
चन्द सज्दों से तिरी ज़ात में शामिल हुआ मैं
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
तब कहीं जाके तिरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं
सर से पा तक मुझे उस वक़्त लगा दिल हुआ मैं
जितनी तालीम मिली उतना ही जाहिल हुआ मैं
लुत्फ़ देने लगीं और दर्द से ग़ाफ़िल हुआ मैं
चोट तो उसको लगी देखिये चोटिल हुआ मैं
धूप हालात हुए फिर मेरे
आके क़दमों पे न यूँ गिर मेरे
मुझमें सोये हैं मुसाफ़िर मेरे
ज़ख्म ग़ायब हैं बज़ाहिर मेरे
धुल गये सारे अनासिर मेरे
ख़्वाब हो जाते हैं ज़ाहिर मेरे
कुफ़्र बकते हुए काफ़िर मेरे
ज़मीं पर आ गिरा उड़ता हुआ मैं
किसी ने छू लिया ज़िंदा हुआ मैं
तुम्हारे सामने गूंगा हुआ मैं
किनारे आ लगा बहता हुआ मैं
किसी के साथ हूँ बिछड़ा हुआ मैं
तुम्हारे ध्यान में डूबा हुआ मैं
तुम्हारी खोज में निकला हुआ मैं
मगर हूँ रूह तक भीगा हुआ मैं
वो उभरा चाँद ये ढलता हुआ मैं
जी चाहता है इश्क़ दुबारा उसी से हो
आग़ाज़े-दास्ताने -सफ़र आप ही से हो
जब उनका सामना मिरी दीवानगी से हो
अच्छा हो ,मेरी जाँच-परख शायरी से हो
मै चाहता हूँ काम ये संजीदगी से हो
लेकिन जब इश्क़ हो तो ‘सिकंदर’ वो जी से हो
हमारी क़ीमतें अब भी वही हैं
सिमट कर उँगलियाँ मुठ्ठी बनी हैं
मिरी साँसें अभी तक चल रही हैं
बदन इनके भी शायद काग़ज़ी हैं
हमारी जान लेने पर तुली हैं
तिरी गली से गुज़रता हूँ जगमगाता हुआ
तिरा ख़याल मुझे रातभर जगाता हुआ
मै उस गली से न गुज़रूँगा ख़ाक उड़ाता हुआ
मैं जान देने के चक्कर में जाँ बचाता हुआ
मैं सुर्ख़रू हुआ चाहत के काम आता हुआ
कोई चराग़ अँधेरे में झिलमिलाता हुआ
मैं हर क़दम पे मुक़द्दर को आज़माता हुआ
सवाल ज़ेहन के आंगन में आता-जाता हुआ
वो रो रहा है मिरी दास्ताँ सुनाता हुआ
उसे बचाने में अक्सर मैं चोट खाता हुआ
7.
जिस्म दरिया का थरथराया है
हमने पानी से सर उठाया है
शाम की सांवली हथेली पर
इक दिया भी तो मुस्कुराया है
अब मैं ज़ख़्मों को फूल कहता हूँ
फ़न ये मुश्किल से हाथ आया है
जिन दिनों आपसे तवक़्क़ो थी
आपने भी मज़ाक़ उड़ाया है
हाले दिल उसको क्या सुनाएँ हम
सब उसी का किया-कराया है
8.
ये कैसी आज़ादी है
सांस गले में अटकी है
पत्ते जलकर राख हुए
सहमी-सहमी आँधी है
ये कैसा सूरज निकला
जिसने आग लगा दी है
चूहों ने ये सोचा था
दुनिया भीगी बिल्ली है
उसके घर के रस्ते में
हमसे दुनिया छूटी है
अपनी करके मानेगी
चाहत ज़िद्दी लड़की है
मिन्नत छोड़ो चीख़ पड़ो
दिल्ली ऊँचा सुनती है
मिट्टी में मिल जायेगी
मिट्टी आख़िर मिट्टी है
9.
मिरी ग़ज़लों में जिसने चांदनी की
उसी ने जिंदगी तारीक भी की
वहाँ भी जिंदगी ने धर दबोचा
वो कोशिश कर चुका है ख़ुदकुशी की
कोई उसकी हिमायत में नहीं है
हिफ़ाज़त कर रहा था जो सभी की
अगर ये ख्व़ाब सच्चा हो तो क्या हो
मिले भी और उससे बात भी की
छुपाया मैंने सबसे राज़ अपना
मिरे अश्कों ने लेकिन मुख़बिरी की
10.
आँखों की दहलीज़ पे आकर बैठ गयी
तेरी सूरत ख़्वाब सजाकर बैठ गयी
कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैंने
फ़ौरन उसपर तितली आकर बैठ गयी
ताना-बाना बुनते-बुनते हम उधड़े
हसरत फिर थककर,ग़श खाकर बैठ गयी
खोज रहा है आज भी वो गूलर का फूल
दुनिया तो अफ़वाह उड़ाकर बैठ गयी
रोने की तरकीब हमारे आई काम
ग़म की मिट्टी पानी पाकर बैठ गयी
वो भी लड़ते-लड़ते जग से हार गया
चाहत भी घर-बार लुटाकर बैठ गयी
बूढ़ी माँ का शायद लौट आया बचपन
गुड़ियों का अम्बार लगाकर बैठ गयी
अबके चरागों ने चौंकाया दुनिया को
आंधी आखिर में झुंझलाकर बैठ गयी
एक से बढ़कर एक थे दांव शराफ़त के
जीत मगर हमसे कतराकर बैठ गयी
तेरे शह्र से होकर आई तेज़ हवा
फिर दिल की बुनियाद हिलाकर बैठ गयी
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बहुत शानदार…उम्दा गज़लें.;बधाई
one word ultimate..umda likhte hai aap
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-09-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा – 2473 में दी जाएगी
धन्यवाद
बधाई सिकन्दर साहब बधाई, सभी बेहतरीन ग़ज़ल, क्या नई अप्रोच लाये हैं, जी कभी शाद तो कभी नाशाद… प्रभात सर का भी शुक्रिया…