आज वैलेंटाइन डे है. सदफ़ नाज़ अपने पुराने चुटीले अंदाज़ में लौटी हैं. कुछ मोहब्बत की बातों के साथ, कुछ तहजीब-संस्कृति की बातों के साथ-मॉडरेटर
==================
14 फ़रवरी के दिन डंडे वाले बिग्रेड के नुमाइंदे मोहब्बत के मारों पर यूं पिल पड़ते हैं मानों ये जोड़े शीरीं फ़रहाद के नक्शे-ए-क़दम पर चलते हुए मुल्क भर में नहरों की खुदाई पर निकलने का प्लॉन बना रहे हों। और डंडा ब्रिगेड को नहरों की खुदाई के टेंडर से मिलने वाले कमीशन के मारे जाने का ख़तरा लाहक हो। मिंया अगर आप लोगों को कोई ऐसा वैसा ख़दशा हो तो दिमाग़ से निकाल दीजिए आज कल कोई शीरीं फ़रहाद की तरह मोहब्बत नहीं करता के अपनी महबूबा के इश्क़ में नहर खोद डाले और महबूबा अपने महबूब की मोहब्बत की ख़ातिर जान दे दे। ख़ातिर जमा रखिए आपके कमीशन पर कोई आंच नहीं आने वाली। और अगर बात आपके हिसाब से “तहज़ीब-संस्कृति” बचाने की ही है तो सिर्फ़ एक दिन क्यूं? ख़ैर से सालों भर डंडे हाथों में पकड़े पार्कों और रेस्टोरेंटो में पहरेदारी कीजिए कौन रोकता है?
वैसे सच कहूं तो मोहब्बत के मारों की अक़्ल का तो और भी कुछ मालूम नहीं पड़ता है। समझ में ही नहीं आता के इतनी ठुकाई-कुटाई के रिस्क के बावजूद भी ये वैलेंटाइन-डे मनाने के लिए आख़िर इतना आफ़त क्यों जोते रहते हैं??? अमां मोहब्बत ही तो है, अपने घर की खेती है, जब चाहो उगा लेना। 14 फ़रवरी को छोड़ कर साल के 364 दिन में जिस दिन चाहे यौम-ए-मोहब्बत मना लेना. यूं भी संत वैलेंटाइन कोई आपके लकड़ दादाओं के भी दादाओं के भी दादा तो हैं नहीं के आपके वैलेंटाइन डे के दिन वैलेनटाइन डे नहीं मनाने पर ख़फ़ा हो जाएं। और कब्र में करवटें बदलते हुए आपकी मोहब्बत की नाकामी की बद्दुआएं देने लग पड़ें । अगर ऐसा कोई ख़दशा है तो मन से निकाल दीजिए. क्योंकि मुझे नहीं लगता वैलेंटाइन बुज़ुर्गवार ऐसा कुछ करेंगे. और अगर ऐसा कुछ कर भी दें तो युरोप-रोम से बद्दुआ आप तक पहुंचते पहुंचते ही अपना तासीर खो चुकी होगी ।
वैसे वैलेंटाइन डे की तूतू-मैंमैं को अगर छोड़ भी दें तब भी हमारे यहां मोहब्बत को लेकर ज़्यादातर लोग सिनिकल ही होते आए हैं। उनसे भी साल के किसी भी दिन, महीने, मिनट पर मोहब्बत की बात कीजिए उन्हें फ़ौरन ही तहज़ीब-संस्कृति-बेशर्मी और बेहयाई की याद आने लगती है। और इनमें ज़्यादातर वही लोग होते हैं जो पर्दे पर फ़िल्म मुगले-ए-आज़म में अनारकली के दीवार में चुनवाने वाले सीन से लेकर एक दूजे के लिए और क़यामत से क़यामत तक में हीरो हीरोइन की मौत वाले सीन को पचासवीं दफ़ा देखने के बावजूद अपने आंसू नहीं रोक पाते हैं। लेकिन जैसे ही इन्हें अपने आस-पास कोई वैसा ही जोड़ा दिख जाए तो उन्हें फ़ौरन आज के ज़माने में तहज़ीब के गिरने का इल्हाम हो उठता है। लेकिन जनाब ये बिचारे भी क्या करें. इनकी सोच वही है जो समाज की है। यूं भी हमारे यहां वही मोहब्बत सही मानी जाती है जिसे ख़ुद की बजाए मां-बाप की इजाज़त से की जाए। ऐसी मोहब्बतों को परिवार-समाज मिलजुल कर पूरे रीति रिवाज़ और शान-ओ-शौकत के साथ परवान चढ़ाता है। हलांकि ख़ुदा न ख़ास्ता कहीं दोनों को थोड़ी ज़्यादा मोहब्बत हो जाए और वे उसका इज़्हार पब्लिकली करने लगें तो परिवार और समाज के लोगों को इस पर दिक्कत होने लगती है के देखो दोनों कितने बेशर्म हैं एक दूसरे पर लट्टू हुए जा रहे हैं। दीदे का पानी मर गया है।
यानी मोहब्बत में शर्म का सामाजिक संतुलन भी ज़रूरी है। वैसे ऐसे मां-बाप की हिम्मत की दाद देने का मन करता है जो अपने बच्चों के लिए मुस्तक़बिल की “मोहब्बत” तलाश करते हुए कई-कई जोड़ी चप्पलें घिस देते हैं………………लेकिन उफ़् नहीं करते……………..बेहिसाब रूसवा भी होते हैं लेकिन मजाल है जो कभी अपने बच्चों से कह दें की अमां यार तुम लोग बड़े हो गए हो …………….हमने पढ़ा लिखा कर तुम्हें क़ाबिल बना दिया है ………….जाओ तुम ख़ुद अपने लिए मोहब्बत तलाश करो ………………हमें चैन लेने दो………….कब तक हमारे सिरों पर लदे फिरोगे? लेकिन मजाल है जो उनकी ज़बान से ऐसा कुछ अदा हो जाए…………
दरअसल चाह कर भी वे ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि हमारे यहां ऐसे परिवार और मां-बाप को बड़ी इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता है, जिन्होंने अपने बच्चों को क़ाबिल बनाया ऊंची तालीम दिलवाई और उनके लिए मोहब्बत भी तलाश कर के दी। ऐसे लोगों का समाज में काफ़ी ऊंचा मक़ाम होता है। (बनिस्बत उनके जिनके बदबख़्त बच्चे ख़ुद को समझदार और एडल्ट समझ कर अपने लिए ख़ुद ही मोहब्बतें तलाश करने की गुस्ताख़ी करते हैं।) ऐसे मां-बाप की गर्दनें महफ़िलों में हमेशा फ़ख़्र से ऊंची रहती है के देखा…………………हमने कितनी आला परवरिश की है। हमारे बच्चों ने इतनी “आज़ादी” के बावजूद कोई “ग़लत काम” नहीं किया। मां बाप के मान और इज़्ज़त पर आंच नहीं आने दी।( हलांकि यही मां-बाप यश चोपड़ा से लेकर संजय लीला भंसाली की फ़िल्मे और एकता कपूर मार्का सीरियल्स बड़े शौक़ से देखना पसंद करते हैं।)
वैसे सबसे हैरत वाली बात यह है की ऐसे पढ़े लिखे लायक़-फ़ायक अवलाद की ज़हनियत और सोच का यूनीवर्सिटी, कॉलेज से लेकर एमएनसीज़ की नौकरी तक कुछ नहीं बिगाड़ पाती है। इनकी सोच समझ के धागे उन्हीं रस्म-ओ-रेवाज में उलझते रहते हैं जहां उनके मां-बाप और उनके भी मां बाप के उलझे रहे थे। भारी डिग्री के बाद भी ये बड़ी ताबेदारी के साथ यही सोच रखते हैं की कॉलेज यूनीवर्सिटी में हल्की फ़ुल्की तफ़रीह और बात है लेकिन ………………मोहब्बत ……….!!! वह तो मां बाप की पसंद से ही करना बेहतर होगा। सामाजिक तौर पर फ़्यूचर सेक्योर रहेगा।
हालांकि ऐसा भी नहीं है के हमारे यहां मोहब्बत के नाम पर पूरी तरह से अंधेर ही है। कुछ शर्तों के साथ मोहब्बत को परिवार और समाज एक्सेप्ट करने लगें हैं। बस यह ध्यान रखने की बात है की मोहब्बत अपनी जाती, मज़हब और हैसियत में की जाए। ऐसे में “प्रोग्रेसिव” सोच समझ के परिवार रिश्तेदार, समाज बिना कोई दीवार खड़ी किए अपने बच्चों की ख़ुशी पूरे दिल से अपना लेते हैं।
हमारे यहां मोहब्बत लोगों के चाल-चलन को तौलने का भी एक औज़ार है। अक्सर ऐसे लोग मिल जाएंगे जो किसी की शख़्सियत की बख़िया उधेड़ते हुए कहते हैं कि फ़लानी या फ़लाने ने अपने ज़माने में “मोहब्बत की शादी” की थी। अब अगर बेटा या बेटी उसी राह पर है तो कौन सी अनोखी बात है। अगर उनकी माने तो शायद शादी मोहब्बत के लिए नहीं नफ़रत के लिए की जाती है!
वैसे हमारे यहां अलाने-फ़लाने से रंग-रूप, जाती-धर्म, परिवार समाज के नाम पर जितनी चाहे नफ़रत की जा सकती है ……………..बल्कि सरे आम फ़्री स्टाईल में अपनी नफ़रत का मुज़ाहरा भी करने की ख़ामोश इजाज़त है………और शर्तिया कोई भी ऐसा करने वालों के पीछे डंडा लेकर नहीं जाएगा…………….(कभी कभी पुलिस को छोड़ कर) लेकिन अगर किसी ने सरेआम मोहब्बत करने की गुस्ताख़ी की तो ऐसे लोगों को डंडे के साथ गोली भी खाने के लिए मिल सकती है………………(क्योंकि तहज़ीब के ऑफ़िशियली ठेकेदारों के साथ-साथ ख़ानदान वाले भी ऐसा करने का “ख़ुदाई” हक़ रखते हैं।)
इस लिए ख़याल रखें……………… नफ़रत चाहे तो जी भर के करें, जितनी चाहें करें………………लेकिन मोहब्बत सोच समझ कर करें……………”यारी भले से ईमान है” लेकिन जनाब,
“जान है तो जहान है।”
कहा सुना माफ़ और आप सब को हैप्पी यौम-ए-मोहब्बत डे……………….
सदफ़ नाज़
संपर्क-sadaf.naaz2009@gmail.com
बहुत बढ़िया लिखा सदफ़, बधाई