हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली थी. आत्महत्या के बाद से वह एक तरह से प्रतीक बन चुका है जाति उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने वालों के लिए. अभी हाल में ही जगरनॉट बुक्स से उनकी ऑनलाइन डायरी का प्रकाशन हुआ है- जाति कोई अफवाह नहीं. जिसका संपादन निखिल हेनरी ने किया है और अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद राजेश कुमार झा ने किया है. उसी डायरी का एक अंश, जिसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कारनामों के ऊपर टिप्पणी है- मॉडरेटर
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22 जुलाई 2015
(पार्टी में शामिल करने के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् छात्रों को कुछ ईनाम दे रही थी. यह नोट उसी सन्दर्भ में है- संपादक)
मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के इस महान कैम्पस में 2010 में आया. उस समय एक अनजान समूह था डिस्कवरी जो हर विषय में सबसे अधिक अंक प्राप्त करने वाले छात्र को ईनाम के तौर पर पैसे देता था(ज्यादातर विज्ञान में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को). आज 2015 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने यह नकाब हटा दिया है. अब इसे इतनी हिम्मत आ गई है कि यह सीधे सीधे अपने नाम पर छात्रों को रुपये बांटने लगा है. मैं राजनीतिक नैतिकता के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इतना जरूर समझता हूँ कि कोई भी राजनीतिक समूह शैक्षणिक संस्था में छात्रों को पुरस्कार या पैसे नहीं दे सकता. अगर इसे स्वीकार कर लिया जाता है तो इसकी वजह से कई चीजें बदल जायेंगी. इस स्थिति में सिर्फ वही दल फले-फूलेंगे जिनका संबध कैम्पस के बाहर के किसी राजनीतिक दल से है.
मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने मुझे बताया था कि लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों में साफ़ कहा गया है कि कैम्पस के अन्दर राजनीतिक दलों से पैसों के लेन-देन पर पूरी तरह से रोक लगाई जानी चाहिए. भाजपा अपने छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को बेशक राजनीति के लिए पैसे दे देगी. दूसरी तरफ हमारी हालत यह हो जाएगी कि हम भ्रष्टाचार पर कोई सवाल ही नहीं उठा सकेंगे.
आखिर समस्या की जड़ कहाँ है?
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