अनन्त विजय विचारोत्तेजक लेख लिखते हैं, हिंदी की भावना, संवेदनाओं को जगा देते हैं. यह लेख बहुत अच्छी तरह से इस बात को सामने रखता है कि अदालतों का कामकाज देशी भाषाओं में हो इसके लिए क्या प्रयास हुए हैं और हाल में किस कारण से ऐसा लग रहा है कि यह संभव भी है- मॉडरेटर
===============================
दो हजार चौदह में जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्र में आई है तब से हिंदी को लेकर एक खास तरह के उत्साह का माहौल देखने को मिल रहा है। दो हजार चौदह में ही केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों को अन्य भाषाओं के साथ हिंदी में भी जानकारी जारी करने का आदेश दिया गया था। केंद्र सरकार की सूचनाएं हिंदी में उपलब्ध भी होने लगीं। वो हिंदी कैसी हैं इस पर बाद में विचार किया जा सकता है। हिंदी के उपयोग को लेकर उत्साह का माहौल है लेकिन इसमें सरकारी कामकाज और रोजगार की भाषा बनाने की दिशा में अभी बहुत ठोस कदम उठाने की जरूरत है। आजादी के सत्तर साल बाद भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं में काम-काज नहीं हो पा रहा है। कई बार हाईकोर्ट में स्थानीय भाषाओं में सुनवाई और फैसलों का प्रस्ताव सामने आया लेकिन वो योजना परवान नहीं चढ़ पाई और इन अदालतों में अब भी अंग्रजी में ही कामकाज हो रहा है।
अब इस दिशा में भी कुछ हलचल नजर आ रही है। भारतीय जनता पार्टी के महासचिव और सांसद भूपेन्द्र यादव ने देश के पिछले सप्ताह उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की स्वतंत्रता के लिए राज्यसभा में निजी विधेयक- उच्च न्यायालय, (राजभाषाओं का प्रयोग) विधेयक-2016 पेश किया। इस बिल में उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति, एक अधिकार के रूप में प्रस्तावित किया गया है। भूपेन्द्र यादव ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा – उच्च न्यायालयों में वादी अपनी भाषा में न्याय की गुहार लगा सके और प्रतिवादी को भी अपनी भाषा में अपनी बात रखने का अधिकार हो यह सवाल लंबे समय से उठता रहा है लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यह सर्वथा अनुचित है कि हमारे देशवासी अपने ही देश में अपनी भाषाओं में अपने उच्च न्यायालयों में न्याय की गुहार नहीं लगा सकते हैं। वर्तमान प्रावधानों के मुताबिक़ उच्च न्यायालयों की न्यायिक प्रक्रियाओं में भारतीय भाषाओं की स्वीकार्यता नहीं है और समूची प्रक्रिया अंग्रेजी में ही होती है। अगर अपनी अदालत में अपनी भाषाओं में अपनी बात रखने की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी तो यह किसी भी ढंग से निष्पक्ष न्याय मिलने के अधिकार और वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों पर खरी उतरने वाली बात नहीं कही जा सकती है जो कि हमारे देश के संविधान का मूल है। पारदर्शी ढंग से अदालती सुनवाई को सुनिश्चित करने के लिए यह अनिवार्य है कि भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायालयों में स्वीकार्यता प्रदान की जाए। अगर देश की संसद में एवं अन्य संवैधानिक कार्यों में देश की सभी भाषाओं में बोलने की स्वतंत्रता है तो फिर न्यायपालिका इससे अलग क्यों हैं? किसी को उसकी भाषा में न्याय मांगने से रोकना, यह साबित करता है कि हम स्वतंत्रता के मूल्यों को सही ढंग से अभी भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं। न्याय की गुहार से लेकर न्याय की सुनवाई एवं प्राप्ति तक की प्रक्रिया वादी-प्रतिवादी की अपनी भाषाओं में ही होनी चाहिए तभी सही मायने में न्यायिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता एवं न्याय की स्वतंत्रता को हासिल किया जा सकेगा। भारत अकेला ऐसा देश है जहां की जनता को यह अधिकार नहीं है।‘
भूपेन्द्र यादव के इस निजी विधेयक के पहले इस दिशा में एक और ठोस पहल सामने आई थी। उच्च न्यायलयों में अंग्रेजी के दबदबे को खत्म करने की दिशा में कानून मंत्रालय की संसदीय समिति ने बेहद अहम प्रस्ताव रखा था। संसदीय समिति ने देश के सभी चौबीस उच्च न्यायलयों में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कामकाज करने की सिफारिश की है। संसदीय समिति के प्रस्ताव के मुताबिक संविधान में केंद्र सरकार को इस बारे में फैसला लेने का अधिकार दिया गया है। संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में इस बात पर भी जोर दिया है कि इस मसले पर अदालतों की सलाह लेने की जरूरत नहीं है। संसदीय समिति ने न्यायिक सलाह नहीं लेने पर जोर इस वजह से दिया, लगता, है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर दो हजार बारह में गुजरात, तमिलनाडू, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के उच्च न्यायलयों में स्थानीय भाषाओं में कामकाज के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीस सौ सत्तानवे और उन्नीस सौ निन्यानबे के अपने पुराने फैसलों के हवाले से इन प्रस्तावों को खारिज किया था। पिछले दिनों भी इस मसले पर एक याचिका दायर की गई थी जिस पर उस वक्त के मुख्य न्यायधीश ने याचिकाकर्ता पर कठोर टिप्पणी की थी। अब संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि अगर संबंधित राज्य सरकारें इस तरह का प्रस्ताव देती है तो केंद्र सरकार संविधान में मिले अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए उसको लागू करने का फैसला ले सकती है। इस मसले पर संविधान में तो प्रावधान है लेकिन उन्नीस सौ पैंसठ में कैबिनेट के एक फैसले से न्यायलयों से इस बारे में सलाह लेने की परंपरा की शुरुआत हुई थी जो अबतक चली आ रही है। अब अगर केंद्र सरकार संसदीय समिति की सिफारिशों को लागू करना चाहती है तो उसको कैबिनेट के फैसले पर पुनर्विचार करना होगा। मौजूदा सरकार को इस मसले पर संजीदा रुख अख्तियार करना होगा।
अदालतों में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में कामकाज करने का विरोध यह कह कर किया जाता है कि इससे न्यायधीशों को दिक्कत होगी और उच्च न्यायलयों में किसी प्रदेश के जज को किसी भी प्रदेश में स्थानांतरण की प्रक्रिया बाधित होगी। संभव है कि ऐसा हो, लेकिन इसके लिए कोई मैकेनिज्म बनाया जा सकता है ताकि न्यायाधीशों को दिक्कत ना हो और उनके स्थानांतरण को लेकर भी प्रक्रिया बाधित ना हो। लेकिन न्यायलयों में हिंदी में काम नहीं होने पर कई बार केस मुकदमे में अदालत पहुंचे पीड़ितों को अदालत की भाषा या वहां जारी बहस समझ नहीं आती है और वो मूकदर्शक बने रहते हैं। निर्भया के मामले में भी ऐसा हो रहा था। उसकी मां लगातार सुप्रीम कोर्ट जाती थी और कई बार बगैर कुछ समझे बूझे वहां से वापस हो लेती थी। बाद में उनकी मदद की गई और उनको हिंदी में अदालती कार्यवाही समझाने के लिए एक शख्स को लगाया गया।
अगर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायालयों में कामकाज की एक भाषा बनाने का फैसला होता है तो इससे भाषा का गौरव बढ़ेगा, साथ ही ज्यादातर पीड़ितों को भी इंसाफ की भाषा समझ में आ सकेगी। भूपेन्द्र यादव के निजी विधेयक पर संसद को विचार करना चाहिए। अगर इस विधेयक पर बहस होती है तो भाषा के सवाल पर सभी दलों के नेताओं के विचार सामने आ सकेंगे। यह सिर्फ हिंदी का मामला नहीं है,यह सभी भारतीय भाषाओं से जुड़ा मसला है, लिहाजा हिंदी को थोपने जैसे तर्क भी बेमानी साबित होंगे। काफी लंबे समय से हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के सामने दुश्मन की तरह पेश करके हिंदी की राह में बाधा खड़ी की जाती रही है। यह तर्क दिया जाता रहा है कि हिंदी अगर बढ़ी को अन्य भारतीय भाषाओं को दबा देगी या उसके अस्तित्व को संकट में डाल देगी। आजादी के सत्तर साल में यह तो साबित हो ही गया है कि हमारे देश में हिंदी की वजह से किसी भी भाषा के दबे रह जाने या उसके अविकसित होने की आशंका गलत थी।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने तो काफी पहले लिखा था- हिंदी का आंदोलन सभी भाषाओं का आंदोलन है। हिन्दी यदि बढ़ी तो सभी भाषाएं बढ़ेंगी। हिन्दी यदि रोक दी गई तो देश की बहुत सी भाषाएं अवरुद्ध हो जाएंगीं। तब दिनकर ने कहा था- प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। लेकिन यह अब तक हो नहीं सका है। अंग्रेजी का दबदबा अबतक कायम है और अंग्रेजी की भाषाई औपनिवेश को कहीं से कोई चुनौती नहीं मिल पा रही है। उल्टे अब ये हो रहा है कि बोलियों को भाषा के बरक्श खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। बोलियों को भाषा बनाने के पीछे की राजनीति को भी चिन्हित किया जाना आवश्यक है। यहां एक और उदाहरण देना समीचीन होगा। बिहार में जब अदालतों की भाषा के रूप में हिंदी को भी मान्यता देने का आंदोलन शुरू हुआ था तब उस आंदोलन के सबसे प्रबल समर्थक भूदेव चौधरी थे जो उस समय स्कूलों के इंसपेक्टर के पद पर काम कर रहे थे। इसी तरह से सभी भाषाओं को देवनागरी में लिखे जाने की शुरुआत भी बंगाल में हुई थी। जस्टिस शारदाचरण मित्र बंगाली थे जिन्होंने नागरी के व्यापक प्रचार प्रसार के लिए ‘देवनागर’ नाम से एक पत्र भी निकाला था।
अगर अदालतों के अलावा भी भाषा के सवाल पर विचार करें तो हमें लगता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपनी भाषा को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए । अब वक्त आ गया है कि भाषा संबंधी ठोस नीति बने और उसको बगैर किसी सियासत के लागू किया जा सके ।
20 Jahren in der Gebäudereinigung Hamburg tätig. Als Reinigungsfirma und Dienstleister für Sauberkeit bieten wir
im Rahmen der Gebäudereinigung Hamburg ein umfangreiches Angebot für die regelmäßige
Reinigung in Ihrem Unternehmen.
Unser Reinigungsservice bietet Ihnen dabei alle wesentlichen Leistungen der
Gebäudereinigung an. Von der Grundreinigung, über die regelmäßige Unterhaltsreinigung von Büros und weiteren Einrichtungen, kümmern wir
uns auch um die Glasreinigung und Fensterreinigung. Die Treppenhausreinigung und Teppichreinigung wird
von uns ebenso übernommen, wie die Fassadenreinigung
und die Beseitigung hartnäckiger Verschmutzung im Außenbereich.
Unsere Reinigungsmittel werden dabei immer mit Rücksicht auf die Umwelt ausgewählt und maßvoll
eingesetzt, ohne dabei Einbußen bei dem Ergebnis in Kauf nehmen zu
müssen. Wir kommen mit Zuverlässigkeit der Büroreinigung
und Glasreinigung nach und sorgen für saubere und gepflegte Räumlichkeiten, sodass nachBeendigung unserer Reinigung sämtliche Verschmutzungen beseitigt sind.
Kompetente und schonende Gebäudereinigung Hamburg trägt zu einem angenehmen Arbeitsklima bei und ist so auch ein Baustein Ihres Erfolgs.
Gepflegte Gebäude und Büros sind wesentliche Merkmale in der
Darstellung eines Unternehmens. Sie vermitteln Ihren Gästen und Geschäftspartnern gleich einen positiven Eindruck.
Neben sauberen Arbeitsplätzen, Konferenzräumen und Fluren steht natürlich auch die Hygiene im sanitären Bereich und der Küche
in einem besonderen Fokus. Diese Leistungen werden von uns im Rahmen der Büroreinigung sorgfältig ausgeführt.
Dazu bieten wir mit der Teppichreinigung und Fensterreinigung ergänzenden Reinigungsservice an.
Wir helfen Ihnen gerne dabei, ein sauberes, gepflegtes Arbeitsumfeld zu
schaffen und bieten Ihnen ein umfangreiches Leistungsangebot.
Wir beschränken uns dabei nicht nur auf die Gebäudereinigung und Büroreinigung sondern bieten auch Praxisreinigung und Kita-Reinigung
an und sorgen auch in öffentlichen Einrichtungen für
Sauberkeit.
Informieren Sie sich auch über die professionelle Büro Desinfizierung.
Hygiene im Büro hat in den letzten Monaten einen besonderen Stellenwert
erfahren und Maßnahmen zur Vermeidung von Infektionsrisiken für Ihre
Mitarbeiter und Mitarbeiterinnen sowie für Ihre Kunden sind mittlerweile schon selbstverständlich geworden. Aber wie kann man diesen Anforderungen gerecht werden? Dafür bietet unsere Reinigungsfirma ebenfalls individuell zugeschnittene Reinigungskonzepte
für umfangreiche Hygiene im Büro an.