
नॉर्वे प्रवासी डॉक्टर-लेखक प्रवीण कुमार झा के व्यंग्य हम पढ़ते रहे हैं लेकिन यह व्यंग्य नहीं है. 25 अक्टूबर को निर्मल वर्मा की पुण्यतिथि है, उसी अवसर पर उन्होंने एक निर्मल-कथा लिखी है. पढ़ा जाए- मॉडरेटर
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हिंदी कथाकारों में जो पहाड़ों में जीए, यूरोप वगैरा घूमे, उनमें और जो ‘काउ-बेल्ट‘ में पैदा हुए-मरे, उनमें काफी फर्क है। कहाँ चीड़-देवदार के बदलते पत्तों के रंग, इठलती पतली धारायें, और शीतल हवा के बीच कथाएँ बुनना और कहाँ अधोवस्त्र भीषण गर्मी में कलम चलाना! एक में ठहराव है, ‘प्रोग्रेसन‘ है तो दूजे में छटपटाहट है, ‘ऐग्रेसन‘ है। नायक-नायिकाओं में भी फर्क है। निर्मल जी की लतिका हो या हिमांशु जोशी की वसुधा, बिहार-यूपी में फिट नहीं बैठती। यहाँ तक की रेणु को हीराबाई भी बाहर से ‘इम्पोर्ट‘ करना पड़ा। दोनों निर्मल जी और हिमांशु जी में ४-५ साल आयु का फर्क होगा, एक शिमला तो दूजे गढ़वाल के थे शायद। जो पहाड़ों से जरा भी नीचे आए, जैसे पंजाब वाले, भीष्म साहनी हों या मोहन राकेश हों या मंटो हों, वो फिर विभाजन की गर्मी में गरम हो गए। शीतलता जाती रही। सब निर्मलता तो बस निर्मल जी में रह गई।
खैर, मुद्दे पर आता हूँ, पहले तो एक नायिका चुनता हूँ और नायक खुद बन जाता हूँ। मेरी नायिका मुझे शिमला से दिल्ली लौटते वक्त ‘कालका मेल‘ में मिली। मैं उन दिनों अमरीका से डॉक्टरी में रिसर्च कर लौटा था और ताजा-ताजा नारी जाति से विषाद हुआ था। किसी सिनेमा का डॉयलॉग है न, “पुरूष तो मरने के बाद भूत बनता है, औरतें जन्मजात चुड़ैल होती हैं।” यह डॉयलॉग मैनें ही कहीं कही थी, किसी ने चुरा ली। सीट कनफर्म नहीं थी, तो एक चुड़ैल के साथ ‘RAC’ टिकट मिली। आँखों पर चश्मा, पहाड़ी गोल चेहरा, सधी नाक, कुछ ऊनी से हल्के बाल जो फूँक मारो तो बिखर जाएँ। नाम तो खैर ‘चार्ट‘ पर देख ही लिया था ‘लतिका शर्मा २३/F’| भला इस उमर की जवान लड़कियाँ ट्रेन से अकेले सफर क्यूँ करती हैं? साथ में कोई भाई वगैरा क्यूँ नहीं आते? और गर टिकट कनफर्म न हो तो ट्रेन पर किसी पराये पुरूष के साथ सीट कैसे शेयर करती हैं? चलिए, मैं तो डॉक्टर हूँ, सभ्य सुशील सुभाषी। गर कोई लफंगा हो तो? मैनें ठान ली थी, मैं अपनी जगह नहीं छोड़ूँगा। ये गढ़वाली-हिमाचली लड़कियाँ बड़ी शातिर होती हैं। मुस्कुराती हैं तो गालों पर शर्मिला टैगोर की तरह गड्ढे पड़ते हैं और आप चाहे राजेश खन्ना ही क्यूँ न हो धप्प से उन गड्ढों में गिर जाते हैं। मैं नही गिरूँगा, आँख मिलाऊँगा ही नहीं चुड़ैल से।
“आप अपना सामान नीचे रख लो। मेरा बस ये बैग है, मैं अपने पास ही रखूँगीं।” उसने अपना मखमली बैग दिखाकर कहा जो उसके एक कंधे और गले से लटकता उसके गोद में पड़ा था। उस पर एक छोटा गुलाबी भालू भी चिपका था। ‘टेडी बीयर‘। सब टोटके हैं चुड़ैलों के। मैं नहीं देखता भालू-वालू।
“हाँ! ठीक है। शुक्रिया।” मैनें अकड़ कर कहा।
वो मुस्कुराई, गड्ढे पड़े और मैं बस फिसलने ही वाला था कि टी.टी. साहब आ गए।
“आपको सीट एक्सचेंज करनी है मैडम? अगली बॉगी में एक लेडीज अकेली हैं।”
“नहीं। मैं ठीक हूँ। थैक यू।”
मतलब चुड़ैल जाएगी नहीं। जान लेकर रहेगी। खैर, मैं भी अब यूँ झाँसे में नहीं आने वाला। अमरीका में एक से एक गोरियाँ बाल-बाँका न कर सकी, ये लतिका-वतिका क्या चीज हैं।
“आप भी दिल्ली जा रहे हैं?” उसने टोका।
“हाँ। और कहाँ जाऊँगा?”
“क्यूँ? ट्रेन तो हावड़ा तक जाती है।”
“मैं बाबू मोसाय दिखता हूँ क्या?”
“नहीं-नहीं। दिखते तो आप ‘रेट बट्लर‘ हैं।”
“बट्लर? अजी! डॉक्टर हूँ मैं।”
“वाह! क्या बात है? मैं तो ‘गॉन विद द विंड‘ के रेट बट्लर की बात कर रही थी।”
“ओह! मैं ज्यादा अंग्रेजी साहित्य पढ़ता नहीं।”
“आप तो बस मेडिकल की मोटी किताबें पढ़ते होंगें?”
“ऐसा नहीं है। हिंदी काफी पढ़ता हूँ।”
“अच्छा? तो बताइए, मैं किस पात्र से मिलती हूँ?”
“एक पल में कैसे कह दूँ? हिंदी कथाओं की नारी बस सौंदर्य से नहीं आँकी जाती।”
“तो सवाल पूछिए। और फिर कहिए।”
“क्या आपने किसी फौजी से इश्क किया है?” ये क्यूँ हुआ, मुझे नहीं पता। बस सहसा मुँह से निकल गया। जैसे कोई शक्ति मुझसे ये सवाल पूछने को कह रही हो। वो भी अवाक् रह गई कि ये क्या बेहूदा सवाल है।
मैनें बात सँभाली, “मुझे गलत न समझें। ये बस यूँ ही निकल आया।”
“कोई बात नहीं डॉक्टर साब। पर ये सवाल कोई यूँ ही क्यों पूछेगा?”
“पता नहीं। बस निकल आया। मुझे नहीं पता।”
“आप सचमुच रेट बट्लर हैं। मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहूँगी। यह खेल ही बंद करते हैं।”
कुछ देर में हम अंबाला से आगे निकल आए। लतिका बस एक अनंत की ओर देख रही थी। आँखें कुछ नम सी थी। मुझे विश्वास हो गया, लतिका ने कभी फौजी से इश्क जरूर किया था। शिमला की सभी लतिकाएँ करती हैं। लतिका क्या, जूली भी।
लतिका टाँगे सिकोड़ कर बैठी थी, और मैं भी। बीच की आधी सीट खाली थी, जिसमें एक छोटे बच्चे की बैठने की जगह तो जरूर थी। ये बस उपमा है। मेरे और लतिका के संबंध सहयात्री से बढ़कर कुछ भी नहीं। मैं दिल्ली-बैंगलूर-नॉर्वे आ गया। लतिका पुरानी दिल्ली स्टेशन से उतर कर पता नहीं कहाँ गई? ‘गॉन विद द विंड‘ हो गयी।
आज नॉर्वे के पहाड़ों के बीच बैठा हूँ। जाखू याद आ रहा है, गलैन, चैटविक फॉल के मन में चित्र बन रहे हैं। निर्मल वर्मा याद आ रहे हैं। वो ‘टेडी बीयर’ वाली स्वच्छंद लतिका याद आ रही है। डॉक्टर मुखर्जी में कभी खुद को याद कर रहा हूँ। ‘परिंदे’ याद आ रहा है।
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बढ़िया, बधाई…