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नीरज पाण्डेय की नई कविताएँ

नीरज पाण्डेय की कविताओं का स्वर समकालीन कविताओं में सबसे अलग है. इसीलिए वे मेरे पसंदीदा कवियों में एक हैं. बहुत कम लिखते हैं लेकिन जैसे आत्मा की स्याही से लिखते हैं. कविताओं को यही ‘आत्म’ विश्वसनीय बनाता है. आज उनकी छः नई कविताएँ- प्रभात रंजन

१.क्रांति

दो पत्थर टकराये

चिंगारी उठी,

लपटें बढीं

जला दिया जंगल

नष्ट हुआ जीवन

हमने कहा ‘क्रांति’ हुई

एक बीज गिरा

धरा ने पाला

सींचा गया

कुछ हवा लगी

वो फूट पड़ा

…क्या देखा हमने

क्रांति हुई.

२.सूखती सभ्यता

मामा के गाँव में बांध पर चलते हुए

याद आती है माँ की सुनाई

वो कहानी

कि

बाँध ये जो रास्ता रहा है

दिनचर्या और जीवन का

कैसे नदी पर बाँधा गया

आज सालों बाद जब इसपर खड़ा होकर

देखता हूँ इसके दोनों तरफ़

तो ये गाँव के

शुरुवात की कहानी दोहरा जाता है.

नदियाँ जो बीज होती हैं

सभ्यता की…

स्मृतियों के मैदान में

बचपन सी उमडती हैं.

बेवक़्त बूढ़ी हो चली हैं

इस बीज की आँख

बिल्कुल सुख चुकी है

शरीर हरा पड़ता हुआ

छोड़ रहा है पपड़ियाँ

जिसके अंदर घात लगाए

छुपा हुआ है एक

काला अजगर

साँस लेता

रह रह कर

एक ज़िंदा लाश सी

मरणशैय्या पर लेटी यह नदी

फँसी हुई है खुद के दलदल में

जिसमें ध्यान से देखों तो

गाँव धँसता दिखता है

बज्ज! बज्ज! बज्ज!

क्या सभ्यता

विकास करते हुए

मेरी माँ की वो

बाँध वाली कहानी

भूल चुकी थी?

. बनारस से मुगलसराय

चौकाघाट बनारस पर खड़ा ऑटो

मुगलसराय की तरफ मुँह किये

दिन के कई चक्करों के बाद

अपना आखिरी चक्कर तलाश रहा है

उसकी पिछली सीट पर

चार सवारियों के बैठने की परम्परा

को तोड़ने बैठा है एक परिवार

पापा, मम्मी और पापा की बिटिया

पापा अपनी थकान माथे से पोंछ कर

हटाते हुए

नकारते हैं अपने थक जाने को

मूछों को बार बार उचकाते हैं

जानते हैं वो इस शहर और इन जैसे

कई शहरों की चाल और भाषा

जहाँ ना बोलना

रुके रहना है

उकता कर कहते हैं

“चलो ना जी अब और केतना भरेगा?”

पर

ड्राईवर की आवाज़ पान की पीक

से मिलकर

एक सवारी और ढूंढ़ रही है

पापा कहते हैं

“…चलो हम देंगे चार सवारी का”

और ऑटो अपनी सवारियों की गिनती

पूरी कर लेता है

बनारस जैसे जाने कितने शहरों से निकल कर

मुगलसराय जैसे ही जाने कितने शहरों तक पहुँचते हुए

बिटिया अक्सर उस

चौथी सीट को अपना बिस्तर बना

सो जाया करती है

पापा के चेहरे की बार बार उचकति मूँछ

शांत ठहर जाती हैं

उनका पूरे रास्ते कुछ ना बोलना

दरअसल सुकून का मौन है

सारे पापा बच्चों की नींद और शहर दोनों से

कितने परिचित होते हैं

वो जानते हैं

शहर की भीड़ में

उस चौथी सीट की महत्ता

और मेरी स्मृतियाँ इस बात पर

हाँ में सर हिलाती हैं

. छोड़ी हुई विधवाएँ

वो छोड़ी जाती रहीं

बनारस के घाटों पर

जैसे टूटी हुई मूर्तियाँ

रख दी जाती हैं

बाहर किसी कोने में

हाथ जोड़कर

उनकी परंपरा में

टूटी मूर्तियाँ

घर के लिए

अपशगुन थीं

और घर

परम्पराओं का बंधक

(परंपरा के तहत)

वो लेना चाहती थीं

खुद की इच्छाओं को गोदी में

जैसे पहले शिशु के जन्म पर

उसे उठाया था

वो रंगना चाहती थी उनके पाँव

पिरोना, उनमें पायल

सुनना, उनकी किलकारियाँ को

जैसे सुन लेती थीं

अपने नाती पोतों के

अधबोले शब्दों में ‘दा – दी’ का उच्चारण

पर उनकी स्वतंत्र इच्छा का होना

धर्मग्रंथों से बईमानी थी

उन्हें बचपन में सुनाई गई थी

सति-सत्यवान की कहानी

बड़ी श्रद्धा के साथ.

तो

विधवा होने को दोष माना

और जीवन को कलंक

हर बार मूड देतीं हैं

सिर से सारे बाल

जो बार बार उग आते हैं

अधमृत, अतृप्त इच्छाओं की तरह

राम नाम की माला फेरते

बैठी हैं वो सारी विधवाएँ

बनारस की धर्मशालाओं में

जो अपनों द्वारा त्याग दी गईं

पचहत्तर-अस्सी की इस उम्र में

अब इच्छाएं

झुर्रियाँ बन कर

लटक रही हैं उनकी देह से

जिन्हें वो बस झुर्रियाँ कह

ढक लेती हैं,

अपनी सफ़ेद साड़ी के पीछे

क्या यह बस इतफ़ाक है

कि बनारस की विधवाओं की देह पर

मैंने सबसे ज़्यादा झुर्रियाँ देखी हैं.

५. मूक मैं

इतना संवाद किया है

कि

बस चुप रहना ही

सामान्य स्थिति लगती है

चिल्लाते हुए विचारों को रोकना

जैसे सर टकराना बार बार

किसी कठोर सतह से

जैसे बजना एक चट्टान

का खुद के अन्दर ही

झन्न… झन्न… झन्न…

इतने सारे संवाद

और इतने सालों से कि

पता है किसके बाद बात कहाँ को जाएगी

बार बार खेल कर

घिस चुके ये कान इतने

कि

दूर कहीं उठने वाला संगीत

इन्हें शोर लगने लगा है

कोई पुकारता है कि

आओ खेल लो, खिलखिला लो

मैं उसे किसी युद्ध का

निमंत्रण समझता हूँ

और खुद के साथ खेलते हुए हार जाता हूँ

काफ़ी देर तक चुप रहना

चीखने की तैयारी है बहुत जोर से

जिसमें सारा विषाद

आआआ… कर के

एक साथ निकल जाएगा.

६. मरने के बाद प्रेम

बदली शक्लों में पहचान कर पाना

मुश्किल तो होगा ही

है ना

पुनर्जन्म का पक्षी

जब सारी स्मृतियाँ चुग जाएगा

ले जाकर टांग देगा

अंतरिक्ष में किसी वृक्ष पर उन्हें

जो हमारे साथ होने की खेती थी

एक मौसम की फसल कटने के बाद

बधार में बहुत देर तक

पसरी होगी धुप

जिसपर दूर कोई गाँव ढूंढते

भटक जाना बहुत आसान होगा

कोई बच्चा किसी तारे को देखकर

यह जान नहीं पाएगा

कि

वो तारा सदियों पहले

गायब हो चुका है

गायब होना

सब गायब कर जाएगा

थकान के बाद

मुँह धो लेने बस से

शक्लें बदल जाएँगी अपनी

मुमकिन है हम मिलें

पर अजनबी

अपने प्रेम से अपरिचित

अलग अलग शामों में बैठे

कोई जब कहीं लिखेगा

-प्रेम कविताएँ

वो हमारी

अंतरिक्ष के खेत में टँगी

स्मृति तक पहुँच पाएगा

तोड़कर चख लेगा

स्मृतियों से भरा प्रेम का फल

कोई चित्रकार

हमारे प्रेम की

शक्ल तैयार कर जाएगा

मुमकिन है.

Posted 1st December 2016 by prabhat Ranjan

Labels: neeraj pandey नीरज पाण्डेय

 
      

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