गायक, गीतकार बॉब डिलन को साहित्य का नोबेल क्या मिला हर तरफ चर्चाओं का बाजार गर्म है. प्रवीण कुमार झा का एक अवश्य पठनीय टाइप व्यंग्य पढ़िए- मॉडरेटर
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कवि कक्का का अचानक फोन आया और डिसकनेक्ट हो गया। कवि कक्का, वही जिनका साहित्य अकादमी दो नम्मर से रह गया था। मेरे हर क्षेत्र में एक गॉडफादर हैं, साहित्य में कवि कक्का ही हैं। इसी उम्मीद में कि चेला दो कदम भी आगे निकला तो साहित्य अकादमी तो लपेटता ही आऊँगा। खैर, मेरी छोड़िए, कवि कक्का को फोन लगाया।
“हेलो कक्का!”
“अरे हेलो-वेलो छोड़ो! भाई, ये क्या चल रहा है नॉर्बे में?”
“क्या हुआ कक्का? कुछ बम-वम भी तो नहीं फट गया?”
“बम फटा है फटने जैसा? अरे, ई लोग नचनिया-बजनिया को नोबेल दे दिया भाई।”
“नॉर्वे में नहीं, स्वीडन में। और वो महान गीतकार हैं।”
“ये तुम मुझे सीखाओगे, कौन क्या है? उनको बोलो, कैंसिल करें ये सब।”
“मैं तो छोटा-मोटा डॉक्टर हूँ। मेरी कौन सुनेगा कक्का?”
“ये मैं नहीं जानता। कुछ करो। ये साहित्य पर तमाचा है। बॉब ढिल्लन! हह!”
“आपने सुना भी है?”
“तुम्हें क्या लगता है, मैं बचपन से दलान पर भाँग पीस रहा हूँ। मेरे ही उमर का है ढिल्लन। उसको क्या, उसके बाप गुथरी को भी जानता हूँ।”
“उनके पिता तो कोई और जिम्मरमैन थे। आप वूडी गुथ्री की बात कर रहे हैं?”
“तुमलोग तो न साहित्य समझते हो न साहित्यकार की उक्ति। पिता अलग है, बाप अलग है साहित्य में।”
“मतलब आप उन्हें साहित्यकार मानते हैं।”
“हाँ, लेकिन बौराया हुआ। साहित्यकार एक व्यक्तित्व होता है। उसमें सौम्यता होती है, एक ठहराव, एक गंभीरता। ये होंठ को टेढ़ा करके सिगरेट पीते बड़बड़ाते जीव साहित्यकार नहीं होते।” वाक्य के अंत तक प्रतीत हुआ कवि कक्का का मुँह पान से फूल चुका है और फोन से उनकी पीक निकलने वाली है। मैं थोड़ा झुका और कवि कक्का ने दूर देश में कहीं पीक फेंकी।
“कक्का! आप भी तो पान खाते हो। वो सिगरेट। वहाँ पान होती, तो शायद वो वही खाते।”
“देखो, बात पान खाने की नहीं है। बात ये है कि हम तानपुरा उठा कर गाने नहीं लगते।”
“कविता किसी भी तरह तो कही जाएगी। उन्होनें गा कर कही।”
“चलो गाया, बजाया। ग्रैमी जीते, ऑस्कर जीते, ये नॉबेल समझते हो क्या होता है?”
“ईलियट भी गीत लिखते थे, टॉनी मॉरीसन ने लिखे हैं, नाटक वाले तो कई हैं। सब नॉबेल जीत चुके हैं।”
“ईडियट! तुम ईलियट के साथ इस ढिल्लन को रख रहे हो? तुम भी बौरा गए हो। ये तो गाने में भी जीरो है।”
“गायकी के सरताज भी उनको गुरू मानते हैं। पॉल मैकार्ट्नी, माइक जैग्गर सब लोहा मानते हैं।”
“तुम कुमार शानू और दूसरा कौन नकिया के गाता है, उसी का फैन है।”
“हिमेश रेशमिया?”
“हाँ! वैसा ही नकियाता था ये ढिल्लन। हमलोग तो खूब मजाक उड़ाते थे।”
“मैनें तो चलो ईलियट का नाम लिया। आपने तो बॉब डायलन को हिमेश रेशमिया बना दिया। हद है!”
“तुम को समझाने के लिए लिया है। गाना उसका सारा सुने ७० ईसवी तक। गाता ठीक-ठाक है, लेकिन फिर भी, नॉबेल क्यों उठा के दे दिया?”
“कक्का! उन्होनें प्रयोग किए, बदलाव लाया। वैज्ञानिक सोच वाले थे।”
“अच्छा? फिर तो विज्ञान का नॉबेल भी दे ही दो। एकदम वैज्ञानिक गाना है ‘ब्लोविंग इन द विंड!”
“ये तो आजादी का गीत है कक्का। ‘सिविल लिबर्टी‘ का ट्रेडमार्क गीत है ये।”
“तुमलोग जैसा चमनलाल रहा तो शांति का भी नॉबेल देकर मानेगा अब। सिविल लिबर्टी! भक्क!” कक्का ने फिर जोरदार पीक मारी और मैं ‘डक‘ भी न कर सका। सीधा कानों में ही थूका।
“कक्का! ऐसा है, आप हिंदी साहित्यकार यूँ ही सिकुड़े रहो। एक दिन अख्तर साहब साहित्य अकादमी ले जायेंगें।”
“मजाक है क्या? इस देश में समझ बची है। हमने तो कई उपन्यासकारों को साहित्यकार नहीं माना। ये अख्तर और गुलजार किस खेत की मूली हैं?”
“काशी बाबू कौन सी गूढ़ हिंदी लिखते हैं? गाली-गलौज लिखते हैं।”
“जहाँ कथा में जिस शब्द की उपयुक्तता होगी, लिखी जाएगी। देखा जाएगा, परिवेश क्या है? अस्सी घाट पर अलग भाषा में शास्त्रार्थ होता है।”
“वही तो। अमरीका का भी अलग परिवेश है। अलग गीत-शैली है। शब्द कैसे घिसे-पीटे और बेमतलबी गूढ़ होंगें?”
“अंग्रेजी तो ठीक लिखोगे, या उसे भी ‘ऐन्ट डू नथिंग‘ कर दोगे।”
“अश्वेतों की शैली है, बॉब डायलन उनके मुद्दे पर होंगें।”
वाह वाह भाई… मजा आ गया पढ़कर…
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