कटिहार के एक कस्बे में स्कूल में पढ़ाने वाली इस कवयित्री की कविताएँ देखिये कैसी लगती हैं- मॉडरेटर
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1.
“बरबादी बनाम पलभर”
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नीड़ बनायी हूँ / अपनी चोंच से,
टहनियों के छोटे-छोटे टुकड़े कर,
तृण-पात / चुन-चुनकर ।
लगी है, बड़ी मेहनत और काफी वक्त,
इस नीड़ के निर्माण में ।
….और तूफ़ान को सब पता,
जो केवल उजाड़ना ही जानता !
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बनने में समय लगा मुझे,
बरस-दस बरस
बरबाद होने के लिए / फ़ख़त
पलभर ही काफी है ।
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2.
“जीवन : वनवे-ट्रैफिक”
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कहाँ आ पड़ी अकेली ?
यहाँ न आती माँ-बाबा की ‘पढ़ने बैठो’ की आवाज़ें,
न भैया की डाँट, न छोटे भाई-बहन का प्यार,
अचीन्हीं यहाँ की घर की दीवार भी ।
न यहाँ आँगन पर खटर-पटर,
कैसे हम खेला करते थे संग-संग,
गुल्ली-कबड्डी / खो-खो और अन्य रंग ।
बाबा की अँगुली थाम बढ़ी,
माँ की आँचल बनी सौगात,
कैसे माचिस की तीली-सी छोटी थी,
क्यों बेवक्त अँगारे बन गयी / बना दी गयी ।
अबतो है, मेरी बढ़ती उम्र से घृणा,
पर, माँ-बाबा की बढ़ती उम्र से भय,
और ढलती काया से भयावहता,
अब तो दादा-दादी भी नहीं है–
हम छह जने हैं / चार भाई-बहनें
चारों अपनी-अपनी सेवा में व्यस्त,
चारों कुँवारे / भैया 42 पार ,
परेशाँ माँ-बाबा / क्या यही है, जिंदगी का सार ।
परिवार बसाना — क्या है जरूरी ?
परिवार तो मीराबाई भी बसाई थी,
सोचती–कई भेड़िऐं से अच्छा है / एक भेड़िया में टिक जाऊँ !
एक स्त्री– एकाकीपन से क्यों है घबराती ?
या पुरुषों को भी ऐसा भय है सालता !
अनलिमिटेड ज़िन्दगी, बन गई है ‘वनवे ट्रैफिक’
ख़ुशी तो इस बात की है / यही सोच….
समस्या नहीं यहाँ कोई, ‘ट्रैफिक-जाम’ की ।
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3.
“एग्ज़िट पोल : सौ फीसदी ‘मर्त्यलोक”
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नदियों का बहना,
झरनों का गिरना,
बर्फों का जमना,
कोई रोक नहीं पाया इसे–
पर्वत-पठारों / नद-निर्झर / लता-पादपों के
आपसी सामंजस्य को
कोई समझ नहीं सका आजतक ।
नदियों के बहने से रोकना,
उनकी धारा को मोड़ना
झरनों को गिरने से रोकना
बर्फों को जमने से रोकना
है यह, प्रकृति से छेड़छाड़–
जीवन-मृत्यु के कदमताल में
यह सिर्फ मृत्यु ही हो सकती है,
इसे बदलने का साहस किसी में नहीं !
किन्तु मृत्यु में भी,
मेरी पदचाप अनसुनी नहीं रह सकती !!
मंदिर की घंटियाँ सुन….बढ़
मस्जिद के अज़ान सुन….बढ़
क्योंकि / विवशता– मेरी कृतज्ञता है,
कायरता– मेरी भूख है,
छुआछूत– मेरी गरीबी है,
अस्पृश्यता– मेरी जवानी है,
लाचार नहीं, मैं तो सबला हूँ,
नारी नहीं, नरता हूँ,
अंतिम पंक्ति में हूँ ,मौन हूँ / पर महाशक्ति हूँ ।
समय का इतिहास नहीं, परिहास हूँ,
नर्त्तन करते शिव की इति हूँ,
आकाश/पाताल/मंगल/शनि/सूर्य/शशि/
और गुरु शुक्र/वृहस्पति से बिछोह है किन्तु
कि ब्लैक हॉल हो या आकाशगंगा….
उस अंतरिक्ष में क्या रखा है, उस ब्रह्माण्ड में क्या रखा है,
जो स्वर्ग की सैर करूँ ।
गतिशून्य व अपराजिता भी हो जाऊँ, मगर
एक नारी / एक स्त्री के लिए है, धरती प्यारी
क्योंकि / धरती भी नारी है,
भार उठाकर भी जो, नदियाँ-पहाड़ के दर्द में हैं शामिल
और यहीं हैं चन्दन, वंदन, क्रंदन….
कि इस मर्त्यलोक से / इन खुली आँखों से,
निहारती खुला गगन ।
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4.
“कविता के तुक्के”
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दाग थी वहीं-कहीं, पता चला यहीं है,
इशारे भद्दे लिए, आँखें उनकी / यहीं-कहीं है,
सोची, बधाई दूँ, नववर्ष की / एक गुलदस्ता
पर, उन्होंने कहा- तुम खुद गुलदस्ते हो !
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एक पत्थर तबियत से उछाला / हवा को फाड़ गयी
दूजे पत्थर मैंने उछाली / नदियाँ विभाजित हो गयी
तीजे पत्थर ने / मेहँदी रंगायी
चोथे ने दिल को कर तार-तार / बदनाम कर गयी ।
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आज न ईद है, ना ही दीवाली,
जश्ने आज़ादी / इस पार – उस पार,
तोप उगल रहे शोले, ए.के. की तड़तड़ाहट,
चौकीदार है, सोची थी / खून भरे गुब्बारे निकले ।
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5.
“कर्ण का क्या दोष”
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सूरज भी जानता था अनछुई है कुंती,
कुंती भी जानती थी अपनी सीमाएँ,
परंतु यह प्यार थी या बलात्कार या प्रबल कामेच्छा
या भूकंप का आना या तूफाँ कर जाना ।
सूरज तो दर्प से चमकते रहे
कुंवारी कुंती को गर्भ ठहरनी ही थी
दोनों मज़े लिए-दिए या जो कहें
या कुंती की लज़्ज़ा के आँसू बहे ।
किन्तु कर्ण का क्या दोष था,
सूर्यांश होकर भी सूर्यास्त क्यों था,
क्यों वे कौन्तेय नहीं थे,
देवपुत्र होकर भी / सूतपुत्र क्यों कहलाये ?
सूरज बलात्कारी थे
या कुंती अय्याशी थी
या ‘मंत्रजाप’ ही बहाना था
या धरती की सुंदरी से, देवों का मन बहलाना था ।
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5.
“लाइव इंटरव्यू : पारस-पत्थर से ?”
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मैंने प्रपोज़ की, पत्थरों से
जो किनारे थे पड़े-पड़े,
थे सभी श्यामल, किशोरवय
देखते वे हरदिन प्रबुद्ध प्रवाह
हर रातें व्योम की गप-शप,
वहीं किनारे नदी के पड़े-पड़े
बाढ़-कटाव से बचाने को ।
बाँध के नीचे वे सभी / कब से पड़े थे,
रोज-ब-रोज / ये सभी पत्थर के ढेर,
दिखाई पड़ जाती मुझे / स्कूल जाते समय
किसी सहकर्मी ने मुझे ऐसा निहारती
कह उठी थी–ये ‘निर्जीव पत्थर’
हमारे जन्म से पहले के हैं सभी ।
एक दिन की है बात–
वैसे उसे मैं रोज देखती / पत्थरों की ढेरी पर
कि एक छोटा-सा गोल-मटोल ‘चमचौआ’ पत्थर
ना-ना पत्थर का बच्चा कहिये–
ढेरी से लुढ़क कर नदीजल में चले जाते,
किन्तु हरदिन की तरह जलधारा
पुनः उसी गति से ढेरी पर ही भेज देते ।
लेकिन उसदिन ऐसा नहीं हो सका
वह नदी में गिरकर विलीन हो गया था
और अगले दिन देखी / नदी भी सूखने लगी थी
सप्ताहभर में वो नदी भी सूख गयी
और पंद्रह दिन आते-आते
नदी की सूखी धारा भी / नहीं दिखाई पड़ने लगी
उस होते अब रास्ता भी बन गयी थी / शॉर्टकट ।
एक दिन मैं अकेली / उसी नयी रास्ते से जा रही थी
….मैं यहाँ हूँ, मास्टर दी….
लगा कोई मुझे आवाज दे रहे हैं,
भ्रम समझ नज़रअंदाज़ कर दी
परंतु अगले दिन वही आवाज़–
….मास्टर दी, मुझे नहीं पढ़ाएंगे….
सप्ताहभर मेरी साथ, ऐसे ही बीतने पर
फिरभी मैं इस विचित्र क्षण को जताई नहीं किसी से
और इतवार की छुट्टी के बाद स्कूल जाने के क्रम में
वही आवाज़ आने पर / निडर हो मैं / जवाब दी–
‘हाँ, पढ़ाऊँगी ! तुम है कौन ? कहाँ हो ? दिखाई नहीं पड़ रहे !’
….मास्टर दी, मैं परसा हूँ….
‘परसा !!!! कौन !!!!’
….मैं वही पत्थर का बच्चा ‘चमचौआ’ पत्थर….
निर्जीव में निकली आवाज़ से हुई सिहरन से परे
मैं टोक बैठी– ‘किन्तु तुम्हारा भी नाम है, परसा है…..’
….नहीं मास्टर दी, मेरे माँ-बाप और परिवार के लोग
ऐसा तो प्यार से कहते हैं….
….मेरा नाम तो पारस है, पारस पत्थर….
मैं चिहुँकी—- ‘पारस पत्थर !!!!’
‘अरे, जिसे छूने से कोई वस्तु सोना हो जाती है….’
….हाँ, मास्टर दी, वही पारस….
‘पर, हो कहाँ तू ?’
….मैं नदी में गिरकर सोना में बदल गया हूँ….
….जो यह मिट्टी है, वही सोना हो गयी है
कि मेरी धरती सोना उगले….
….इस पर फसल उगे, तो अनाज की कमी नहीं होगी….
….मास्टर दी, यही सन्देश आपको पढ़ाने हैं….
….कि पारस पत्थर तो नदी जल के साथ,
मिट्टी में मिल गयी है और हाँ, मेरे ये परिवार के लोग,
यहीं रह, कालान्तर में चट्टान हो जाएंगे, अब चलती हूँ, दी !
जब भी याद आये मेरा / तो दुःख में भी मुस्कराते याद कर लेना,
मैं हाज़िर हो जाऊंगा….
मैं इस खामोशी के बाद स्कूल आ गयी,
घटना किसी को बतायी नहीं / वैसे कौन विश्वास करते
किन्तु उसी दिन से प्रयास करती हूँ, बच्चों को यह बताने-पढ़ाने
कि भाग्य या अलादीन-चिराग ‘मृग-मरीचिका’ है,
‘पारस पत्थर’ और कुछ नहीं, अपना खलिहान है
और धरती उतना अवश्य देती है कि हम भूखे नहीं रहे ।
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6.
“लाइव इंटरव्यू : एक पक्षी से”
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रोज की भाँति,
आज भी स्कूल जा रही थी मैं,
छाता ताने, पर्स लटकाये
और किसी पेड़ के नीचे से
तब गुजर रही थी,
उधर पेड़ पर पंछियों के चहचहाने जारी थे ।
कि सर पर तने छाते पर कुछ गिरा / नि:स्तब्ध,
छाते को मैंने आगे की ओर की
कि एक छोटी पक्षी ‘फुर्र’ उड़ती हुई
पर्स पर आ बैठी और कहने लगी–
….अरे दी, कहाँ जा रही हो ?….
‘स्कूल जा रही हूँ, पढ़ाने !’ मैंने उनकी भाषा में उत्तर दी ।
….क्या पढ़ाती हो, दी….
‘अरे, अक्षर-ज्ञान कराती हूँ—
क ख ग घ ङ !’
….मैं भी पढूंगी, मुझे भी पढ़ाओ न दी….
….यहीं बगीचे में पढ़ लूँगी,
स्कूल जाकर वहाँ डिस्टर्ब भी नहीं करूँगी !….
”नहीं, तुम्हें अगर पढ़ाऊँगी तो–
तुम्हें ज्ञान-विज्ञान की जानकारी हो जायेगी,
और बहेलिये तुम्हें इसतरह से मनुष्य की भाषा में
बातें करते देख, तुम्हें पकड़ने को
और पागल हो जाएंगे !
वैसे भी तुम्हारी काया बहुत कमजोर है,
निरक्षरता में ही तो / इन मनुष्यों को
तुम्हारे गोश्त लज़ीज़ लगते हैं !
तुम्हारे पढ़-लिख लेने से ये मनुष्य तुम्हें,
पिंजरे में बंद रखकर तुमसे चौकीदारी कराएंगे,
तुम अपने सखा ‘सुग्गे’ की गत देख ही रही हो
और उनके भाँति तुम्हारी भी आज़ादी निचुड़ जायेगी,
अगर तुम्हें यह सब पसंद है, तो चलो मचान पर
मैं ज़रा स्कूल से हाज़िरी बना आती हूँ”
–इतना कह मैं ज़रा साँस ली, तब तक वह चिड़िया
पर्स से कूदते हुए घास पर बैठ चुकी थी
और कहने लगी….. ” नहीं दीदी ! तब छोड़ो,
मुझ पंछियों को मेरी ही भाषा में रहने दो….
….मैं आज़ादी खोना नहीं चाहती ‘दी,
रंग-बिरंगी पंख है मेरी, यही मेरी साक्षरता है….
और मेरी चहचहाना ही मेरी एम.ए., पी-एच.डी. डिग्री है….”
फिर वो ‘फुर्र’ उड़ पेड़ की उसी डाल पर बैठ गयी
और मेरी मुख से अनायास निकली–
‘मेरी तितली, कितनी सयानी ?’
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7.
“सफ़ेद नागरिक”
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सफ़ेद पोशाक, सफ़ेद बाल
चूड़ी सफ़ेद……. छन्-छन्-छन्
पडी कानों…….. छन्-छन्-छन्
आँखें खोल दी मैंने —
कुछ आभास हुई / अस्पष्ट
नज़रअंदाज़ कर / आगे बढ़ती / कि
पैरों को ठोकर लगी —
एक बड़ा-सा पत्थर / ना / पत्थर की मूरत
संदिग्ध / परंतु पहचाना-सा / ना / पहचानी-सी
सफ़ेद पोशाक, सफ़ेद बाल
चूड़ी सफ़ेद…….. छन्-छन्-छन्
आँखों देखी……. दृश्यन्-यन्-यन्
अरी, अहिल्या ! अभीतक पत्थर की !!
श्रीराम नहीं आये अभीतक ! आश्चर्य !!
किन्तु सफ़ेद लिबास क्यों ?
गौतम मुनि नहीं रहे क्या ??
ये आँसू, अहिल्या की नयनों से…..
सफ़ेद चूड़ी पर पड़ी मेरी नज़र
टूटी-फूटी थी / जगह-जगह
विधवा हो गई हैं अहिल्या
त्रेता के राम / अभी आएंगे भी नहीं
अब यह पत्थर की मूरत
चौक-चौराहों पर ही रहेंगी !
अगले दिन के अखबारों में आयी,
दिल्ली की इंद्रपुरी में–
अहिल्या की मूरत लगाई गयी,
किन्तु प्रश्न छोड़ गयी / हर स्त्रियों के लिए–
गौतमनगर को छोड़,
जगह इंद्रपुरी ही क्यों चुनी गयी ?
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8.
“चाक पर चढ़ी औरत”
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सुन्दर प्रतिमा !
यौवन से उफ़नाती प्रतिमा !!
अप्रतिम प्रतिमा !!!
सदियों पहले
एक दूकानदार से
उस एकमात्र स्त्रीलिंग प्रतिमा को–
एक ग्राहक ने खरीदा / कुछ सिक्कों में…..
उस पुरुष ग्राहक ने छूआ उसे,
कई जगह / उस नारी प्रतिमा के–
नितम्ब को सहलाते-सहलाते कूल्हे तक,
ओठ के फ़ाँक से यौनांग तक,
गाल की रसगुल्लाई से छाती तक,
अपनी तर्जनी से / मध्यमा से / अँगुष्ठा से,
कनिष्ठा और अनामिका को छोड़,
क्योंकि ये अंग उस मर्द के कमजोर थे,
किन्तु वे उनकी बाल नहीं सहलाये,
पीठ सहलाये / ब्रा के फ़ीते के अंदाज़न….
यौन-कुंठा से पीड़ित उस मर्द के अंदर थी
अज़ीब छटपटाहट
इसलिए असंतुष्टि के ये आदमखोर ने
उस सुन्दर प्रतिमा,
यौवन से उफनाती प्रतिमा,
अप्रतिम प्रतिमा— को
सीमेंट-सिरकी के रोड पर पटक-पटक
चूर-चूर कर डाला ।
कहने को ये शरीफ ने
अपनी शरीफाई में हैवानी का पेस्ट बनाकार
प्रतिमा के उस चूड़न को
सिला-पाटी में पीस डाला
और उसे अपने वीर्य से सानकर/गूँथकर
मिट्टी का लौन्दा बना दिया
और उसे चाक पर चढ़ा दिया
कहा जाता है—
तब से ही औरत / चाक पर चढ़ी है ।
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9.
“नहीं कोई आसरा”
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तड़पती रही माँ / मादाकाल में / प्रतीक्षित पति से
जूझती रही मैं / माँ की जवारभाटीय गर्भ में
आँगन में चाँद को पकड़ने को मचलती
दूध-दूध कह / माँ के स्तनों को निचोड़ती
धूप और रोग से बलखाती
पिता से पीटती / पिटाती
मगर भूख और गरीबी से पंगे लेकर
पढ़ने को जिद करती…..
और आज शिक्षिका बन बैठी
कि दुःख झेलकर भी आसान लगा ।
पर प्रेम-शिक्षा ने, औरताई शिक्षा ने
गले बाँध दी घंटियाँ—-
कल सबकुछ सहकर / पायी ही पायी
और आज पाकर ही पीड़िता बनी हूँ
जिसतरह रस खोकर फूल पीड़िता हैं
जिसतरह आटा से निकाल ली गई मैदा
जिसतरह मत्स्यगंधा से निकल सत्यवती
और उनकी अम्बिके-अम्बालिके
कठपुतली भर रह गयी….
या गंगा भी करती रहीं पुत्रों के तर्पण
वो तस्लीमा ही निर्वासिता क्यों ?
महुआ घटवारिन का दोष क्या ?
ताजमहल में ही क्यों कैद ‘मुमताज़’ ?
यशोधरा की क्या गलती थी ?
कुंती क्यों, मरियम भी तो कुँवारी माँ थी ?
जात-परजात उन्हीं के हिस्से ?
कि घर-बार, कोठा-कोठा ….
औरत इधर से भी बदनाम / उधर से भी,
और नहीं नीड़, कछू नहीं ठिकाना !
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10.
“तीन तलाक…..ब्लॉक”
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बुढ़यापे होते हैं मर्मान्तक
तिल-तिल तिलसते देखी है, दादा-दादी को !
प्रेम-जुदाई होते हैं दर्दनाक
खुद को तिल-तिल टूटती देखी है, मैंने !
जानेवालों के दर्द भोगनेवाले
जिस भी गलती के शिकार हो
वह प्रायश्चित कर भी
क्षमा नहीं पाती !
क्योंकि वे औरों में रत यानी औरत जो थी !
क्योंकि औरत सिर्फ ‘संधि’ के लिए है,
पुरूष तो पररस है, पाने को चाह
‘विच्छेद’ लिए
उन्हें सिर्फ / दूसरे की पत्नी भायेगी
औरत अगर औरत की सहेली रहे
और वे कभी भी रहे पत्नीशुदा पुरूष को
कर बहिष्कार,
तो नहीं आएगी —
भोगों के परमेश्वर मर्दों को कहने को
तलाक-तलाक-तलाक
यानी ‘त’………लॉक ।
लॉक कर दीजिये, कंप्यूटर जी !
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….वाह …ये तो हमारे कोसी की लड़की है….
…बिना लाग- लपेट की कविताएँ….
….बहुत बधाई
बहुत ही बढ़िया और बिना लाग-लपेट की कविताएँ
An impressive share! I’ve just forwarded this onto a co-worker who has been conducting
a little homework on this. And he actually bought me lunch because I stumbled upon it for him…
lol. So allow me to reword this…. Thanks for the meal!!
But yeah, thanx for spending the time to discuss this matter here on your site.