अमृत रंजन जब पुणे में पांचवीं कक्षा में पढता था तब से जानकी पुल पर उसकी कविताएँ, उसके लेख, उसकी डायरी के अंश छपते रहे हैं अब वह आयरलैंड में है तब भी हिंदी में लिखने का उसका जूनून बाक़ी है. उसकी कविताओं में पहले जो एक बालसुलभ जिज्ञासा थी अब उसकी कविताओं में एक बेचैन सी प्रश्नाकुलता है और अब इन कविताओं में किशोर उम्र की संवेदना सहज रूप से आई है. पढ़कर बताइयेगा- मॉडरेटर
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बहाना
मैंने तुम्हें गले लगाना चाहा,
लोगों ने कहा बेवकूफ़ी है।
इसलिए मैंने ऐसा न किया।
मैं तुम्हें एक पत्र लिखना चाह रहा था,
जिसमें मेरे प्यार के जादू से
शब्द एक दूसरे से पहले आने के लिए लड़ें।
लेकिन मेरी कलम में स्याही न बच गई थी।
इसलिए ऐसा न कर पाया।
मैं तुम्हें प्यार लौटाने को पूछने वाला था,
लेकिन मेरे अल्फ़ाज़ों ने सलाह दी –
ऐसा न करूँ।
मैंने अपनी आवाज़ को समझाने की कोशिश की
लेकिन तुम्हें सड़क पर मेरे बगल से गुजरते हुए सुनकर,
वह चुप पड़ गई।
आज बोल रही है, न जाने क्यों।
आज कलम में स्याही आ गई।
आज लोगों ने भी हाँ कर दी।
लेकिन मैं जान गया
यह प्यार नहीं है।
इसलिए मैंने तुम्हें अपने बगल से गुजरने दिया।
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क्या तुम बस एक शाम की बरसात थी?
क्या तुम बस एक शाम की ही बरसात थी?
क्या तुम बस वही पहली बारिश की दुआ थी?
एक रात बरस कर
अगले ही दिन
फिर बादलों की ऊँचाई बन गई?
आश्चर्य है!
मैंने खुद को भींगने क्यों दिया।
तुम्हारी इन बूँदों ने
मेरी आँखें चमका दीं।
तुम्हारे बादल ने मेरे चाँद को घेर लिया।
मुझे अपनी सोच, अपने पानी में भिगो दिया।
मैं कुछ नहीं कर पाया।
और अब,
जब तुम मेरी तरफ आ रही हो,
एक और वैसी शाम की घेर बनकर।
मैं जल्दी से छाता खोलता हूँ।
लेकिन जैसे ही तुम्हारी बूँदें
पट-पट मेरे छाते को भिंगोती हैं,
मुझसे छाता हटाए बिना रहा नहीं जाता।
क्या तुम बस एक शाम की बरसात थी?
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मौसम
मेरे मन के बगीचे से
हर दिन एक फूल तोड़ ले जाती हो।
हर दिन मैं तुम्हें
एक नई खुशबू देता हूँ,
हर दिन नया रंग देता हूँ।
जब सब खत्म हो जाए
तो तुम कहते हो –
कुछ दिया ही कहाँ है
तुमने मुझे?
आखिर समझते क्यों नहीं,
मैं मौसम पे चलता हूँ,
तुम पर नहीं।
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कुछ सुनाई दिया?
वही गहरी रात थी।
यह रात पूरी ज़िंदगी मुझे छेड़ते आई है।
सब काला था,
लेकिन पड़छाइयाँ दिखाई पड़ रही थीं।
मेरे बगल में रेडियो और एक पत्थर बैठे हुए थे।
रेडियो बोले जा रहा था और
पत्थर शांत बैठा पड़ा था।
एकांत रात को खींचे जा रही थी।
ऐसा लग रहा था,
रात ख़त्म नहीं बढ़ती जा रही है।
बरामदे में बैठे लग रहा था,
पूरी दुनिया इस रेडियो को सुन पा रही होगी।
पत्थर अभी भी कुछ न बोल पा रहा था।
मैंने गुस्से में उसे फेंका और
रंग बदलते हुए वह उड़ गया।
शायद नीचे नहीं गिरा।
मैंने घर जाना सोचा और
रेडियो उधर छोड़ दिया ताकि
दुनिया सुनती रहे।
लेकिन जैसे ही मेरे पीछे दरवाज़ा बंद हुआ
मैं वह घरघराहट सुन नहीं पाया।
Well written Amrit…especially mousam is so true…truly a poet…keep growing n keep writing. Waiting to see few more.
vahh! bahot hi badiya..