प्रेम अलग है। उनके अनुसार ‘विवाह में सबसे बड़ी चुनौती ऊब पर विजय पाना है‘।
जबकि फ़्लॉरेंटीनो विवाह को स्त्रियों के लिए बंधन मानता है। उसके अनुसार वैधव्य स्त्रियों को स्वतंत्रता प्रदान करता है। विधवा स्त्रियों का चरित्रांकन भी यही सिद्ध करता है। दुःख की एक निश्चित अवधि के बाद वे जिस तरह मुक्त हो जाती हैं, सेक्स में आक्रामक हो जाती हैं, वे कोई दूसरी व्यक्ति प्रतीत होती हैं। जैसे अब तलक वे किसी क़ैद में जीवन व्यतीत कर रही थीं और अब अचानक ख़ुद की देह और आत्मा की अधिकारी हो गयी हैं। यहाँ वे सारी स्त्रियाँ स्वतंत्र नज़र आती हैं जो अकेली हैं और अपने मनपसंद साथियों के साथ सो रही हैं। स्त्रियों की स्वतंत्रता क्या मात्र देह की स्वतंत्रता है! नैज़रेथ अपने दैहिक सम्बन्धों पर टिप्पणी करती है, ‘मैं तुम्हें पसंद करती हूँ क्योंकि तुमने मुझे वेश्या बनाया।‘ स्त्रियों के प्रति घिसी हुई मानसिकता क्या इस जुमले में नहीं दीखती जहाँ एक से अधिक सम्बंध बनाते ही वो वेश्या हो जाती है। यहाँ एक ही टकसाल से निकली स्त्रियाँ हैं जो उम्र को दरकिनार कर हमारे नायक के साथ सोने को अधीर हैं। बूढ़ी स्त्रियों से लेकर बच्चियों तक। ‘स्त्री जब किसी पुरुष के साथ सोने का मन बना लेती है तब दुनिया की कोई ताक़त उसे पीछे नहीं हटा सकती।‘ क्या सच! नैरेटर ने कितनी कहानियाँ सुनायीं जहाँ स्त्रियाँ कैसी भी स्थिति में किसी के भी साथ सो रही हैं। अपने बलात्कार की स्मृतियों को ‘चेरिश‘ कर रही हैं। क्या स्त्रियाँ सचमुच इतनी उन्मादी होती हैं! ( नैरेटर बस कहानियाँ कहता है। उसकी देखी सुनी या सोची हुई।)
बहरहाल, जीवन के इक्यवान वर्ष, नौ महीने और चार दिन एकतरफ़ा प्रेम में डूबे रहने के बाद फ़रमीना का प्रत्युत्तर उसे मिलता है। परंतु पति की मृत्यु के पश्चात, पुराने प्रेम कि पुनरावृत्ति की बजाय नया प्रेम अँखुआता है। नायिका के मन में पुराने दिन की स्मृतियाँ हैं। परंतु वे स्मृतियाँ एक नॉस्टैल्जिया की तरह हैं जैसे पुराने घर की या बचपन की स्मृतियाँ होती हैं जिन्हें हम याद करते हैं परंतु वापस नहीं लौटते। वह फ़्लॉरेंटीनो को जानती है परंतु पुराने प्रेम के पुनरारंभ के लिए प्रस्तुत नहीं है। फ़्लॉरेंटीनो एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद प्रेम को नए सिरे से आरम्भ करता है और इसमें वो सफल भी होता है। एक नवयुवक की भाँति जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपने प्रेम को पाने के लिए वह कमर कस लेता है। ( क्या प्रेम युद्ध है! फ़्लॉरेंटीनो के लिए तो यह अनवरत संघर्ष बना रहा जिस पर अब उसे विजय पानी ही है! यह चुनौती उसे फिर ऊर्जा से भर देती है।) उम्र प्रेम के बीच बाधक नहीं है। यहाँ जर्जर होती देह की महक है, उम्र के साथ घट गया पुरुषत्व है परंतु अनथक प्रेम का अभिलाषी मन है।
क्या प्रेम रुग्णता है? पूरे उपन्यास में प्रेम की तुलना कॉलरा के लक्षणों से की गयी है। नायिका का जवाब न आने पर व्यग्र नायक के बीमार पड़ने पर डॉक्टर कॉलरा होने का अंदेशा ज़ाहिर करता है। उपन्यास के अंत में प्रेम और कॉलरा की तुलना अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँचती है जब फ़्लॉरेंटीनो जहाज़ के कप्तान को घोषणा करने का आदेश देता है कि जहाज़ पर कॉलरा का प्रकोप है। यद्यपि जहाज़ पर कॉलरा का कोई रोगी नहीं है फिर भी यह दावा पूर्ण रूप से ग़लत नहीं है क्योंकि जिस दिन नायिका ने उसे अस्वीकार किया था उसी दिन से नायक अनवरत अनुराग से ग्रस्त है। प्रेम का यह संक्रमण कॉलरा रोग के संक्रमण से बहुत अलग नहीं है।
कहानी का प्लॉट लिनीअर नहीं है बल्कि ख़ूबसूरती से आगे पीछे ऑसिलेट होता है। लेखक का डिस्क्रिप्टिव नरेशन इतने ख़ूबसूरत बिंब बनाता है कि पाठक कई दफ़ा हैरान हो जाता है जब दृश्य उसके सामने उपस्थित हो जाते हैं। नैरेटर के कहे हुए वाक्य जीवन का सत्य उद्घाटित करते हैं।
इंतज़ार कठिन होता है मगर रूमान से भरा होता है। कितनी ही तकलीफ़ों से गुज़र लें प्रिय से मिलने की आकांक्षा ख़त्म नहीं होती। आप प्रेम में हैं और एक दिन पाएँ आपके प्रिय का प्रेम आपके लिए नहीं बचा। कौन सी राह खोजेंगे।कोई राह नहीं। प्रतीक्षा और वह भी जीवन भर के लिए, आसान राह नहीं है। नायक यही राह चुनता है और अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद इसीलिए ज़ेहन से उतरता नहीं है। नैरेटर को आँख भर देखने का मन होता है पर वो अब कहाँ।
( मेरे महबूब तुम आना, इस दफ़ा मेरी मोहब्बत तुम्हें कम नहीं लगेगी।)
शानदार समीक्षात्मक विश्लेषण ……..क्या इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है ?
बहुत ख़ूब, प्रेम के इन गूढ़ रहस्यों को समझने और समझाने के लिए दिव्या जी को बधाई। प्रेम के अन्तर्द्वंदों, शुरूआती उगते हुए मासूम प्रेम से लेकर मन बदलने पर नायक "फ्लोरेंटिनो" को नकारात्मकता की ओर प्रोत्साहित करता नायिका "फ़रमीना" का प्रयोगात्मक प्रेम या नायिका की कुछ नएपन की तलाश या सच्चा मासूमियत भरा प्रेम, जो भी हो, लेकिन नायक का लेखिका की भाषा में "वुमनाइज़र" बन जाना, वाकई में ग़ज़ब का विश्लेषण है, लेखिका ने बहुत समझा है, ये उनको दिलचस्प लगा है। लेकिन क्या नायिका को भी दिलचस्प ही लगा होगा?
लेखिका ने एक सवाल छोड़ा है,
"जो था वह प्रेम था या नहीं! नएपन को जीने की लालसा थी अथवा अनुभव प्राप्त करने की इच्छा ?"
इसका जवाब पढ़ने के बाद ही मिलेगा शायद, अथवा अगर लेखिका के अनुसार मानें तो शायद दिलचस्प ही लगे।
ख़ैर अमृता प्रीतम जी का लिखा कुछ याद हो आया,
"एक जिस्म को रोटी की भूख भी लगती है और दूसरे जिस्म की भी….." अमृता प्रीतम(दो खिड़कियाँ)
लेखिका की "प्रेम विषय" में गहन समझ को सादर बधाई और जानकीपुल को धन्यवाद।
बहुत सुन्दर विश्लेषण । डूब कर लिखा गया आलेख।
प्रेम के बारे में यह किताब अद्भुत है. मैंने इस पर लिखा था. प्रेमी प्रेमिका के प्रति निष्ठावान रहते हुए कई प्रेम संबंधों में लिप्त रहता है. उनका मिलाप वृद्धावस्था में होता है और फिर भी वे आशावान हैं.