आज सुबह सुबह एक कविता देवेश तनय की. 22 साल के देवेश आईआईटी मुम्बई के छात्र हैं. लिखते हैं लेकिन यह कविता तो कमाल है. अपनी कल्पनाशीलता, अपने वर्णन में. पढ़कर बताइयेगा- मॉडरेटर
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पेंटब्रश और सेब
मेरे बचपन के दिनों में
पेंट ब्रश मेरा सबसे अजीज़ दोस्त था
सफ़ेद कोरे काग़ज़ों से क़रीबी रिश्तेदारी थी
रंगों की जेब में खुशियाँ टटोलना
मेरा पहला शगल था
तमाम रंग मेरे ख्वाबों में आते थे
और पलकों पर करिश्माई जादू बिखेर जाते थे
कभी -कभी संतरों के छिलकों से नारंगी रंग महकता था,
कभी -कभी पीसी हुई हल्दी का शगुन रंग
रोचना बनकर मेरे माथे पर दमकता था,
हरा रंग तो मैंने तब से पहचानना शुरू कर दिया था
जब से आँगन में तुलसी का पौधा देखा था,
बैंगनी रंग का सबसे मीठा अहसास तब हुआ
जब पहली बार जामुन ज़ुबान पर रखा था,
भूरे रंग की पहचान करवाते समय पिता ने
गाँव की मिट्टी मेरे माथे पर लगा दी थी,
काले -सफ़ेद का कलर कॉम्बिनेशन उस दिन बेहद ख़ूबसूरत लगा था
जब माँ में पहली बार पूरनमासी का चाँद दिखाया था
और मैं आहिस्ता-आहिस्ता
सभी रंगों की रंगीन बाहें थामकर
ज़िंदगी की तस्वीरों तक चला आया
कुछ तस्वीरें बनानी थीं मुझे
जिनमें
आइसक्रीम खाती हुई एक नटखट बच्ची का
शरारत भरा चेहरा बनाना था
ऑफिस से लौटते हुए बोझिल जिस्मों में भरी हुई
थकावट का चित्र बनाना था ,
टपरी पर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए
मौसमों के अनकहे दृश्य खींचने थे ,
ट्रेन की वो खिड़कियाँ बनानी थीं
जिनमें खोने -बिछड़ने की दास्तान गोई लिखी हुई है,
उस चूल्हें में आग के रंग भरने थे
जो बरसों से जला ही नहीं,
दर्द की पेंसिल से उस आदमी का
कच्चा स्केच तैयार करना था
जिसके पेट और पीठ मिलकर
पतली दीवार सरीखें हो गये हैं,
कलकत्ता के कुछ दृश्य भी दिखाने थे मुझे
जिनमें आदमी , आदमी को खींचता है,
गर इन तस्वीरों को बनाने से फुरसत मिल गयी तो
कुछ और भी तस्वीरें थीं
जिनमें
“ग़ालिब” के वो अँगूरी होंठ बनाने थे
जिसमें ग़ज़लों की तासीर अब तक जिन्दा है,
“हरिप्रसाद चौरसिया” की वो उँगलियाँ बनानी थीं
जो बाँसुरी बजाते हुए सलीके से गिरती-उठती हैं,
“भीमसेन जोशी” की वो आँखें बनानी थीं
जो सितार की लय में लीन हो जाती हैं,
“बिरजू महाराज” के वो पाँव बनाने थे
जिनमें घुघरूओं के स्वरों की अनगिनत भंगिमायें हैं
यही सब सोचते-समझते मैं बड़ा हो गया
मैंने जैसे ही अपने हाथों में
“पिकासो” का पेंट ब्रश लेने की कोशिश की
किसी ने मेरे सिर पर
“न्यूटन” का सेब गिरा दिया
और मैंने सेब का भार
ख़ुद को पहचाने बगैर हँसकर उठा लिया
अब मेरे अंदर रंगों के आकर्षण से ज़्यादा
अंकों का गुरुत्वाकर्षण ज़िंदा है