शाहरुख़ खान-आलिया भट्ट अभिनीत गौरी शिंदे निर्देशित फिल्म ‘डियर ज़िन्दगी’ लोगों को प्रभावित कर रही है. उनको अपने जीवन के करीब महसूस हो रही है. आज सैयद एस. तौहीद ने इस फिल्म पर लिखा है- मॉडरेटर
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जिंदगियां बोलती हैं । लेकिन कभी कभी बहुत कुछ जाहिर नहीं हो पाता । यह आदत भी ठीक नहीं थी कि किसी का चेहरा याद रखना होता था,तो कभी पर्स में तो कभी किताब में चेहरा छोड़ दिया करता था। शायद बहुत से लोग ऐसा ही करते हों। बहुत ऐसा करके भूल भी जाते होंगे जबकि जिंदगी बहुत आगे निकल चुकी थी ।अक्सर बेशकीमती लम्हा हमारे सामने होता है,लेकिन उसे पहचान नहीं पाते ।बहुत समय गुजर गया होता है तब एहसास होता है कि..अरे वो था मेरा लम्हा।विडम्बना नहीं तो क्या कि जिंदगी की रेस में जिंदगी ही हार जाए । जिसकी लिए सारी तकलीफें उठा रहें वो जिंदगी ही बिसर जाए ।
जिंदगी अभी और जीनी जानी थी …एक अधूरा रिश्ता मोड पर खड़ा रहा जहां छोड आए थे? शायद, लेकिन अपनी भी एक अधूरी कहानी छोड आए थे । आज जब लौट रहे हो तो उसके लिए अजनबी सा महसूस हो रहा है। जिंदगी का एक कोना इंतजार में था … उसे फिर से शामिल करना इतना आसां भी नहीं होता । उस चेहरे को अनफोल्ड करें …ताज्जुब होगा तस्वीरों पर..कितने सब्र से बैठी रहती हैं ! लेकिन पीछे का किरदार जिंदगी में बहुत आगे बढ़ गया होगा ।जो बदल जाए आखिर वही तो जिंदगी है । ठहरी हुई तो शायद तसवीरें भी नहीं होती ।
आदमी का आदमी से एक खूबसुरत रिश्ता होता है। जनम-जनम के साथ की तरह। आप यह भी देखें आदमी का खुद से भी एक नाता तो है।लेकिन दुनिया को जानने का दावा करने वाले दरअसल खुद को भी नहीं जान पाते । दुनिया का दम भरने वाले अपना घर ठीक से बसा नहीं पाते । इंग्लीश विंग्लश फेम गौरी शिंदे की ‘डियर जिंदगी’इसी खुद को जानने का महत्व बता गई । क्या कभी आपने खुद को ख़त लिखा ? चिट्ठी पत्री लिखने की परम्परा ख़त्म सी नज़र आती है ।ईमेल के ज़माने में काग़ज़ पर ख़त लिखना ख़त्म सा हो गया है । ख़त वन टू वन सम्वाद का सशक्त ज़रिया होते हैं । डियर जिंदगी हम सबको कल में खींच ले गई,हम जब प्यारे प्यारे ख़त लिखा करते थे ।
मां से अलग रहने को मजबूर मासूम कियारा उसे बहुत मिस करती थी । क्या क्या रंग भरे ख़त लिख कर पोस्टबॉक्स में डालने जाती थी । कहीं न कहीं उसे भरोसा था कि इन खतों का जवाब ज़रूर आएगा । बचपन की इस कशमकश को देखकर अस्सी दशक की प्यारी फिल्म ‘एक चिट्ठी प्यार भरी ‘lसहज ही मन में उतर गई ।
खतों का जवाब तो नहीं आया लेकिन मां ज़रूर आई लेकिन नए मेहमान के साथ । क्यारा को एक छोटा भाई मिला था,लेकिन खुश होने के बजाए पहले से भी ज्यादा अकेली महसूस करने लगी थी । बचपन में खुद का प्यार दूसरे में बंटने का बड़ा ग़म पलने लगता है । नन्ही बच्ची उसी दुख से गुजर रही थी । उसे अपनी मुहब्बत ( प्यार भरी चिट्ठियां ) का रिटर्न नहीँ मिला ।इसलिए बड़ी होने पर प्यार के मामले में पड़ने से पहले उससे दूर हो जाना अच्छा लगा ।वो प्यार की भाषा को समझकर भी नहीं समझना चाहती थी ।रघु ने जब उसे प्रपोज़ किया तो कबूल न कर सकीं ।क्योंकि वो प्यार को लेकर पूरा श्योर नहीं थी ।जब तक श्योर होती रघु दूर चला गया था ।रघु रिश्ते को संभालता रहा लेकिन वो कमिट ही नहीं होना चाह रही थी ।
वो परेशां थी लेकिन अंदर के डर को ख़त्म नहीं कर पा रही थी ।जिंदगी को खुल कर हेलो नहीं कह सकी थी । भीतर जमी परतों को समझ कर हटाने का रास्ता मनोचिकित्सक जहांगीर खां (शाहरुख खान) के पास था । जहांगीर जिंदगी को हल्के फुल्के अंदाज़ में लेने वाला शख्स था । जिंदगी के प्रति स्वछंद किंतु संतुलित नज़रिए वाली शख्सियत ।इस किस्म के संतुलित मनोचिकित्सक बड़ी किस्मत वालों को मिलेंगे ।इतना स्पेयर टाइम दिमाग़ के डाक्टर के पास अक्सर होता नहीं कि वो अपने मरीज़ को दस मिनट भी फुर्सत से देखें ।मरीजों की एक लम्बी कतार होती है ।अलग अलग किस्म की उलझनों से संघर्ष करती कहानियों को ठीक से याद भी नहीं रख पाता डाक्टर । दवा बीमारी पर नहीं अक्सर सिम्प्टम पर चलाते हैं यह चिकित्सक । डिप्रेशन अथवा पागलपन से जूझ रहे मरीज़ को ख़ास वक्त देने की ज़रूरत होती है ।डाक्टर दे नहीं पाते ।नतीजा सालों साल ईलाज।लम्बी बीमारी ।मनोचिकित्सक जहांगीर खां किस्म का ही होना चाहिए ।
क्यारा (आलिया) के ज़रिए ज़िदगी की उलझनों को समझने एवम उनका समाधान तलाशना ‘डियर जिंदगी’ का सार है । आलिया भट्ट ने सफ़ल किंतु स्वयं से उलझे चरित्र को बखूबी जीया । फिल्म किरदार की सामाजिक यात्रा से अधिक पर्सनल यात्रा को महत्व देती नज़र आई है।मन की परतों को खोलने वाली यात्रा ।शांति शुकून की तरफ़ जिरह ।ज़िदगी को सकारात्मक नज़रिए से अपनाने का संदेश ।उलझन से समाधान तक जाने के लिए फिल्म में कहानी पर ज्यादा जोर न देकर सम्वाद पर दिया गया ।किरदारों का वन टू वन सम्वाद । कियारा का फ्रेंड सर्कल बहुत फ्रेंडली टाइप का था,एकदम कुशल क्षेम बातचीत हंसी खुशी ग़म साथ गुजारने वाला पियर ग्रूप ।यही सहजता उसमें रघु,रुमी की शक्ल में मुहब्बत के लिए पनप नहीं पाती थी,क्योंकि एक तल्ख अतीत सामने आ जाता था । बीते कल के आज एवम आने वाले कल से आंख मोड़ लेना दरअसल खुद से कहीं न कहीं हार जाना होता है।इस एहसास के लिए कभी कभी हमें हेल्पिंग हैंड की ज़रूरत भी पड़ती है ।वो किसी भी रिश्ते की शक्ल में हो सकता है । रिश्तों का संघर्ष समझने से पहले हमें खुद को कान लगाकर सुनना होगा । यह काम हरेक आदमी को खुद पर करना होगा ।हम अपने जीवन के सबसे बड़े शिक्षक बन सकते हैं ।जिंदगी को हियर करना होगा,उसे डियर करना होगा ।लव यू जिंदगी..डियर जिंदगी।
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Posted 27th November 2016 by prabhat Ranjan
Labels: dear zindagi saiyad s. tauheed डियर जिंदगी सैयद एस. तौहीद
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