पहले वसंत था और आज से उसमें फागुन का भी रंग घुल गया है. आज कुछ अलग सी कविताएँ पढ़ते हैं पूजा पुनेठा की. पूजा रेडियो जॉकी हैं, अनुवाद, कंटेंट राइटिंग करती हैं और सहज शैली में कविताएँ लिखती हैं. फागुन की पहली सुबह की कविताएँ- मॉडरेटर
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1..
दरगाह के धागे में बंधती
मंदिर के दीये में जलती
गिरिजा की ख़ामोशी में बसती
ताबीजों में बंद सिसकती
दो हथेलियों में जुड़ती
सज़दे में झुकती
टोटकों में पलती
आहों से सजती
आँखों में उतरती
ख़्वाबों में लरज़ती
बातों में खनकती
मेरा हाथ पकड़ती
तेरे दिल से गुज़रती
इस दुआ का सफ़र
कितना लम्बा
शायद …….
थक कर इक रोज़
मेरे सीने में सो जायेगी !!
2..
आप भी गज़ब करते है
मेरी नींदों पे असर करते हैं
पहले तो खुद ही देते है दवा
फिर उसे ज़हर करते हैं
मंज़ूर मुझे मर जाना
तेरे बिन ना जीने की दुआ करते हैं
शिकवे, शिकायत, मोहब्बत का हिस्सा
इसके बिना ना ये असर करते हैं
चलो किअब भी रात बाक़ी है
क्यूँ तन्हा तन्हा गुज़र करते हैं
अब भी बाकी है हिसाब सितम का तेरे
आप बैठें अब हम सवाल करते हैं
कुछ भी आता नहीं ख़ास मगर
जब भी करते है तो लाज़वाब करते हैं
बाकी नहीं कोई शौक़ तेरे सिवा अब
लम्हा लम्हा तुझ पर निसार करते हैं
3..
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
ता थई तत्
आ थई तत्
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
हाथों में आलता ,
पैरो में घुंघरु,
बालों में गज़रा
बांधेंगे
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
लब पे ख़ामोशी
साँस बेचैन
आँखों में हक़ीक़ी
पालेंगे
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
शहरों शहरों
गलियों गलियों
राँझा राँझा
गावेंगें
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
दरगाहों पे
मजारों में
मन्नत का धागा
बांधेंगे
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
दीवारों से
कभी पत्थर से
तेरी याद में हम सर
मारेंगे
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
पगलाये से
बेपरवाह से
ख़ाक जहाँ की
छानेंगे
तेरे इश्क़ में हम भी नाचेंगे
4…
जंगल की आवारा हवाएं
ठहरे तो
खामोशियों का गला चीर दे
बहके तो
तबाही के भी निशां ना बचें
मचले तो
रोम रोम में सिरहन फैला दे
फिसले तो
बाढ़ों सी बह जाये
कुरेदे तो
धरती से जीवन निकले
सिमटे तो
घटा दे तन्हाइयो का फैलाव
हंस दे तो
बिखर जाये मौसमो में लाल रंग
कस ले
तो पिघल जाये रात का मंजर
मनमौजी अल्हड़
पागल दीवानी
जंगल की आवारा हवाएं
बड़ी बदनाम होती है.
5…
पहाड़ो की कहानी
चश्मों की जवानी
नाची थी उस रात
क्या खूब दीवानी
बेशर्म बेबाक
अल्हड सी रवानी
बदगुमाँ बदहवास
आँखों की ज़ुबानी
तड़कती भड़कती
मदहोश निशानी
बहते हुए दरिया सी
मस्त मस्तानी
रातो को जो ना आये
हाय नींद सतानी
दिन जा मरा
तकियों में
उनकी मेहरबानी
शोलो सी गर्म आहटें
बर्फों में छुपानी
हिज्र की रातों की
है ये बात पुरानी
6..
तेरा इश्क़ बेल जैसा
लिपटता रहता है और
जकड़ता रहता है मुझे
बरस जाने पर
गुलाबी फूल खिलते है
और सूखने लगती है
ज़ियादा जुदाई वाली धूप में
छोटी-छोटी टहनियाँ
जिस्म में सुराग कर
चूसने लगती है
कतरा कतरा इश्क़
इश्क़ का रंग हरा तभी है शायद
पत्तियों पर ठहरी हुई
ओस की बूंदे
तेरी जमा ख़्वाहिशों जैसी
सुबह होते ही
मेरी सतहों पर फ़ैल जाती है
ये पैदा फल शायद….
निशानी होगा उस रात की
जब चाँद ने फेंककर मारा था
वो जादू का मंत्र
कुम्लाये लम्हे
सूखी कलियाँ बनकर
छिटक के दफ़न हो जाते है
मेरे ही दायरे में
मग़र ख़ुश्बू कभी नहीं मरती
जड़ें पसरने लगी है और भी गहराई में
रोज़ सींचती जो हूँ
रूमी की दिल फ़रेबी बातों से
मीरा के जुनू-ए-इश्क़ से
आबिदा के सूफ़ी कलामो से
जगजीत के दर्द तरानों से
इश्क़ की बेल को इश्क़ की ख़ुराक चाहिए
बहुत सुन्दर. पूजा, तुम्हारी कविताओं में बेबाकी है, ईमानदारी है, सहजता है, सच्चाई है और थोड़ा अल्हड़पन, थोड़ी नादानी, थोड़ी अपरिपक्वता भी है. ‘तुम’ , ‘तू’ और ‘आप’ के संबोधन एक साथ अच्छे नहीं लगते. लेकिन मुझे तुम्हारी कविताएँ पहाड़ी नदी जैसी उछलती कूदती, जोश में भरी दीखीं. मेरी शुभकामनाएं और मेरा आशीर्वाद. अपनी कविताओं में ऐसे ही मुस्कुराती रहो, खिलखिलाती रहो.
गोपेश जैसवाल