अलका सरावगी मेरी सबसे प्रिय लेखिकाओं में हैं. उनका हर उपन्यास जीवन को, समाज को समझने की एक नई खिड़की खोलता है. हर बात वही चिर परिचित किस्सागोई, वही कोलकाता लेकिन लेकिन एक नई छवि. समकालीन लेखकों में ऐसा किस्सागो दूसरा नहीं. फिलहाल उनके नए उपन्यास का अंश. अंश से ही लग रहा है कि इस बार सम्पूर्ण अपनी भाषा, अपनी शैली, अपने कहन में बहुत अलग है- मॉडरेटर
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एक सच्ची-झूठी गाथा – 2 पार्ट
1
गाथा ने वापस लौटने का टिकट खरीद लिया है। पूरे सात घंटे के इंतजार के बाद। छोटे से एयरपोर्ट पर सब उसे जैसे जान गए हैं। टिकट काउंटर पर बैठे आदमी को भी शायद उसके लंबे इतंजार की खबर है, इसीलिए वह उसे टिकट देते समय कुछ गौर से देखता है। गाथा ने कलकत्ता सूचना दे दी है, अपने लौटने की। प्रोग्राम कैंसिल हो गया है, किसी की मृत्यु होने के कारण।
गाथा को इस तरह का झूठ बोलते हुए एक क्षण के लिए बुरी तरह डर लगता है। कौन जाने सचमुच प्रमित सान्याल इस दुनिया में ही न हो। उसका दिल एक अज्ञात दुख से भर जाता है। यह सिर्फ वही जान सकती है कि किसी अनजान अनदेखे व्यक्ति के लिए वह इतने गहरे समुद्र में कैसे उतर सकती है। किसी को बता नहीं सकती। कोई कैसे समझेगा? प्रमित ने अंतिम कविता अंगरेजी के कवि येट्स की उसे पढ़ने के लिए भेजी थी –
“जब तुम बूढ़ी हो जाओगी
नींद जब-तब तुम्हें ले जाएगी दूर
तब तुम इस किताब को निकाल
धीरे-धीरे पढ़ना
और सपने देखना अपनी आँखों के
जब उनमें कैसी नरमी और गहरी छायाएं थीं
कितने लोगों ने तब उनमें अपने को खोजा था
और तुम्हारे सौंदर्य से सच्चा-झूठा प्रेम किया था :
पर एक था जिसने तुम्हारी
तीर्थ करती आत्मा से,
तुम्हारे बदलते चेहरे के दुखों से,
सिर्फ सच्चा प्रेम किया था ।”
उसके बाद प्रमित ने जोड़ा था –
“चलो हम कुछ साँसें साथ ले लें माँ
क्या पता फिर कभी वक्त न हो।”
2
गाथा अपनी आँखों में चली आई हलकी सी पानी की परत को हटाने के लिए आँखें झपकती है। उसकी आँखों को इसकी आदत नहीं है। बचपन में पिता ने कहा था कि उन्हें औरतों के रोने से बहुत चिढ़ है। तभी से आँखों को न पनियाने की आदत पड़ गई। अचानक देखती है कि मोबाइल पर दस-बारह ई-मेल एक साथ चली आई हैं।इसका मतलब है कि एयरपोर्ट पर इंटरनेट कनेक्शन सही नहीं था। अब ठीक होने पर ई-मेल आ रही है। देखने के लिए खोलते समय तुरंत उसे आभास हो जाता है कि ई-मेल प्रमित का ही होगा ।
“आय एम वैरी सॉरी गाथा ! मैं तुम्हें एयरपोर्ट पर लेने नहीं आ सकता। तुम्हें मुझसे बिना मिले ही कलकत्ता लौट जाना होगा। मुझे पता है तुम बहुत नाराज होगी। पर मैं तुम्हें नाराज करने के डर से अपने और तुम्हारे जीवन को खतरे में नहीं डाल सकता।”
गाथा का दिल एकदम बैठ जाता है । एक क्षण में उसका दिमाग न जाने कितनी बातें सोच लेता है, समझ लेता है और खतरे की घंटियों को सुन लेता है। ओ माइ गॉड! ऐसा कैसे हो सकता है? किसी को पहचानने में इतनी भूल वह कैसे कर सकती है? वह बुरी तरह धड़कते हुए दिल और काँपती अंगुलियों से सिर्फ एक पंक्ति भेजती है।
“क्या तुम किन्हीं खतरनाक लोगों के साथ काम करते हो?”
“हाँ । मुझे बंदूक चलाने की ट्रेनिंग मिली है।” जवाब तुरंत आता है।
3
गाथा पूरी बोतल गटागट पी जाती है। उसका मुँह सुख गया है और जीभ जैसे काठ की हो गई है। सचमुच मुहावरे ऐसे ही नहीं बनते। उसके पैर के तलुवों से भय की लहरें ऊपर उठ रही हैं। अगर वह खड़ी हो जाय, तो शायद गिर पड़ेगी।
“तुम्हारा नाम क्या है? प्रमित सान्याल या कुछ और?” – गाथा को जानना ही है। इस तरह इस बात को यहीं छोड़ा नहीं जा सकता।
“मेरा नाम प्रमित ही है। बाकी पहचान मैंने उस प्रमित साहा से ले ली थी जो तुम्हारे साथ बैठा था, दिल्ली जाते हुए। मैं कहीं पढ़ाता नहीं हूँ। न कवियों के सम्मेलन में जाता हूँ ।”
“अच्छा, तो वे कविताएँ भी तुम्हारी नहीं थीं?”
“मेरी ही थीं।”
“तुम्हारी उम्र कितनी है?”
“तुम्हारे बेटे से कम। झूठ नहीं लिखा था मैंने।”
गाथा के अंदर भयंकर गुस्सा उठता है, पर अंदर साथ-साथ कुछ और भी बहने लगा है । एक अनाथ भटका हुआ बच्चा है यह। उसे याद आता है कि एक बार प्रमित ने लिखा था कुछ ऐसा – कि यह सन्नाटा उन आँसुओं का है जो पहाड़ से मैदानों की तरफ जाते हैं ।
“बंदूक से क्या होता है ? सारी समस्याएँ सुलझ जाती हैं ?”
“गाथा, जब तुम एक बाघ पर सवार होते हो, बंदूक तुम्हारा तकिया बन जाती है ।”
4
“गाथा, सच तो यह है कि तुम जीवन को बिलकुल नहीं जानती। लो, यह मेरी सबसे प्रिय कविता है –
कबीरू के लिए।
कबीरू मैंने कहा था तुमसे
गरमी में इतना मत पियो
कबीरू मैंने कहा था तुमसे
उदासी का निश्वास मत छोड़ो
जब तुम नाइन एमएम चला रहे हो
मैंने कहा था निशाना चूक जाएगा
कबीरू मैंने कहा था शिकार मत करो
तुम्हारे सीने को छलनी बना देंगे वे।”
“कौन है यह कबीरू? तुम्हारा उससे क्या रिश्ता था ? दोस्त था?”
“पता नहीं वह कौन था। मेरी टूटी-फूटी स्मृति के एक क्षण का एक टुकड़ा था। हारी हुई लड़ाई की स्मृति का। वह लड़ाई जो हमें मारनेवालों और हमारे बीच लड़ी जा रही थी : हम जो जीना चाहते थे।”
“तुम्हारी हर बात के न जाने कितने अर्थ निकलते हैं।”
“ऐसा लगता है कि अब तुम्हें मेरी किसी बात का विश्वास नहीं होगा। शायद तुम यह भी नहीं मानोगी कि एक गोली चमड़ी को भेद कर अंदर चली जाती है।”
“वाह! तुम्हें अब भी लग रहा है कि मुझे तुम पर, तुम्हारी बातों पर विश्वास करना चाहिए?”
“अच्छा है तुम्हारे लिए कि तुम कभी न जानो कि अविश्वास कैसे तुम्हारे ह्रदय पर कब्जा कर तुम्हें किस कदर आंतकित कर सकता है। तुम यह बिना जाने एक अच्छी लेखक बनी रह सकती हो।”
“और तुम? तुम लेखक नहीं बनोगे ?”
“मैं लिखूँगा, तो वह जेल के संस्मरण जैसा लेखन होगा।”
5
“प्रमित, कहीं तुम भटक तो नहीं गए हो? किस बात पर इतने गुस्सा हो तुम? कहीं तुम कल्पना के संसार में तो नहीं घूम रहे, जहाँ सच और झूठ का फर्क न कर पाओ।”
“गाथा, कुछ कल्पना नहीं है । जो है वह यहीं है ।ऐसा ही है। मैं चाहता तो तुम्हें लेने अपने किसी साथी को भेज सकता था। मेरे साथी मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं। वे मेरे पागलपन के लिए मेरी पूजा करते हैं।”
“तुम्हारे साथी ? बंदूक वाले या साहित्य वाले?”
“हाँ, हम बंदूक के साथी हैं, पर उसके बाद विशुद्ध साहित्य बहता है। हम बंदूकों से कविताएँ लिखते हैं। हम शिकार बन गए हैं, शिकारियों के। इसलिए हम उनका शिकार करते हैं।”
“प्रमित, छोड़ दो यह सब । तुम इसके लिए नहीं बने हो । तुम से प्रार्थना है मेरी।”
“प्रार्थना ? वह तो ईश्वर से की जाती है । पर मैं तो सिर्फ धूल से भरा एक बोरा हूँ। मैं किससे प्रार्थना करूँ? क्या तुम्हारे अंदर का लेखक एक ऐसे आदमी की कल्पना कर सकता है जिसने अपनी माँ को देखा तक न हो, पर फिर भी वह अपने घावों की कोई परवाह न करे ?”
“प्रमित, हम सबके अपने-अपने घाव हैं। पर हम फिर भी जिन्दा रहते हैं और दूसरों को जिन्दा रहने देते हैं।”
“देखो गाथा, जब ग्रेनेड फटा, तो उससे मरनेवाले के साथ मेरे अंदर कुछ मर गया। वह मटन चॉप जैसा लग रहा था। वे लोग रोज मटन चॉप खा रहे हैं। सोच कर देखो। कल्पना करो कि वह अभी तुम्हारे पास में पड़ा है। मटन चॉप बना हुआ आदमी।”
6
“तुम अपने जीवन के कौन से घावों की बार-बार बात करती हो गाथा, मैं नहीं जानता। जानना भी नहीं चाहता। तुमने कभी एक मजबूत जवान आदमी को देखा है, जिसे मोर्टार के हमले से लकवा मार गया हो? मैंने देखा है। इसलिए मैं जानना नहीं चाहता कि तुम किसे दुख कहती हो।”
“क्या यह दुख अपने आप बुलाया हुआ नहीं है?”
“