वसंत के मौसम के लिहाज से वह एक ठंढा दिन था लेकिन ‘मुक्तांगन’ में बहसों, चर्चाओं, कहानियों, शायरी और सबसे बढ़कर वहां मौजूद लोगों की आत्मीयता ने 29 जनवरी के उस दिन को यादगार बना दिया. सुबह शुरू हुई राम के नाम से और शाम होते होते दो ऐसे शायरों की शायरी सुनने को मिली जिनको लोगों ने कम ही सुना था- शकील जमाली और प्रताप सोमवंशी. शकील जमाली की शायरी बोलचाल की हिन्दुस्तानी जुबान की शायरी है और निस्संदेह आयोजन का समापन इससे बेहतर हो नहीं सकता था. उनकी शायरी के मेयार से परिचित करवाने के लिए आयोजिका आराधना जी को अलग से धन्यवाद. प्रताप सोमवंशी हिंदी शायर हैं मतलब देवनागरी में लिखने वाले. बोलचाल के मुहावरों को बखूबी मिसरों में तब्दील कर देने वाले शायर.
सुबह ही जब ‘मेरा राम मुख्तलिफ है’ विषय पर प्रसिद्ध लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह और जाने माने पत्रकार, स्तंभकार, ‘बॉलीवुड सेल्फी’ किताब के लेखक अनंत विजय के साथ मैंने बातचीत की. अनंत जी राम को सांस्कृतिक व्यक्तित्व के रूप में देखने की बात कह रहे थे. लेकिन सारा झगड़ा संस्कृति का ही तो है. वे यह नहीं बता पाए कि किस संस्कृति के? अब्दुल बिस्मिल्लाह राम के मनुष्य रूप के बारे में बात करते रहे जिस व्यक्तित्व ने दुनिया भर को प्रभावित किया. राम का नाम आए और बात हिन्दू की न हो कैसे हो सकता था. बिस्मिल्लाह साहब ने बातों बातों में यह बताया कि अरबी भाषा में हिन्दू शब्द के दो अर्थ होते हैं- काला और चोर. लेकिन बात हिन्दुस्तान की हो रही थी और यह अर्थ एकदम नया लगा इसलिए कार्यक्रम के बाद तक इस बात को लेकर बहस होती रही. लेकिन इतना तो मैं कह सकता हूँ. अब्दुल बिस्मिल्लाह की मंशा खराब नहीं थी. वे एक बुद्धिजीवी हैं, जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर रहे हैं. उनको भी हिन्दू शब्द के भी इन दो अर्थों का पता हाल में ही चला था इसलिए उन्होंने वहां मौजूद लोगों से उसको साझा भर कर दिया. बहरहाल, राम की इस चर्चा ने वहां मौजूद अधिकतर लोगों को राम पर बोलने के लिए विवश कर दिया. यही राम की बहुलता है जिसको विशेष राजनीति के तहत एक रूप में रूढ़ बनाए जाने की कोशिश दशकों से जारी है.
अगले सत्र में वन्दना राग ने अपनी चर्चित कहानी ‘नमक’ का पाठ किया, प्रियदर्शन की कहानी ‘स्मार्ट फोन’ ने सभी की संवेदनाओं जो झकझोरा और अनु सिंह चौधरी ने अपने नए लिखे जा रहे उपन्यास के एक अंश का पाठ किया. बिहार से दिल्ली पढने आई लड़की के पीजी में रहने के अनुभवों को लेकर उन्होंने जिस अंश का पाठ किया उसने उनके आगामी उपन्यास में लोगों की दिलचस्पी पैदा की.
दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित मुक्तांगन के इस आयोजन ने कई मिथ को तोड़ा. सबसे पहला मिथ कि अगर दिल्ली के केंद्र में आयोजन न हों तो सुनने वाले नहीं आते. लोग दूर दूर से आए. वहां होने वाला यह पहला आयोजन था. जितनी सुन्दर परिकल्पना ही उसके लिए आराधना प्रधान जी को बधाई ही दी जा सकती है. ऐसा लगा जैसे इतवार के दिन आप किसी अखबार का रविवारीय परिशिष्ट पढ़ रहे हों, हर पन्ने पर कुछ अलग आस्वाद. दिन भर में साहित्य, संस्कृति के अलग अलग आस्वाद का यह अनुभव अपने ढंग का अनूठा आयोजन था जो सिर्फ सुनने सुनाने के लिए नहीं था बल्कि एक आत्मीय संवाद के सूत्र में जोड़ने जुड़ने का था. आजकल जब समाज में संवाद कम होता जा रहा है ऐसे आयोजनों की बहुत जरूरत है जो संवाद को मुखर करे.
‘मुक्तांगन’ के कला केंद्र के रूप में विकसित किया गया सेंटर है. बहुत कलात्मक ढंग से वहां की साज सज्जा की गई. उसे देखने का सुख एक अलग ही अनुभव था. आराधना प्रधान जी के कल्पनाशील आयोजनों के पटना और बिहार के अलग अलग शहरों के लोग अच्छी तरह से परिचित रहे हैं. उन्होंने अपनी संस्था ‘मसि’ के माध्यम से बिहार के कस्बाई शहरों में कई साहित्यिक आयोजन किये और वे सफल भी रहे. दिल्ली में ‘मुक्तांगन’ के इस आयोजन से उनकी कल्पनाशीलता ने एक अलग छाप छोड़ी. आयोजन का मतलब यह नहीं होता कि कुछ लोगों को जुटा दिया जाए. बड़ी बात यह होती है कि किस तरह से सब कुछ सूत्रबद्ध किया जाए!
बहरहाल, मुक्तांगन में हुए इस पहले आयोजन का मैं साक्षी रहा, भागीदार रहा. मेरे लिए तो यह यादगार रहा. मुझे लगता है कि जो लोग भी आए सभी को इसकी याद रहेगी.
प्रभात रंजन
Ji yahi yaadgaar bahas hai, hum itihaas waale bahason ko lamba kheenchte hain