उदय प्रकाश हिंदी के कवि बताये गए सारे कवियों से अधिक क्रिएटिव और समकालीन हैं. उनकी कविताओं में अपनी आवाज सुनाई देती है. नई सदी में उन्होंने हिदी कविता को एक नया मुहावरा दिया है. मातृभाषा दिवस के दिन उदय प्रकाश की इस कविता से अच्छा क्या पढना होगा- मॉडरेटर
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एक भाषा हुआ करती है
एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ ‘आँसू’ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार
एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएँ और क्रांतिकारी सब शरमाते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं
बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती,
गाती-बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूँखार,
सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा,
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा,
वह भाषा जिसे वक्त जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंड़ुए, रंडियाँ और कुछ जुनूनी नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ
‘ईश्वर’ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध
जिसमें पान की पीक है, बीड़ी का धुआँ, तंबाकू का झार,
जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के महँगे
लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय अखबार
सिफत मगर यह कि इसी में चलता है
कैडबरीज, सांडे का तेल, सुजूकी, पिजा, आटा-दाल और
स्वामी जी और हाई साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाजार
एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीने वाले
सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के
आँसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बाँटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिटि्ठयाँ
वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश
और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है
इस दुनिया का समूचा सूचना संजाल
आत्मा के सबसे उत्पीड़ित और विकल हिस्से में जहाँ जन्म लेते हैं शब्द
और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूँगे कुएँ में डूब जाते हैं चुपचाप
अतीत की किसी कंदरा से एक अज्ञात सूक्ति को अपनी व्याकुल थरथराहट में थामे लौटता है कोई जीनियस
और घोषित हो जाता है सार्वजनिक तौर पर पागल
नष्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ की स्मृति
नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद
भविष्य भर के लिए अंधा हो जाता है
सिर्फ हमारी नींद में सुनाई देती रहती है उसकी अनंत बड़बड़ाहट…
मंगल… शुक्र… बृहस्पति…
सप्तर्ष… अरुंधति… ध्रुव…
हम स्वप्न में डरे हुए देखते हैं टूटते उल्का-पिंडों की तरह
उस भाषा के अंतरिक्ष से
लुप्त होते चले जाते हैं एक-एक कर सारे नक्षत्र
भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ
वर्जित हैं विचार
वह भाषा जिसमें की गई प्रार्थना तक
घोषित कर दी जाती है सांप्रदायिक
वही भाषा जिसमें किसी जिद में अब भी करता है तप कभी-कभी कोई शंबूक
और उसे निशाने की जद में ले आती है हर तरह की सत्ता की ब्राह्मण-बंदूक
भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे, चाकर टाँगते हैं तमगे
जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं
किसी अफसर या हुक्काम या किसी पंडे के सफेद दाँत और
तमाम मठों पर नियुक्त होते जाते हैं बर्बर बुलडॉग
अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और
अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी राष्ट्रीय अखबार या
मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नई पांडुलिपि
यह वही भाषा है जिसको इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी, कोई तिजारती, कोई फिरंग
अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौंदता
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में
और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षो तक आर्तनाद
सुनो दायोनीसियस, कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल, एक अपराजेय हत्यारे
हर छठे मिनट पर तुम काट देते हो इस भाषा को बोलने वाली एक और जीभ
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों, गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के
तुम स्वामी हो अंतरिक्ष में तैरते कृत्रिम उपग्रहों, ध्वनि तरंगों,
संस्कृतियों और सूचनाओं
हथियारों और सरकारों के
यह सच है
लेकिन देखो,
हर पाँचवें सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी
और
कहता है – ‘माँ’ !