1930 के दशक के आखिरी वर्षों में ‘हंटरवाली’ के नाम से मशहूर नादिया को एक तरह से हिंदी सिनेमा की पहली आधुनिक अभिनेत्री कहा जा सकता है. इस शुक्रवार रिलीज होने वाली विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘रंगून’ उसी के जीवन से प्रेरित है. फिल्म में कंगना रानाउत का जो कैरेक्टर है उसमें नादिया की झलक मिलती है और इसी वजह से फिल्म के ऊपर मुकदमा भी हुआ है. आज नादिया की दिलचस्प कहानी दिव्या विजय ने लिखी है- संपादक
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इस शुक्रवार विशाल भारद्वाज की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘रंगून’ रिलीज़ हो रही है. यह फिल्म गुलज़ार के गीतों और कंगना के लुक के लिए पहले से चर्चा में है. अब यह फिल्म अपने रिलीज़ से ठीक पहले कानूनी झमेले में फँस गयी है. हालंकि विशाल भारद्वाज आरोपों को सिरे से नकार रहे हैं पर ‘वाडिया मूवीस्टोन’ के निदेशक रॉय वाडिया का दावा है कि फिल्म में कंगना का किरदार तीसवें दशक की अभिनेत्री ‘मैरी एन एवंस’ उर्फ़ ‘फीयरलेस नादिया’ से प्रेरित है.
नादिया तीसवें दशक की प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं और हिंदी सिनेमा की ‘लीजेंड’ कहलाती हैं. १९३५ नादिया ने फिल्म जगत में खलबली मचा दी थी. ये वे दिन थे जब स्त्रियों का फिल्मों में काम करना आपत्तिजनक माना जाता था. स्त्रियों के किरदार पुरुषों द्वारा निभाए जाते थे. जो गिनी-चुनी स्त्रियाँ फिल्मों में काम करतीं थीं वे अधिकतर निचले तबके की होतीं थीं. यह दृश्य १९३१ में ‘फरेबी जाल’ की अभिनेत्री दुर्गा खोटे के आने से बदला जो शिक्षित भी थीं और उच्च वर्ण की भी. उन्होंने अपने पति की असमय मृत्यु की कारण आत्मनिर्भरता की खोज में फिल्मों का रुख किया था. लेकिन दुर्गा खोटे, देविका रानी जैसी अभिनेत्रियाँ स्त्रियों को उनके पारंपरिक रूप में ही पेश कर रही थीं. पति की आज्ञाकारिणी और परिवार के सब कुछ त्याग देने वाली स्त्रियाँ अपनी नैतिकता के घेरे से बाहर नहीं आती थी. वहीं स्त्रियों के रोने-धोने वाले, शील के आवरण में लिपटे रूप से ठीक उलट ‘एंग्री यंग वुमन’ नादिया का आगाज़ हुआ जिसें स्त्रियों की रूढिगत छवि को हिला कर रख दिया. खिडकियों से कूदने वाली, फानूसों पर झूलने वाली, चट्टानों से बगैर डरे कूद जाने वाली, जंगली जानवरों को पालतू बना लेने वाली और पुरुषों को उठा कर पटक देने वाली नादिया ने आते ही दर्शकों को अभिभूत कर दिया. गरीबों और मजलूमों की मददगार..अपने समय की ‘फीमेल रॉबिनहुड’ कहलाने वाली नादिया ये सारे स्टंट बिना किसी सुरक्षा के स्वयं किया करती थी और यह उनकी प्रसिद्धि का बड़ा कारण था. ऐसे स्टंट्स जिनको करने में पुरुष भी एक बार हिचकते थे, नादिया उन्हीं खतरनाक करतबों को जिस आसनी से करती थीं वो देखने वालों के लिए हैरतंगेज़ होता था.
यही समय था जब फिल्म निर्माताओं ने भारत के लोगों की बदलती नब्ज़ पहचान ली थी. स्त्री धार्मिकता और पवित्रता के बंधनों में जकड़ी हुई थी. एक तरफ जहाँ वो इन बेड़ियों को तोड़ने के लिए छटपटा रही थी वहीँ अब आम व्यक्ति भी अपनी कल्पनाओं की तुष्टि के लिए स्त्री को अलग रूप में देखना चाहता था. ऐसे में निर्माताओं ने बीच का रास्ता निकाला जहाँ किसी प्रकार के विद्रोह की आशंका भी न रहे और समाज में उस दौरान प्रचलित आदर्शों को नुकसान भी न पहुंचे. ऐसे में स्त्रियों को ‘एक्शन-हीरोइन’ के रूप में पेश करना सरल रास्ता था. खलनायक से अकेले अपने दम पर टक्कर लेने वाली ये नायिकाएं बदलते भारत का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. द्वितीय विश्व-युद्ध के आगाज़ के साथ फैले घने कुहासे में नादिया एक चमकीला स्तम्भ थी. अंग्रेजों के अधीन भारत में एक गोरी चमड़ी की स्त्री को फिल्मों में गरीबों की तरफ से लड़ते देखना चमत्कारी था.
मैरी एन एवांस स्कॉटिश पिता और ग्रीक माता की संतान थीं. नीली आँखों वाली यह सुंदरी आरम्भ में गायिका और नृत्यांगना बनना चाहती थी. उनके पिता की पोस्टिंग मुंबई होने के करण यह परिवार १९१२ में मुंबई आ गया मगर ब्रिटिश आर्मी में कार्यरत अपने पिता को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान खो देने के पश्चात् मैरी अपनी माँ के साथ पेशावर आ गयीं. कालांतर में वह पुनः मुंबई आ गयीं. वापस आकर मैरी ने सेल्स गर्ल से लेकर थिएटर और सर्कस तक में काम किया. फिर वह एक रूसी नृत्यांगना की मंडली में शामिल हो गयीं जिसके साथ वो पूरे देश में घूम-घूम कर कार्यक्रम देतीं और यही मंडली फिल्मों में उनका प्रवेश-द्वार बनी.
‘वाडिया मूवीस्टोन’ के मालिक जमशेद वाडिया जब उनसे पहली बार मिले तब के कुछ किस्से खासे प्रचलित हैं. बिला शक वाडिया, मैरी (जो तब तक एक ज्योतिषी की सलाह पर अपना नाम नादिया रख चुकीं थीं) की खूबसूरती से मुतअस्सिर हुए पर उनके अभारतीय नाम और लुक्स पर उन्हें संदेह था. इसलिए उन्होंने नादिया को अपना नंदा देवी रखने के लिए और काले बालों का विग पहनने के लिए कहा जिसे नादिया ने सिरे से यह कहते हुए नकार दिया कि न तो ये मेरे कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा है न मैं देवी हूँ. यह एक किस्सा आत्मविश्वास से लबरेज़ व्यक्तित्व की बानगी पेश करता है. जमशेद वाडिया ने जब कहा कि उन्होंने आज तक नादिया का नाम नहीं सुना तो उस पहली मुलाक़ात में ही नादिया ने पलट कर कह दिया कि नाम तो मैंने भी आपका नहीं सुना है. अपने सारे संदेहों के बावजूद जमशेद उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके और उन्होंने नादिया को ‘देश दीपक’ में गुलाम लड़की का छोटा-सा किरदार दिया जो देशभक्त भी थी. तीन मिनट के इस रोल में नादिया ने अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी. कम कपड़ों में लिपटी गुलाम की फ़रोख्त के वक़्त नीलामीकर्ता द्वारा उसके शरीर का विवरण और तंग चोली पर कैमरा का फोकस सारे दर्शकों को याद रह गया. उसके बाद नादिया ने ‘नूर-ए-यमन’ में प्रिंसेस पेरिजाद’ का किरदार निभाया.
स्त्रियों के आज्ञाकारी और विनम्र किरदारों को नापसंद करने वाले जमशेद वाडिया ऐसी फ़िल्में बनाना चाहते थे जो स्त्रियों के सामर्थ्य और शक्ति पर बल दे. टॉम मिक्स और फ्रांसिस फोर्ड जैसे आदर्श रखने वाले वाडिया ने नादिया को देसी स्टंट क्वीन बनाने का निर्णय लिया और फिर आई ‘हंटरवाली’ जिसके बाद नादिया ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. नकाब पहने, चाबुक चलाती और तलवारबाजी करती विदेशी लहज़े में अंग्रेजी बोलती नायिका ने हिंदी फिल्मों के समीकरण बदल दिए. दर्शकों ने उसे हाथोंहाथ लिया. इसके बाद तो ऐसी फिल्मों की लाइन लग गयी. ‘जंगल का जवाहर’, ‘मिस फ्रंटियर मेल’ ‘डायमंड क्वीन’, ‘हरिकेन हँसा’, लुटारू ललना’, ‘बम्बई वाली’ ‘जंगले प्रिंस’ में फिल्म दर फिल्म वह स्त्रियों के दासत्व, भ्रष्टाचार, शोषण आदि अन्यायपूर्ण कृत्यों के खिलाफ अकेले लडती रही. नादिया का भारी शरीर जहाँ एक तरफ उसके स्टंट में मदद करता था वहीँ आदमियों को आनंद देता था. पर इसका एक नकारात्मक पहलू यह रहा कि नादिया को कभी गंभीर अभिनेत्री नहीं माना गया. उनके दर्शकों में बड़ा हिस्सा निचले तबके के पुरुषों का रहा जो उन्हें देख अपनी फंतासीयों को पूरा करता रहा.
‘श्याम बेनेगल’ भारत को पहला ‘एंग्री यंग मैन’ देने का श्रेय नादिया को देते हैं. सत्तर के दशक में अमिताभ जो हुए उसकी शुरुआत बहुत पहले नादिया कर चुकीं थीं. बेशक अमिताभ ने एंग्री यंग मैन की धारणा को को और पुष्ट लिया पर सच यही है कि से अमिताभ के लिए लिखे गए किरदार कहीं न कहीं नादिया के निभाए किरदारों से प्रेरित थे. न सिर्फ अमिताभ बल्कि ‘मदर इंडिया’ की नर्गिस, ‘शेरनी’ की श्रीदेवी, ‘ज़ख़्मी औरत’ की डिंपल जैसे किरदारों की ज़मीन भी नादिया तैयार कर चुकीं थीं.
फिल्म पत्रकार बी.के. करंजिया जो ‘फिल्मफेयर ‘ और ‘स्क्रीन’ के संपादक रहे हैं उन्होंने टिपण्णी की थी, “स्टंट के लिए नादिया वही हैं जो सेक्स के लिए जेन रसेल.” (जेन अपने समय की सेक्स सिंबल कही जाती थीं.) ये स्टंट मात्र शारीरिक भिडंत या मुठभेड़ नहीं थे. ये कई आंदोलनों-वादों की नींव थे. १९४० की बेहद सफल फिल्मों में शुमार था रिवेंज-ड्रामा ‘डायमंड क्वीन’ का. उस फिल्म का एक संवाद आज भी उतना ही मौजूं है, “अगर भारत को आज़ादी चाहिए तो पहले औरत को आज़ादी देनी होगी. अगर औरत को रोका जायेगा तो उसके परिणाम भुगतने होंगे.” १९७० में यह फिल्म देखने के बाद लेखिका ‘नसरीन मुन्नी कबीर’ ने कहा था कि वो यह संवाद मरते दम तक नहीं भूल पाएंगीं.
हिंदी सिनेमा के इतिहासकारों ने बरसों तक नादिया को भुलाये रखा गया और जिस मान-सम्मान के वह योग्य थीं उससे उन्हें वंचित रखा गया. हालांकि १९९३ में जमशेद वाडिया के पोते ने एक वृत्तचित्र के माध्यम से हिंदी सिनेमा में उनके योगदान से दुनिया को अवगत कराया जिसने दुनिया भर का ध्यान उनकी तरफ खींचा. ‘एंजेलीना जोली’ ने शाहरुख़ खान से अपनी इच्छा का ज़िक्र किया था कि अगर उन्हें मौका मिला तो वो नादिया का किरदार निभाना चाहेंगीं.
‘फिअरलेस’ उपनाम उनके पति होमी वाडिया (जमशेड वाडिया के भाई और उनकी कई फिल्मों के निर्देशक) ने उनके साहस को देखकर दिया था. नादिया किसी स्टंट को करते हुए डरती नहीं थीं. जिस बेफिक्री और बेपरवाही से वह अपने स्टंट्स को अंजाम देती रही वो लोगों को अचंभित करता था. पहली मुलाक़ात में जमशेद ने नादिया से पूछा था कि आपकी योग्यता क्या है और नादिया ने उसी ठाठ से जवाब दिया था कि ज़िन्दगी में कम-अज़-कम एक बार तो वह सारे प्रयोग करने को तैयार हैं. उन्होंने न सिर्फ ऐसे देश में अपनी जगह बनायीं जहाँ उन्होंने जन्म नहीं लिया, जहाँ की भाषा से वह अनजान थीं बल्कि उन्होंने ये सब अपनी शर्तों पर…खुद को बिना बदले किया. नादिया असल मायनों में ‘फिअरलेस’ थीं.