शोभा शामी बंगलौर के एक मीडिया ऑर्गनाईजेशन में सोशल मीडिया एनलिस्ट है. इससे पहले उन्होंने दिल्ली में नेटवर्क 18, अमर उजाला और दैनिक भास्कर में एक डिजिटल जर्नलिस्ट की तरह काम किया है. सोशल मीडिया, पत्रकारिता और राईटिंग.. शोभा के पास इन तीन चीजों का एक अच्छा तालमेल है. वो तमाम सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म के अलावा हिंदी के तमाम ब्लॉग्स और वेबसाइट पर लिखती हैं। डायरी व्यक्ति के मन के भीतरी कोनों का खोल हमारे सामने रख देती है। निजी क्षणों का लेखा-जोखा दर्ज किए हुए डायरी हमारे बाहरी जीवन के परिष्कृत रूप से उलट खुरदरापन समेटे होती है। आज प्रस्तुत है शोभा की डायरी का एक हिस्सा- दिव्या विजय
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कई बार भीतर कुछ तंग कर रहा होता है। कुछ दौड़ रहा होता है। जिसे हम झपट कर पकड़ लेना चाह रहे होते हैं। लेकिन वो ली जा चुकी सांस की तरह भीतर गुम चुका होता है। और ऐसे में कई बार सबकुछ गले में फंस जाता है। थकान की तरह। और फिर किसी ऐसे पल में जब आप बिलकुल उम्मीद नहीं कर रहे होते हैं। वो जूझ आपकी कैद में आ जाती है।
क्यूंकि हमेशा हर चीज़ को पकड़ा या छोड़ा नहीं जा सकता।
हम अक्सर छूट जाते हैं। और पता भी नहीं चलता। हम अपनेआप से छूट जाते हैं। अपने कहे या सुने जाने से। कितने कदम हम चले जाने से रह जाते हैं।
क्या तमाम यात्राएँ हमेशा हम तय करते हैं?? क्या कुछ यात्रायें अपने रास्ते टोहती हुई हम तक नहीं पहुचती? जिसे हम कई बार फिर ‘अचानक’ नाम देते हैं।
हमें छोड़ दिया जाता है कई पलों, स्मृतियों, गहरी साँसों के द्वारा। हम छोड़ते नहीं हैं। हम छूट रहे होते हैं कई पलों में एक गहरी आत्मीय या प्यार भरी कविता के पढ़े जाने से। और सोचे और लिखे जाने से भी।
जैसे हम कई बार लिखना चाहते हैं। कई बार इतना पेनफुल लिख देना चाहते हैं कि गुज़र रहे दर्द को लिखे में उड़ेल दिया जाए। कि हम भीतर को खाली कर दें और ‘उसे’ बता सकें की मुझ पर क्या बीत रही है।
कई बार सारा कुछ इसी में जुट जाता है कि ये समझा सको कि तुम किसी के लिए मरे जा रहे हो। लेकिन ठीक उन्ही वक़्त हम चूक रहे होते हैं।
चूक रहे होते हैं उन तमाम हर्फों से जिन्हें कायदे से लिख कर ड्राफ्ट में सेव कर दिया जाना चाहिए था। या एक स्माइली के सब्जेक्ट के वाले मेल में लिख भेज दिया जाना था।
पर ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ। ऐसा कुछ भी होने कि बजाए अचानक दिनों दिनों तक बढ़ी हुई धडकनें महसूस हुईं।
मैंने सोचा उफ़ ये उमस!! फिर एक ठंडी रात को तुमसे पूछा….. ‘धडकनें, ये तुम हो क्या’?! कई फोन कॉल कर दिए गए कि कहीं कुछ मिल जाए।
खोजना इतना आसान है क्या? ये तो तब भी नहीं मिला था जब मुझसे कहा जा रहा था… ‘तुम कुछ लिख क्यों नहीं रही हो? कहाँ खो गयी हो’?
लिखा कई बार इस तरह से छिटकता है कि ताड़ भी नहीं पाते वैसा होने को। और फिर जब देरों तक जब भीतर कुछ सालता है तब टटोल शुरू होती है।
फिर जैसे उस न लिखे जा सकने का कोई ताप हो, वजन हो जो खदबदाने लगता है। धड़कन जैसा। घबराहट जैसा। जो बना रहता है। उस छिटक जाने की ओर लौटने की कोशिश में।
और ये बना भी रहता है कई बार। कई लिखे सारा लिखे जाने के बावजूद।
…….गहरी सांस के बीच घबराहट बची की बची रह जाती है।