अविनाश दास द्वारा लिखित-निर्देशित फिल्म ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ को जिस तरह से दर्शकों का प्यार मिला है वह असाधारण है. यह पत्र शाजापुर के एक दर्शक ने निर्देशक के नाम भेजा है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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(एक प्रशंसक ने अविनाश दास को भेजा एक पत्र, जो किसी बड़े-से-बड़े निर्माता या निर्देशक को शायद ही नसीब होता हो।)
*इश्क वाला आदाब अर्ज है*
आदरणीय भाई साहब
नमस्ते।
मैंने कल फिल्म “अनारकली आॅफ आरा” देख ली। आपसे बात कर ली। और जैसी बन सकी, वैसी समीक्षा भी लिख डाली। घर में सबसे बात कर ली। दोस्तों से भी कह दिया -देख डालो।
ऐसी फिल्में हर साल नहीं बनतीं। लेकिन अब भी फिल्म का जादू नहीं उतरा। रह-रहकर याद आ जाती है। लगता है- ये था, अरे यह भी तो था।
सचमुच बड़ी सच्ची और हमदर्द सरीखी फिल्म है। ऐसा महसूस हो रहा है कि देखने के बाद से आज बेहतर इंसान हो गया। दिल में दर्द के लिए अधिक जगह हो गयी है और आंखों में सम्मान बढ़ गया है। फिल्म का संगीत मन में घुल गया है। लोक के प्रति, उनके राग रंग के प्रति अनुराग बढ़ गया है।
फिल्म में यह जो विश्वविद्यालय आ गया है, उसके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से आजीवन ऋणी रहूंगा।
मैं लगभग छह साल नियमित और आगे के चार साल यदा कदा यूनिवर्सिटी कैंपस में रहा, भटका, घूमा और टिका हूं। यूनिवर्सिटी का कुलपति जिंदा कैरेक्टर की तरह किस फिल्म में देखा था, याद नहीं। ‘हासिल’ में कैंपस है, ‘गुलाल में भी है मगर वहां वीसी नहीं है। खास किस्म के सिनेमाई यथार्थ से ऊपर उठकर आपने उच्च शिक्षा को जिस प्रकार सामने किया है, वह एक बड़े योगदान की तरह है।
मुझे अनुमान था कि फिल्म आपने लिखी और बनायी है तो अच्छी ही होगी क्योंकि संवेदना और तलस्पर्शिता तो आपके फौरी लेखन में भी बखूबी आ जाती है लेकिन सचमुच ऐसा अंदाजा नहीं था कि फिल्म अपनी करुणा से दीवाना बनाकर रख देगी।
कहने को बहुत सी बातें हैं, लेकिन एक दृश्य याद आ गया। भागते भागते अनार के दाएं पांव की चप्पल की बद्धी निकल जाती है। बद्धी निकली एक चप्पल हाथ में लिए दूसरी पहने बाजार में आ जाती है। सीन छोटा-सा है लेकिन उस बचपन में ले गया जब मैं बद्धी लगा देने का एक्सपर्ट समझा जाता था।
कुल मिलाकर फिल्मों के माहिर लोग आपको और खूबियां बताएंगे ही। यह मेरा क्षेत्र नहीं, मैं साहित्य की बस्ती का रहनेवाला हूं। मैं सिर्फ यह दुआ करता हूं कि अब आपने जो भारतीय सिनेमा के लोक पक्ष पर दस्तक दी है तो उसमें नये नये द्वार खुलें। आपकी साधना, सफलता और उपलब्धियों के बुलंद किले बनें।
एक तरह से देखें तो यह नए हिंदी सिनेमा की शुरूआत हो सकती है। आपको पर्द पर न कार दौड़ानी पड़ेंगी, न शेर लड़ाने पड़ेंगे और न ही वर्जित अंधेरे रचने पड़ेंगे। एक सचमुच की चमकीली, सपनीली उम्मीदों से भरी दुनिया आपका प्रेम पाकर अपने ममत्व से आपको संवार भी देगी। ताज भी निस्संदेह पहनाएगी।
जो कलाकार मामूली लोगों का दुख, आशा, आकांक्षा अपने कला में पालता है, उसे कभी नहीं हराया जा सकता। मिटाना तो बहुत दूर की बात है।
आपको, पूरी टीम को, सभी देखने वालों को एक बार फिर बधाई और प्यार। अभी विद्यालय में हूं। काॅपी जांचते-जांचते ही लाल पेन से लिख बैठा। जबकि अभी आपको खूब हरे रंग में दिल से लिखा जाना चाहिए। बाकी मजे में हूं। आप भी मस्त और व्यस्त होंगे।
आपका
*शशिभूषण*, शाजापुर