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साहिर के नाम से गीत लिखने वाले जाँ निसार अख़्तर का आज जन्मदिन है

जाँनिसार अख्तर की तीन जन्म तारीखों का उल्लेख आता है- 8 फ़रवरी, 14 फ़रवरी और तीसरी तारीख आज की है यानी 18 फरवरी. जाँनिसार अख्तर का व्यक्तित्व बहुत मिथकीय था. उनके बारे में मजरूह सुल्तानपुरी ने बार-बार कहा था कि उन्होंने साहिर लुधियानवी के नाम से फिल्मों में गीत लिखे थे और इस बात को उर्दू के बहुत लोग मानते हैं कि पैसों के लिए उन्होंने साहिर के लिए गीत लिखे थे. उनके परदादा फज्ले हक़ खैराबादी ने ग़ालिब का दीवान सम्पादित किया था और उनके पिता रियाज़ खैराबादी भी उर्दू के मशहूर शायर थे. उनके बेटे जावेद अख्तर के बारे में कुछ बताने की जरुरत तो है ही नहीं. आज उनके ऊपर बहुत रोचक लेख लिखा है दिव्या विजय ने- संपादक

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लखनऊ स्कूल ऑफ़ उर्दू के अज़ीम शायर जाँ निसार अख़्तर बहुत जल्दी ज़ुबाँ पर चढ़ जाने वाले गीतों के लिए जाने जाते हैं। उनका मानना था कि मुश्किल शब्दावली एक धुंधलका-सा बना उसके पीछे कुछ दिखाने की कोशिश करती है जबकि वहाँ कुछ है ही नहीं। हालाँकि उन्होंने बहुत ज़्यादा फ़िल्मों के लिए नहीं लिखा पर अपने वक़्त के सभी ख्यात संगीतकारों के साथ काम किया। सी. रामचंद्र, नौशाद, ओ. पी. नय्यर के साथ उनकी जोड़ी ने कमाल किया। देव आनंद पर फ़िल्माया ‘सी आई डी’ (1956) का गीत आँखों ही आँखों में इशारा हो गया // बैठेबैठे जीने का सहारा हो गया उनकी हिन्दी ज़ुबाँ पर असाधारण पकड़ दिखाता है। ट्यून के साथ-साथ गीत के बोल भी पैपी और कैची हैं। यूँ तो जॉनी वॉकर पर पिक्चराइज़्ड गीतों में सर जो तेरा चकराये ही पहले-पहल याद आता है पर अख़्तर साहब का लिखा फ़िल्म ‘छू-मंतर’ (1956) का ग़रीब जान के हमको न तुम मिटा देना // तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना भी रफ़ी और जॉनी वॉकर की जोड़ी के लिए जाना जाता है।

हमेशा सिगरेट पीते और उसके धुँए के छल्लों में देखते-सोचते गंभीर अख़्तर साहब को जहाँ हम ‘रज़िया सुल्तान’ (1974) के ख़य्याम के संगीत से सजे मशहूर और सोज़ भरे गीत ! दिल ए नादाँ के लिए याद करते हैं वहीं दूसरी ओर उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी ग़ज़ब का था। उनकी कॉमिकल साइड किशोर कुमार के लिए लिखे युगल गीत में दिखती है मैं बांगाली छोकरा करूँ प्यार को नोमोश्कारम् // मैं मद्रासी छोकरी मुझे तुमसे प्यारम्, फ़िल्म ‘रागिनी’ (1958)। अपने फ़िल्मी करियर में उन्होंने मीना कुमारी और प्रदीप कुमार की बहुचर्चित मूवी ‘बहू बेगम’ (1967) भी प्रोड्यूस की थी हालाँकि इसमें गीत उन्होंने साहिर लुधायनवी से लिखवाये।

जाँ निसार अख़्तर की लिखी शायरी की किताबों में सबसे अज़ीम ‘ख़ाक-ए-दिल’ का नाम लिया जाता है पर यहाँ मैं उनकी एक और किताब ‘घर आँगन’ का ज़िक्र करूँगी। आम तौर पर शायरी का ताल्लुक़ संयोग और वियोग के वक़्त से ही होता है। संयोग और वो भी शादी वाले संयोग पर शायरी न के बराबर हुई है। अख़्तर साहब की ‘घर आँगन’ मियाँ-बीवी की शायरी है, दोनों का संवाद शायरी में पेश किया गया है।

अख़्तर साहब किस क़दर क़ाबिल थे इस पर दो दिलचस्प क़िस्से मुझे याद आते हैं। एक दफ़े प्रसिद्ध गायिका बेगम अख़्तर एक घर में किसी प्राइवेट महफ़िल के लिए गा रहींं थीं। अभी उन्होंने दो ही ग़ज़ल गायीं थीं कि उन्हें जाँ निसार अख़्तर साहब उस घर में प्रवेश करते दिखे। उन्होंने मेज़बान से महफ़िल में एक छोटा-सा ब्रेक अनाउंस करने की इल्तजा की। इंटरवल में बेगम अख़्तर ने मेज़बान से कहा कि मैं आपकी गुज़ारिश की गयी सभी ग़ज़लें गाऊँगी पर आज तक मैंने जाँ निसार अख़्तर साहब की कोई ग़ज़ल नहीं गायी। आप उनकी ग़ज़ल के कोई चार शेर मुझे दें, मैं बस इसी ब्रेक के दौरान नयी धुन तैयार कर गा दूँगी। इस पर मेज़बान मोहतरमा सीधे अख़्तर साहब के पास जा पहुँची और सब वाक़िया सुना उनसे उनकी लिखी अपनी पसंद की ग़ज़ल पूछी। जाँ निसार अख़्तर ने कहा कि जब बेगम अख़्तर इतनी क़ाबिलियत रखती हैं कि अभी के अभी वे धुन बना मेरी ग़ज़ल गायेंगी तो फिर मैं भी अभी के अभी ही उनके लिए नयी ग़ज़ल लिखूँगा। और फिर यह ग़ज़ल उन्होंने वहीं के वहीं लिख डाली-

सुब्ह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किस के घर जाएँ कि इस वादा-शिकन को भूलें

आज तक चोट दबाए नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संग-बदन को भूलें

अब सिवा इस के मुदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जाएँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें

औरत हज़ीब-ए-ग़म-ए-इश्क़ निभा दें कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

उनसे जुड़ा एक और क़िस्सा नौशाद साहब के साथ हुआ जब एक फ़िल्म के गीत के लिए उन्हें सिचुएशन दी गयी कि एक मंदिर का ग़रीब पुजारी अपनी बेटी ब्याहना चाहता है पर पैसे की फ़िक्र से मजबूर उसके दिल में भगवान की मूर्ति के गहने चुराने का ख़याल आ जाता है। इस पर गीत लिखने से पहले फ़िल्म के डायरेक्टर ने अख़्तर साहब से कहा कि किसी पुराने कवि का कोई नीति दोहा आप याद कर गीत में जोड़ दें तो गीत में और ड्रामा पैदा हो जायेगा। अख़्तर साहब ने तुरंत एक दोहा पढ़ा –

पाप के कारण जाये अकारथ पूजा भक्ति जाप
पाप में अपना स्वार्थ न हो तो पाप नहीं है पाप

यह सुनते ही निर्देशक उछल पड़ा और पूछने लगा कि किस कवि का है, इस पर सिगरेट पीते अख़्तर साहब बोले मैंने अभी ही सोचा और आपको सुना दिया।

यूँ तो सभी के पास उनकी लिखी शायरी का अपना पसंदीदा शेर होगा पर यहाँ इस शेर में लफ़्ज़ों की सादगी देखिए –

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है

 
      

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