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मार्केज़ एक बीते हुए जीवन को फिर से सृजित करने की ज़िद करते हुए लिखते रहे

आज गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ का जन्मदिन है. कुछ साल पहले उनको याद करते हुए यह लेख शिव प्रसाद जोशी ने लिखा था. तब न पढ़ा हो तो अब पढ़ लीजियेगा- मॉडरेटर

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”लोग सपने देखना इसलिये बंद नहीं करते कि वे बूढ़े होते जाते हैं,वे तो बूढ़े ही इसलिये होते हैं क्योंकि वे सपनों का पीछा करना छोड़ देते है।”

मार्केज़ को याद करते हुए उनके बारे में नीचे जो लिखा गया है वो बेतरतीब और गड्मगड है। उसमें कई जगह सिलसिले छूटे हुए दिखेंगे। लेकिन हमारी अस्तव्यस्त ज़िंदगियों के रचनाकार के सम्मान में ऐसे ही ढंग से लिखते हुए उन तक पहुंचने का रास्ता खोजने की कोशिश की जा रही है।मेरे मार्केज़

16 अप्रैल को मन में घुमडऩ थी। शायद किसी सुदूर भटकाव से इसका संबंध था। ये तारीख मेरी ज़बान पर यूं ही आ गई थी जब कोई अपने जन्मदिन की तारीख बताने ही वाला था। अप्रैल एक अजीब छटपटाहट और उदासी का महीना है। कशमकश का महीना है। अप्रैल 2014 तो डराता हुआ गुज़रा। अनिश्चय और अंधेरों की ओर धकेलता हुआ। सपने में मैंने देखा कि एक युवा बिस्तर पर पड़ा है। डॉक्टरों ने उसके नाक और मुंह से नलियां निकाल ली हैं। ग्लूकोज़ की बोतलें हटा दी हैं और सबसे हट जाने को कहा हैं कि अब इनका अंत समय आ रहा है, तीमारदारी व्यर्थ हैं। सब जाएं। सब लौट रहे हैं धीरे धीरे उस बड़े दरवाजे से बाहर निकल रहे हैं। लड़का स्प्रिंग वाले उस पलंग पर उचककर बैठ गया है, डबडबाई हुई और लाल पड़ चुकी कातर आंखों से जाने वालों को देखता है छोड़कर न जाने के लिए मानो कहता हुआ। ये दिन 17 अप्रैल था.

80 पार बड़ी बुआ बीमारी के बाद चल बसीं। उसका गांव हमारे गांव के पास ही हैं। हमारी ज़िंदगियों के पहले भूत उसी गांव के टीलों, खंडहरों और नालों से निकले थे। पहाड़ी धार पार कर उसका गांव आता था। ये जैसे किताब का नया पन्ना था। पीछे का पेज फिर नहीं देख सकते थे। गांव पहाड़ की ओट में छिप जाता था। अगले दिन 18 अप्रैल को बुआ का दाह संस्कार किया गया। कनखल में नदी किनारे बनाई चिता पर रखी उसकी जीर्णाशीर्ण देह जल रही थी और हम सब अपनी अपनी ऊब और निर्विकारता में चिता और अन्य चिताओं  को देखते थे कि तभी ज्ञान जी का फोन आया कि मार्केज़ नहीं रहे। उनकी आवाज़ भर्रा गई थी, उस समय मुझे बीस साल पहले की दिल्ली में साकेत के पास पुष्पविहार कालोनी की चौथी मंज़िंल का फ्लैट याद आया जिसके नीचे के कमरे में डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर, सोफे पर, कमरे में, पलंग पर और बालकनी में लगी कुर्सी पर बैठकर मार्केज़ के जादुई संसार को झपकती हुई आंखों और लगभग कांपते हुए एक लड़का पढ़ता जाता था। किताब थी ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’। इस तरह मार्केज़ से मेरा पहला परिचय मंगलेश जी ने कराया।

बिछडऩे से एक अजीब किस्म का भय मार्केज़ को महसूस होता था। मृत्यु को लेकर वो आशंकित रहते थे। उनके कुछ टोटके भी मशहूर थे। ‘स्ट्रेंज पिलग्रिम्स’ नाम के कहानी संग्रह की प्रस्तावना में मार्केज़ ने लिखा कि एक कहानी का विचार उन्हें एक सपने से आया जिसमें वो अपने ही अंतिम संस्कार में शामिल थे। मार्केज़ के मुताबिक ”सपने में देखता था कि मैं दोस्तों के साथ, शोक के अवसरों पर पहनी जाने वाली पोशाक में था लेकिन हम सब उत्सव के मूड में थे। एक साथ थे तो खुश थे। मैं सबसे ज़्यादा खुश था कि चलो अपनी मौत के मौके पर लातिन अमेरिका के अपने सबसे प्रिय और पुराने दोस्तों से मिलना हो पा रहा है जिन्हें मैंने न जाने कबसे नहीं देखा था। उत्सव की बेला समाप्त हुई तो सब निकलने लगे, मैं भी निकलने लगा तो उनमें से एक दोस्त ने मुझे रोक दिया, तुम्हीं अकेले हो जो यहां से जा नहीं सकते,” मार्केज़ के मुताबिक उस समय मैंने जाना कि मृत्यु का एक अर्थ ये भी होता है कि आप अपने दोस्तों से फिर नहीं मिल पाते है।

17 अप्रैल को गाब्रिएल मार्केज़ नहीं रहे। वैसी मूछें मेरे नाना कॉमरेड कौंसवाल की हैं। वो लंबे हैं और तनकर चलते हैं। मार्केज़ झपटते हुए चलते हैं कभी हौले हौले । उनका अन्दाज़ कुछ अटपटा भी था टोह लेते हुए जैसे और उनके चेहरे पर एक व्यंग्य सा रहता था जैसे ‘सब जानता हूं, बच्चू’ वाला भाव। उनके चलने में एक झुकाव आ जाता था। कुछ ऐसा ऐतिहासिक दबाव जो शायद उन्हें पता होगा अपार प्रसिद्धि और प्रेम और सम्मान का विनम्र जवाब देते हुए उभर ही जाता है। कुछ ऐसा भाव जिसका ज़िक्र कभी उन्होंने अपने प्रिय मित्र फ़िदेल कास्त्रो के बारे में किया था (पाठक पहल के इसी अंक में वो ज़िक्र देखेंगे।) पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद मैं बार बार सोचता था कि काश एक चक्कर मेक्सिको और कोलंबिया का हो आऊं मार्केज़ को देखने के लिए, पर ये फ़ितूर ही था। जाता रहा।

मार्केज़ को लिम्फ का कैंसर था। लिम्फ एक तरह का रंगहीन द्रव है जो शरीर में कोशिकाओं और ऊतकों की सफाई करता हुआ नलिकाओं के ज़रिए बहता रहता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएं रहती हैं। मार्केज़ के शरीर में लिंफ प्रवाहित करने वाली नलिकाएं कैंसरग्रस्त हो गई थीं। इसके इलाज के लिए उनकी कई कीमोथिरेपी हुई थीं और इसका असर शरीर के कई ऊतकों और स्नायुओं पर पड़ा था। बताया जाता है कि स्मृति मिटने की एक वजह कीमोथिरेपी हुई थीं और इसका असर शरीर के कई ऊतकों और स्नायुओं पर पड़ा था। बताया जाता है कि स्मृति मिटने की एक वजह कीमोथिरेपी से अस्तपस्त हुई तंत्रिकाएं भी हो सकती हैं। मार्केज़ इस तरह स्मृतिलोप यानी डिमेन्शीआ की चपेट में भी आ गये थे। स्मृति ही उस आदमी के लेखन का केंद्रबिंदु था और वही अब एक धुंधला सा डॉट था बीमारी के बाद उनके जीवन में। मार्केज़ का समूचा लेखन स्मृतियों का बिखरा हुआ इतिहास ही तो है, वहां घर परिवार रिश्तों दोस्तों की यादें हैं जो उनकी रचनाओं में आतीजाती रहती हैं। वहां स्मृति और स्वप्न का बोलबाला है, और ऐसा लगता है कि असल ज़िंदगी से भी स्मृति की तमाम रासायनकि प्रक्रियाओं को खींचकर मार्केज़ ने अपने लेखन में उड़ेल दिया था और खुद को स्मृतिविहीनता के हवाले कर दिया था।

जुलाई 2012 में उनके छोटे भाई और कोलंबियाई लेखक पत्रकार जेम गार्सिया मार्केज़ ने समाचार माध्यमों को बता दिया था कि उनका भाई ‘लिविंग ट्अल द टेल’ नाम की अपनी आत्मकथा का दूसरा हिस्सा नहीं लिख पाएगा क्योंकि बीमारी इसकी इजाज़त नहीं देगी। मार्केज़ लंबी खामोशी के बाद हाल के वर्षों में चर्चा में आए थे 2009 में। अपने लेखन या अपने किसी बयान की वजह से ही नहीं बल्कि इसलिए कि ऐसा पता चला कि वो आगे नहीं लिखेंगे। कोलंबियाई लेखक के बारे में ये सनसनीखेज सूचना उनकी एजेंट कारमन बालसेल्स ने दी थी। चिली के एक अखबार ला टेरसेरा को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि, लगता नहीं कि मार्केज़ अब आगे कुछ और लिखने वाले हैं। मार्केज़ के चाहने वालों को उनके रिटायरमेंट की इस खबर से झटका लगा था।

उनका एक उपन्यास करीब आठ साल पहले आया था, ‘मेमोरीज़ ऑफ मेलनकली व्होर्स’। उसके बाद उन्होंने कुछ नहीं लिखा। एक बूढ़े और कमसिन नाबालिग वेश्या के प्रेम और नींद के कोमल संसार पर लिखी इस कहानी पर पाठकों की मिली जुली प्रतिक्रिया आई थीं। इस किताब से कुछ समय पहले ही आयी थी उनकी आत्मकथा ‘लिविंग टु ट्अल द टेल’ और उसमें ये दावा भी किया गया था कि इसके दो और हिस्से आएंगे जिनमें मार्केज़ के युवा दिन, प्रेम के अनुभव, ख्याति और विश्व नेताओं से उनकी मुलाकातों का ज़िक्र होगा, लेकिन मार्केज़ अब अपनी ऐसी ही किसी दास्तान के भीतर छिप गए हैं। या शायद वो हमारे इंतज़ार में हमेशा हमेशा के लिए दाखिल हो गए हैं। प्रेम और स्मृति के सभी दरवाजों को खटखटा चुके मार्केज़ अब चले गए हैं। मार्केज़ की सबसे प्रामाणिक जीवनी के लेखक गेराल्ड मार्टिन का कहना था कि लेखक के तौर पर ये मार्केज़ अब चले गए हैं। मार्केज़ की सबसे प्रामाणिक जीवनी के लेखक गेराल्ड मार्टिन का कहना था कि लेखक के तौर पर ये मार्केज़ की किस्मत है कि दुनिया को विदा कहने से पहले ही उन्हें इतने लंबे विशाल और सघन साहित्यिक जीवन से परम संतुष्टि हासिल हुई है। मार्टिन के मुताबिक मार्केज़ की एक दो किताबें तैयार हैं लेकिन उन्हें प्रकाशित कराया जाएगा या नहीं ये कहना मुश्किल है। वैसे एक किताब की चर्चा तो पिछले दिनों चली थी कि ये किताब आ रही है, नाम भी बताया गया था, ‘वी विल सी ईच अदर इन ऑगस्ट’।

‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ के अलावा मार्केज़ की कुछ अन्य रचनाओं पर फ़िल्में बनी हैं। हालांकि वे मौलिक कृतियों की तरह बेशुमार प्रसिद्धि को तरसती रही हैं। अब ‘न्यूज़ ऑफ अ किडनैपिंग’ पर भी फिल्म बन रही है। ये उपन्यास एक ड्रग माफिया के कुछ चोटी के पत्रकारों को अगवा किए जान की सच्ची और दहलाने वाली घटना के हवाले से लिखा गया था। बारसेल्स के बयान से उठे तूफान के कुछ सप्ताह बाद ही कोलंबियाई अखबार एल तीम्पो ने इस बारे में ग्राबिएल गार्सिया मार्केज़ से पूछा था। रिपोर्टर ने मार्केज़ के घर फोन किया कि उस्ताद मैं आपसे कुछ सवाल पूछना चाहता हूं। इस पर मार्केज़ ने कहकर फोन रख दिया कि बाद में करो मैं अभी लिख रहा हूं। बाद में बात हुई तो मार्केज़ ने इस बात का खंडन किया था कि वो नहीं लिख रहे हैं। उनका दावा था कि उनके न लिखने की बात गलत है बल्कि सच यही है कि वो एक ही काम करते हैं और वो है लिखना।  ”लोग सपने देखना इसलिए बंद नहीं करते कि वे बूढ़े होते जाते हैं वे तो बूढ़े ही इसलिए होते जाते हैं क्योंकि वे सपनों का पीछा करना छोड़ देते हैं”। मार्केज़ ने कभी ये बात कही थी बुढ़ापे और लेखन के संदर्भ में।

जब मार्केज़ के लिखने या न लिखने पर बहस चल रही थी खामोशी के साथ एक विराट किताब 2008 में बाज़ार में आई। ये मार्केज़ की जीवनी है, जिसे लिखा है उनके प्रिय जीवनीकार गेराल्ड मार्टिन ने। करीब 600 पन्नों की ये किताब मार्केज़ की पैदायश से लेकर 21 वीं सदी के शुरुआती वर्षों में उनके कमरे और उनके अकेलेपन तक जाती है और खिड़की के बाहर आकाश को निहारते मार्केज़ की एक बुदबुदाहट ओर उनके वक्तव्य की तरह दर्ज करते हुए खत्म होती है। 2006 में मार्केज़ को एक स्पानी अखबार ने उनके अतीत से जुड़ा कोई सवाल पूछा था जिस पर मार्केज़ ने कहा कि ये बात आपको मेरे आधिकारिक जीवनीकार गेराल्ड मार्टिन ही बता सकते हैं। मार्केज़ के जीवन विचार और लेखन को जानने समझने के लिये ये जीवनी एक प्रामाणिक दस्तावेज़ मानी जा रही है जिसे लिखने में मार्टिन का 17 साल का अनथक श्रम और शोध लगा है। ऐसी प्राथमिकता इससे पहले प्लीनियो एपीलियो मेंदोज़ा से बातचीत की उस किताब में ही थी जो ठीक उस साल 1982 में छपकर आई जब मार्केज़ को नोबेल पुरस्कार मिला था। कई किस्तों में हुए इस लंबे इंटरव्यू वाली किताब ‘फ्रैंग्रेस ऑफ ग्वावा’ का हिंदी अनुवाद कवि – ब्लॉगर-अनुवाद अशोक पांडे ने ‘अमरूद की खुशबू’ नाम से किया है। ये किताब भी प्रकाशित की जा रही है।

मार्केज़ ने राइटिंग तकनीकें काफ्का, मिखाईल बुल्गाकोफ, हेमिग्वे, फॅक्नर, वर्जीनिया वुल्फ और जेम्स जॉयस और बोर्हेज़ से हासिल की हैं। दोस्तोएवस्की, मार्क ट्वेन और एडगर एलन पो से भी उनके यहां टिप्स हैं। डॉन क्विज़ोट का आख्यान उनका एक सबक है। सिमोन बोलीवार उनके कथानकों के महानायकों में दिखते रहते हैं। काफ्का की कहानी ‘मेटामॉर फोसिस’ और बुल्गाकॉफ के उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गारीटा’ का उन पर गहरा असर है। मार्केज़ के लेखन का सबसे बड़ा खज़ाना है स्मृतियां। बचपन की स्मृतियां, जहां उनका ननिहाल है नाना नानी है मां है मौसियां हैं आयाएं और दाइयां हैं। एक पूरा कस्बा है। लोग हैं। नानी ने उन्हें पाला मौसियों ने दुलारा उनके करतब देखे दाइयों और आयाओं की अलौकिक समझदारियां देखीं उनकी रहस्यमयी फुसफुसाती दुनिया में गए। उनके साथ नहाए और उनकी यौन कुंठाओं को झपकती आंखों से समझने की कोशिश की। बीसवीं सदी के उपन्यासकारों में जितने लोग और जितनी उनकी आवाजाही मार्केज़ के यहां हैं उतनी कम ही दिखती है। इतने सारे लोग और इतनी सारी ज़िंदगियां उनसे पहले तोलस्तोय के लेखन में आती थीं। मार्केज़ के यहां प्रेम की प्राचीन तड़प से और प्रेम न कर पाने से पैदा अकेलेपन के बियाबान में भटकते मंडराते हर तरह के लोग हैं।

गाब्रिए गार्सिया मार्केज़ के नाम में ही मानो उनके रचना संसार का वह दृश्य छिपा है जिसे हम जादुई यथार्थ के रूप में जानने की कोशिश करते हैं। अपने घर और पुरखों की स्मृति को लातिन अमेरिका संघर्ष और तकलीफ भरे अतीत से जोड़कर मार्केज़ ने अपने साहित्य का रास्ता चुना जो उनकी रचनाओं की तरह ही अजीबो गरीब किस्सों रोमानों और विवरणों से भरा हुआ है। बारिश कीचड़ धूल और खून से सना ये रास्ता उनकी नानी की कहानियों और सपनों में भी फूटता है। लातिन समाज के ऊबडख़ाबड़ पथरीले आदिम अनुभवों से गुज़रता हुआ ये रास्ता चमकीली सड़कों भव्य पोशाकों अप्रतिम सुंदरियों और अलीशान मकानों और होटलों वाले न्यूयार्क पेरिस और मॉस्को तक जाता है। ये क्यूबा कास्त्रो क्लिंटन और मितरों तक भी जाता है और मार्केज़ को जानने के लिए हमें वो हर दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है जिसके अंदर भूगोल इतिहास संस्कृति और स्मृति के रहस्यों की कभी न खत्म होने वाली  लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी सामग्री है।

मार्केज़ का लेखन एक बहुत फैली हुई यूं समझिए विशाल कनात की तरह बिछी हुई स्मृति पर मंडराता हुआ लेखन है। वहां देश समाज नागरिक तानाशाह भूगोल इतिहास लड़ाइयां प्रेम द्वंद्व विवाद महानताएं और जीवन की साधारणताएं हैं। मार्केज़ के यहां प्रयोगों की गज़ब विविधता है। वहां इतने शेड्स और वास्तविक जीवन से उठाई इतनी सच्चाइयां हैं कि आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते मार्केज़ के किस उपन्यास का किस कहानी के पीछे कौन सी घटना कौन सा इतिहास कौन सा अनुभव है। वे उस यथार्थ के मिलेजुले घुलेमिले पर्यावरण से अपनी रचना का यथार्थ निकालकर लाते हैं। बारीकी से कुशलता से चिमटी से जैसे पकड़ पकड़ कर। मुक्तिबोध ने कला के तीन क्षण बताए हैं। ”कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण, दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आंखों के सामने खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षम है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता, शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया के भीतर जो प्रवाह बहता रहता है वो समस्त व्यक्तित्व और जीवन का प्रवास होता है…” मार्केज़ इसी प्रवाह के पारंगत रचनाकार थे। संसार के चुनिंदा रचनाधर्मियों में एक जो कला के तीनों क्षणों को जान पाए।

बचपन की मरी हुई तितलियां उनकी किताबों में आ जाती हैं और वहां फडफ़ड़ाती रहती हैं। मार्केज़ एक बीते हुए जीवन को फिर से सृजित करने की ज़िद करते हुए लिखते हैं। और इसी ज़िद में उनका जादू निहित है इसलिए मार्केज़ के लेखन के यथार्थ को जादुई यथार्थ कहा जाता है। मार्केज़ के रिएलिज़्म की खूबी है उसकी सपाटता, उसके अनथक विवरण। एक दीर्घ ब्यौरा जैसे किसी घटना या व्यक्ति की रिपोटिंग, जैसे पत्रकारिता, लेकिन इसी सपाटता में मार्केज़ मानो छैनी हथौड़ी लेकर जगह जगह कुछ निशान उकेर देते हैं। गड्डमड्ड होती हुई कांपती हिलती हुई एक ज़मीन, ऊपरी तौर पर जो एक सपाट कथ्य है वो अपनी आंतरिकता में एक जादू है, उसी के इर्दगिर्द विकल कथ्यात्मकता बिखर जाती है। ये जैसे एक पेड़ पर नीले रंगों के फूलों का खिलना और न जाने दिन और रात और दोपहर और शाम के कौन से वक्त कौनसीवीं घड़ी में वे ज़मीन पर गिरकर बिखरते रहते हैं। पथरीली सीमेंट भरी सड़क के एक कोने पर ये एक नरम सुहाना नीलापन देखने लायक होता है। मार्केज़ इसी नीलेपन का जादू लिखते हैं।

भला कौन जान सकता है कि ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ जैसी कहानी एक विकट अपूर्ण उदास प्रेम दास्तान से निकली होगी। मार्केज़ का एक अपना प्रेम अनुभव। इसी तरह ‘ऑटम आफ द पैट्रीयार्च’ में सिर्फ कुख्यात तानाशाह के शेड्स ही नहीं क्यूबा के फ़िदेल कास्त्रो की छायाएं भी उसमें है जिनके बहुत निकटस्थ मार्केज़ रहे हैं। मार्केज़ का लेखन शीत युद्ध के लड़ाकों नायकों प्रतिनायकों खलनायकों की ज़िंदगियों में घुसकर किया हुआ लेखन है। सत्ता हासिल करने वालों के बीच मार्केज़ की आवाजाही कई लोगों को खटकती है लेकिन मार्केज़ का ये अपना एक टूल रहा है। वो पावर के इस सॉलिट्यूड की तलाश में हुक्मरान के बगलगीर होने का जोखिम उठाते रहे जो उनके समूचे रचनाकर्म में एक स्थायी लकीर की तरह खिंचा हुआ है। मार्केज़ ने कास्त्रो से उस समय भी दोस्ती जारी रखी जब लातिन अमेरिका का बौद्धिक लेखक समुदाय कास्त्रो के कुछ राजनैतिक फैसलों की वजह से उनकी आलोचना कर रहा था।

मार्केज़ अपने जीवन के इन्हीं विवादों विरोधाभासों कलहों अफसोसी रिश्तों के बिखराव और टूटन के बीच से शिष्टता सौम्यता साहस विवेक और प्रेम का तानाबाना बुनते रहे हैं। उनकी कहानियां इसकी मिसाल हैं। उनका लेखन प्रेम अवसाद कामना साहस धैर्य और मुक्ति को संबोधित है। वे एक नए विस्मयकारी स्वप्न का मुरीद अपने पाठकों को बना देते हैं। मार्केज़ के यहां प्रेम न कर पाने की व्यथा प्रेम न पा सकने की छटपटाहट और प्रेम से दूर हो जाने की ग्लानि जिस प्रामाणिक और जीवंत तफसील के साथ आती है उससे पाठक भी वेदना और खुशी और रोमांच के मिलेजुले अनुभव से सिहरते जाते हैं। पाठकों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत है कि उनकी किताबें बेस्टसेलर हो जाती हैं। ‘वन हंड्रेड इयर्स आफ सॉलिट्यूड’ तो अब बिक्री के मामले में किंवदंती ही बन चुका है। 18 महीने उन्हें इसे पूरा करने में लगे। 2015 इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया का 50 वां साल होगा। ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ उपन्यास जब यकायक अपार ख्याति के बवंडर में इधर से उधर गूंजता रहा तो इस पर न जाने कितनी टीकाएं समीक्षाएं आई। लेकिन मार्केज़ के मुताबिक उनमें कई सीधेसादे तथ्यों की अनदेखी की जा रही थी। बहुत सीधी सपाट बचपन कथा थी वो जिसमें अपने लोग अपना कस्बा अपना देश अपना इतिहास शामिल था। और वो किसी कलात्मक लेखकीय बाजीगरी से नहीं अपनी स्वाभाविक आत्मिक करामात की वजह से जादुई हो रहे थे। ये बस बचपन को ठीक से देखने और याद रखने की बात थी। और उसे कहने की बात थी। यह बचपन की स्मृतियों का काव्यात्मक पुनर्पाठ था, पुनर्खोज थी। मार्केज़ ने कहानियां कहने के ढंग को उन लोगों के जीवन जीने के ढंग की तरह ही रखा जिनके बारे में वे लिखी जाती हैं।

‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ उनके मां पिता के प्रेम का अद्भुत वृतांत ही नहीं है जैसा कि आमफहम है। उसमें कई सारी दास्तान गुंथी हुई हैं। जनरल इन हिज़ लैबिरिन्थ उपन्यास इसी तरह शत्रु और मित्र तानाशाहों और लातिन अमेरिकी इतिहास के गुरिल्ला महानायकों की बिंदास उदास क्रूर ऊबडख़ाबड़ उत्तप्त ज़िंदगियों का मिलाजुला आख्यान है। इन उपन्यासों सैकड़ों कहानियों साक्षात्कारों व्याख्यानों पर्चों भाषणों सेमिनारों बैठकों मुलाकातों की अन्यतम बीहड़ताओं के बाद मार्केज़ के पास आखिर कहने के लिए क्या बचा रहना था लेकिन वे लेकर आए ‘लिविंग टू ट्अल द टैल’, यानी कहानी कहने के लिए वो जीवित हैं कहते रहेंगे, अपने विश्वविख्यात अंदाज़ में मार्केज़ की ये आत्मकथा एक स्त्री के एक रेस्तरां में प्रवेश के साथ शुरू होती है। जो वहां अपने बेटे को ढूंढऩे को आई है। वो स्त्री दोस्तों के साथ बैठे अपने बेटे को पीठ से पहचान लेती है और उसके करीब पहुंचकर कहती है, मैं तुम्हारी मां हूं। गेराल्ड मार्टिन को मार्केज़ ने बताया है कि उनकी मां का कहने का यही अंदाज़ रहा था। वो ऐसे ही चौंकाती हुई सी उनसे संबोधित होती थी और इस तरह कहने के पीछे कई और बातें कह दी जाती थीं। लिविंग ट्अल द टेल को पढ़ते हुए हम एक छात्र एक पत्रकार एक लेखक के निर्माण को देख पाते हैं। लेखक बनने की तड़प से गुज़रते हुए एक युवक को हम सहानुभूति और प्रेम के साथ देखते हैं। मार्केज़ का लेखन संसार जितना विकट और उलटफेर भरा है उतना ही दिलचस्प और देखने लायक उनका रोज़ी-रोटी से जुड़ा हर वक्त का वो संसार है जिसमें पत्रकारिता ने दबे पांव प्रवेश किया। मार्केज़ अपने लेखन की विशिष्टता के लिए पत्रकारिता का योगदान मानते हैं। उनका दावा है कि अपनी रचनाओं में विश्वसनीयता लाने के औजार उन्हें पत्रकारिता की प्रयोगशाला में ही मिलते रहे हैं।

आत्मकथा की ये पहली किताब बताई गई जिसमें मार्केज़ के 1927 से जन्म से लेकर 1950 तक की उस दिन की घटनाएं आई हैं जिस दिन मेरसेदेस नाम की चिडिय़ा के पंखों जैसे बालों वाली अपनी प्रेमिका को देखकर मार्केज़ को ये पूर्वाभास हुआ कि वो कहीं उससे बिछड़ न जाएं, और यूरोप दौर पर जाते हुए विमान में ही टिशू पेपर पर एक खत उसके नाम लिख दिया था। लातिन अमेरिकी जादुई यथार्थ की छवियां अगर एक जगह भरपूर कहीं देखने को मिलती हैं तो वो है मार्केज़ का कहानी संग्रह मासूम इरेंदरा और उसकी क्रूर दादी (इनोसेंट इरेंदरा एंड हर हर्टलैस ग्रैंडमदर)। जितनी स्मृति धक्कामुक्की बैचेनियां जितनी यौन तड़पें धर्म अध्यात्म जितना प्रतिरोध जितना अवांगार्दिम और रहस्यवाद की जितनी छवियां इस संग्रह की कहानियों में दिखती हैं उतनी शायद कहीं और नहीं। कई लोगों ने इन कहानियों को उदास ऊबाऊ और बोझिल कहकर खारिज भी किया है। लेकिन इसमें मार्केज़ के लेखकीय व्यक्त्वि का सार है। ये उनकी प्रयोगशाला है। इस कहानी संग्रह के बाद मार्केज़ एक पूरी तैयारी के साथ और एक तूफानी रफ्तार से आते हुए दिखते हैं। ऑटम ऑफ द पैट्रियार्च, क्रॉनिकल ऑफ द डेथ फोरटोल्ड, लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा, द जनरल इन हिज़ लैबिरिंथ, स्ट्रैंज पिलग्रिम्स (कहानी संग्रह), ऑफ लव एंड अदर डेमन्स, न्यूज़ ऑफ अ किडनैपिंग, टू लिव टू टेल इट (अंग्रेज़ी में लिविंट टू ट्अल द टेल) और मेमोरीज़ ऑफ माइ मेलनकली व्होर्स जैसी किताबें हर दो या तीन साल के अंतराल में आती गई।

मार्केज़ की एक कहानी है विशाल डैनों वाला एक बहुत बूढ़ा आदमी (ए वेरी ओल्ड मैन विद एनोरमस विंग्स), इस कहानी को मार्केज़ की एक प्रतिनिधि कहानी भी कहा जा सकता है। इस लिहाज़ से कि इसमें लातिन अमेरिकी और यूरोपीय जादुई यथार्थ की बानगी मिलती है और रचना की मार्केज़ियन बुनावट का भी ये विरल उदाहरण है। इसमें एक सपाटता है। एक सीधी दिशा में जाती कहानी जहां रहस्यवाद धर्म और दर्शन तक गुंथे हुए हैं। एक जादू इस तरह से आता है कि एक बहुत बूढ़ा विशाल डैनों के साथ एक घर के आगे आ गिरता है। और उसके डैने हैं या नहीं या नकली हैं या असली या वो कौन है गुप्तचर या शैतान या ईश्वर का भेजा दूत या कोई बाज़ीगर या कोई वाकई लाचार मनुष्य, गिरे हुए डैनों में न जाने कितने पुराने और आने वाले वक्तों की उड़ान धंसी हुई है। घायल बीमार बूढ़ा विशाल डैनों के बीच मानो भ्रम डर गुस्से छद्म और खीझ और उलझन और रहस्य की कहानी का केंद्र भी बना हुआ है। जादुई यथार्थ का ये डैना लेकर एक दिन वो बूढ़ा वहां से समंदर पार को उड़ जाता है। गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ कमोबेश अपने इस अजीबोगरीब चरित्र की तरह दुनिया से पेश आते रहे हैं। जो निस्सहायता कमज़ोरी और बुढ़ापे की घायल अवस्था लोगों को उनमें दिखती थी वो दरअसल उन लोगों की अपनी है उस बूढ़े की नहीं, जिसके पास एक अवर्णनीय थकान है दुख है और हैं करिश्माई डैने जिनकी बदौलत वो कहीं से कहीं उड़ान भर सकता है जोकि उसका काम ही है उड़ान भरना, जैसे मार्केज़ कहते हैं कि उनका काम ही है लिखते रहना।

उनकी ही कहानी के टाइटल के हवाले से कहें तो वो एक अद्वितीय थकान, छूटती जाती स्मृति और लिंफैटिक कैंसर से घिरे हुए लेकिन चौकस ऐसे बूढ़े थे जिसके विशाल डैनों में न जाने कितनी कहानियां फडफ़ड़ा रही थीं।

‘पहल’ से साभार

 
      

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