अरविंद दास ने जेएनयू से मीडिया पर पीएचडी कर रखी है। मेरे जानते हिन्दी में मीडिया पर जो गिनी चुनी शोधपूर्ण पुस्तकें हैं उनमें एक अरविंद दास की किताब भी है- हिंदी में समाचार। एक मीडिया संस्थान में काम भी करते हैं। बहरहाल, मीडिया और विज्ञापन को लेकर उनकी या टिप्पणी गौरतलब लगी। मौका मिले तो पढ़िएगा, सोचिएगा- मॉडरेटर
================================
हिंदी में एकांगी मीडिया मंथन
राज्यसभा टीवी पर ‘मीडिया मंथन’ नाम से एक रोचक कार्यक्रम आता है, जिसके एंकर हैं हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश. शनिवार (22 Oct) को प्रसारित हुए इस कार्यक्रम का विषय था ‘मीडिया में विज्ञापन या विज्ञापन में मीडिया’. विषय काफी मौजू और समकालीन पत्रकारिता की चिंता के केंद्र में है.
पर कार्यक्रम देख कर काफ़ी निराशा हुई. उम्मीद थी कि मंथन से कुछ निकलेगा, लेकिन निकला वही ढाक के तीन पात! हिंदी में जो इन दिनों मीडिया विमर्श है वह मंडी, दलाल स्ट्रीट, दुष्चक्र जैसे जुमलों के इधर-उधर ही घूमता रहता है. इसी तरह उर्मिलेश और जो कार्यक्रम में मौजूद गेस्ट थे इसी विमर्श के इर्द-गिर्द अपने विचारों को परोसते रहे, जो कि अंग्रेजी विमर्श में कब का बासी हो चला है. उर्मिलेश भी अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘ बाज़ार के दुष्चक्र से मीडिया की मुक्ति नहीं’. ‘वह अभिशप्त है’. वगैरह, वगैरह.
विमर्श की चिंता के केंद्र में यह था कि ‘विज्ञापन और ख़बर के बीच अब कोई फर्क नहीं बचा है’. ‘पत्रकारिता के सामाजिक सरोकर बिलकुल ख़त्म हो गए हैं.’ पेड न्यूज, एडवरटोरियल इन दिनों ख़बरों पर हावी है, आदि.
सवाल बिलकुल जायज है और यह स्थापित तथ्य है कि पेड न्यूज़, एडवरटोरियल मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न बन कर खड़े हैं. और इस पर कई वरिष्ठ पत्रकार, शोधार्थी पिछले दशक से लिखते रहे हैं, बहस-मुबाहिसा करते रहे हैं
पर कार्यक्रम के दौरान इन सारे सवालों, बहस के बीच कोई आंकड़ा नहीं था (पहले कितना रेशियो विज्ञापन और खबर का था जब आठ-दस पेज का अखबार होता था, और आज 20-25 पेज के अखबार में क्या रेशियो है). कोई स्रोत नहीं थे.
1953 में ही संपादक अंबिका प्रसाद वाजपेयी विज्ञापन को समाचार पत्र की जान कह रहे थे. और हिंदी समाचार पत्रों के विज्ञापन के अभाव में निस्तेज होने का रोना रो रहे थे. 1954 में पहले प्रेस कमीशन ने अखबारों में बड़ी पूंजी के प्रवेश की बात स्वीकारी थी. पर इसका लाभ अंग्रेजी के अखबारों को मिलता रहा.
उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद ही भारतीय भाषाई अखबार विज्ञापन उद्योग से जुड़ कर लोगों तक ठीक से पहुंच सके. रौबिन जैफ्री ने अपने लेखों में विस्तार से इसे रेखांकित किया है, सेवंती निनान इसे हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार (reinvention of public sphere) कहती हैं. जाहिर है इस पुनर्विष्कार में विज्ञापन, पूंजीवादी उद्योग के उपक्रम तकनीक की प्रमुख भूमिका थी. मैंने भी अपनी किताब ‘हिंदी में समाचार’ में विस्तार से रेखांकित किया है कि किस तरह भूमंडलीकरण के बाद हिंदी के अखबार जो अंग्रेजी के पिछलग्गू थे, एक निजी पहचान लेकर सामने आए हैं.
पर अपनी बहस में उर्मिलेश ना तो इस भाषाई मीडिया ‘क्रांति’ की चर्चा करते है, ना ही अखबारों, चैनलों के प्रचार-प्रसार से आए लोकतंत्र के इस स्थानीय, देसी रूप को देखते-परखते हैं.
साथ ही विज्ञापन की इस बहुतायात मात्रा से परेशानी किसे है? पाठकों-दर्शकों को कि मीडिया के विमर्शकारों को? क्या कोई सर्वे है कि असल में पाठक-दर्शक विज्ञापन चाहते हैं या नहीं. यदि हां, तो कितना विज्ञापन उपभोक्ता चाहते हैं? हम एक कंज्यूमर सोसाइटी (उपभोक्ता समाज) में रह रहे हैं, ऐसे में विज्ञापन की भूमिका को एक नए सिरे से देखने की जरूरत है, महज ‘शोर‘ कह कर हम इसे खारिज़ नहीं कर सकते.
जब पच्चीस रुपए का अख़बार पाँच रुपए में मिल रहा हो, ज्यादातार मीडिया हाउस का कारोबार घाटे में हो, ऐसे में विज्ञापन पर निर्भरता स्वाभाविक है. पर हिंदी में मीडिया मंथन इसे एक ‘इच्छाशक्ति से बदलने’, ‘organic approach (?)’ को बढ़ावा देने से आगे किसी ठोस निषकर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा. यह विमर्श मीडिया को पूंजीवाद की महत्वपूर्ण इकाई मानने से ही परहेज करता प्रतीत होता है. इसके विश्लेषण के औजार पत्रकारिता के वही गाँधीवादी, शुद्धतावादी कैनन है (गाँधी विज्ञापन के प्रति काफी सशंकित थे. वे अपने पत्रों में विज्ञापन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते थे, 99 प्रतिशत विज्ञापन को पूरी तरह से बकवास मानते थे ) जो आज़ादी के साथ ही भोथरे हो गए थे.
शुक्रिया,
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति मन्मथनाथ गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर … अभिनन्दन।।
अपने को टिप्पणी करने से नहीं रोक पा रहा हूं क्योंकि अरविंदजी आपने मेरे मन की बात कह दी। हिंदी में लिखना-पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है पर हिंदी मीडिया से वितृष्णा होती रही है (बावजूद इसके कि हिंदी अखबारों को पढ़कर और हिंदी माध्यम से ही पढ़ कर आगे हम बढ़ पाये हैं)। इसका एक बड़ा कारण है स्तरीयता और गंभीरता का अभाव। हिंदी की दुनिया आज भी नेहरूवियन सोशिएलिज्म के यूटोपियन दुनिया में ही घूम रही है। पिछले कुछ समय से भारत विभाजन को समझने की कोशिश कर रहा हूं और कई पुराने दस्तावेज पढ़े हैं और पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उस समय की परिस्थितियों को समझ सकूं। इसी क्रम में मैंने पाया कि जब आजादी के लिए संघर्ष चल रहा था तब भी अखबार विज्ञापन मुक्त नहीं थे। कहीं छोटे – मोटे विज्ञापन छपते थे तो किसी पे स्थानीय व्यापारियों (या केवल व्यापारी) का वरदहस्त था। लोकतंत्र का चौथा खंभा पत्रकारिता कभी थी ही नहीं और अखबार छापना तब भी घाटे का सौदा था और आज भी है। तब भी अधिकांश अखबार कुछ चुनिंदा लोगों के हित साधते थे और आज भी साधते हैं (भले ही अखबारों के नाम और उनके जरिये अपना प्रोपेगेंडा करने वाले लोगों के नाम बदलते रहे हों)। आजादी के बाद अंग्रेजी मीडिया ने अपना बुर्का धीरे-धीरे उतार फेंका पर हिंदी मीडिया आज भी अपने द्वारा रचित एक काल्पनिक दुनिया में ही जी रही है और उसकी इस दुनिया के स्थापित मानदंड हैं जिनसे आगे वो जानबूझकर आगे नहीं जाना चाहते क्योंकि सबकुछ मनमाफिक है वाली उनकी खुशफहमी बनी रहती है। आंकड़े, रिसर्च जैसे शब्द हिंदी पत्रकारिता के लिये बृहस्पति ग्रह से आये हुए शब्द हैं जो (उनके अनुसार) अव्यवहारिक हैं। नतीजा ये है कि हिंदी अखबारों और चैनलों की खबरों में गंभीरता नहीं होती। लोग कहते हैं कि NDTV India बड़ा ही गंभीर चैनल है और बहुत तथ्यपरक खबरें दिखाता है पर सच्चाई ये है कि वो अंधों में काना राजा है। आप चाहें तो क्लासीफिकेशन कर के देख लीजिये कि कितनी खबरें राजनीतिक होती हैं वहां, कितनी क्रिकेट और सिनेमा की, कितनी अर्थ-वित्त जगत की और कितनी रोटी-दाल की। सब आपके सामने आ जाएगा। रवीश ने जब अपने करियर का ट्रैक बदला और आम जनता तक पहुंचे तो वाया रवीश की रिपोर्ट एकाएक आम जनता के हीरो हो गये वरना उससे पहले तक वो भी लालू की बेटी की शादी की लाइव रिपोर्टिंग अशोक होटल, दिल्ली से करते पाये जाते थे। पर इसमें अखबार या चैनल का तंत्र या मैनेजमेंट दोषी नहीं है, वो तो जानता है कि वो धंधा (सॉरी, बिजनेस) कर रहा है नहीं तो नवभारत टाइम्स जैसे गंभीर अखबार की यूं दुर्दशा नहीं होती और वो टैब्लॉयड नहीं बन जाता या रवीश की रिपोर्ट यूं बंद नहीं होती। दोषी हैं वो पत्रकार जो मैनेजमेंट के दिखाये सपने में बहते चले जाते हैं और सोवियत रूस के लोगों की तरह फिर उसी दुनिया में यकीन करने लगते हैं और धीरे-धीरे सवाल करना बंद कर देते हैं और फिर वही उनकी दुनिया हो जाती है। फिर आप वास्तविक धरातल पर नहीं होते हैं और इसलिये आपका लेखन, आपकी रिपोर्ट, आपके प्रश्न, आपका प्रेजेंटेशन सब कुछ एक छिछले स्तर का होता है। इस साल की शायद सबसे बड़ी घटना है एटीएम /डेबिट कार्ड का डेटालीक जो शायद लाखों लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित करता हे। मैं ये नहीं कहता कि इस पर पहली खबर टाइम्स ऑफ इंडिया या इकनॉमिक टाइम्स ने छापी। वो उनका क्रेडिट है बाजारवाद के सबसे बड़े संवाहक होने के बावजूद (भारत देश के परिप्रेक्ष्य में कह रहा हूं)। पर ये बताइए कि पहली खबर आने के बाद भी किस हिंदी अखबार /चैनल ने उसकी इतनी गंभीरता से पड़ताल की (कि हर कोई उनकी ओर ही दौड़ पड़े)? किसी ने नहीं। जो भी छपा या दिखा वो अंग्रेज़ी अखबारों /चैनलों की खबरों का कोलेशन था। किसी के भी पास अपना स्रोत /डेटा या इस खबर का विस्तार नहीं था और एक ही दिन में खबर उतर भी गई (जबकि अंग्रेजी मीडिया में अभी भी इसपर खूब लिख-पढ़ा जा रहा है और उनके रिपोर्टर्स अभी भी लगे हुए हैं। इसलिये ये सवाल केवल उर्मिलेशजी या उनके कार्यक्रम का नहीं है। ये पूरे हिंदी मीडिया और हिंदी जगत का संकट है जिसकी ओर हम हिंदीवाले देखना भी नहीं चाहते क्योंकि हम कूपमंडूक हैं और हमें हमारी दुनिया (जो हमारी नजरों में स्वर्णिम है) में ही जीना अच्छा लगता है। दुनिया जाये तेल लेने, ऐश तू कर टाइप्स। तो बने रहिये कुंए का मेढ़क। दुनिया का तो कुछ बिगडे़गा नहीं, आपके (हिंदीवालों) साथ चाहे जो हो