होली पर स्पेशल चिट्ठी नॉर्वे से डॉ. व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा की आई है. भगवा के फगवा की चर्चा वहां भी है. कवि कक्का पूरे रंग में हैं- मॉडरेटर
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कवि कक्का आज रंग में हैं। पिछले महिने ही अपना वामपंथी लाल जनेऊ बदल कर केसरिया जनेऊ किया, और होली में खिल उठे। फोन आया तो बिल्कुल जोगीरा मूड में।
“डॉक्टर बाबू, हय डॉक्टर बाबू
डॉक्टर बाबू, डॉक्टर बाबू देखह अब बदलेगा देस
भगवा जीता इस फगवा में, गावे गाम भदेस।
जोगीरा सा रा रा रा।”
“आप बाबा को छोड़ के पार्टी बदल लिए?”
“अरे, बाबा को मरे २० बरख हुए। वैसे वो भी होते तो बदल लेते। तिवारी जी बदल लिए भाई।”
“बाबा जैसे फकीर को आप तिवारी जी से तौल दिए? कक्का सठिया गए हैं आप।”
“रस-युक्त जीवन जीयो। बाबा का नाम लेते ही कब्ज हो जाता है। जिस दिन जनेऊ बदला, उसी दिन स्वप्न में आए और कहा,
ओम् चू चू फू फू फट फिट फूट, शत्रुओं की छाती पर लोहा कूट; अष्टधातुओं के ईटों के भट्ठे, महामही महामहो उल्लू के पट्ठे।”
“ओह! ये तो बुरा हुआ।”
“क्या बुरा हुआ? बाबा का मंतर इनवैलिड है। एक्सपायर्ड है। तुम तो डॉक्टर हो, वो दवा अब बेकार हो गया।”
“तो आप अब भगवा-धारी हो गए।”
“हाँ! पर कुछ खास चेन्ज नहीं करना पड़ा। त्रिपुंड माथे पर था ही। एक लाल वाला झंडा था, उस पर हँसिया रंगा के हनुमान जी बनवा दिए। कुछ मार्क्स वाला किताब सब था, उसको गीताप्रेस वाला किताब सब के बीच में घुसा कर चाप दिए। बाकी क्या, हेडमास्टर रामवतार जी को कह आए कि हमरे दरबज्जा पर न आबें। अपना बामी बिख कहीं और पसारें।”
कक्का की खुशी देख मन भर आया। पंथ का क्या ‘स्मूथ ट्रांजैक्शन’ किया जैसे दिमाग के अंदर अब तक ऐंड्रॉयड था, अब ऐप्पल। जैसे-जैसे ऐप्पल खा रहे हैं, मुझसे दूरी भी बढ़ती जा रही है। डॉक्टरों का ऐप्पल से छत्तीस का आंकड़ा है।
“लाल घोड़ी लँगड़ी हो गई, अश्वमेध है भगवा
हमही ब्रह्म हैं, हमही सत्य हैं, बाकी सब हैं ठगवा।”
“कक्का! आपकी कविता का स्तर गिर रहा है। मर्म खत्म हो गया।”
“मर्म नहीं निगेटिविटी कहो। ‘निगेटिव’ देखा है कैमरा का? कैसा बेरंग होता है। वही जब डेवलप होता है, तो सब रंग आ जाता है। डेवलप मतलब विकास। क्या समझा?”
“आप तो उपमा भी अजीब देने लगे हैं। कोई तुक ही नहीं है। कैमरा का निगेटिव डेवलप? क्या बकवास है?”
“तुम ये छोड़ो। आँखें बंद करो और नरसिंह भगवान का ध्यान करो। तुम्हें कौन नजर आ रहा है?”
“नरसिंह भगवान हिरण्यकश्यप वध वाले?”
“तो और क्या खांग्रेस वाले?”
“मुझे कोई नजर नहीं आ रहा।”
“चेहरा मिलाओ। सफेद मूँछ-दाढ़ी और चौड़ा सीना।”
“बड़े-बड़े नाखून?”
“तुम पूरा निगेटिव आदमी है।”
“आपहि की कृपा है कक्का।”
“होली का दिन है। मन में होलिका जला लो।”
“मार्क्स को जला दूँ माने? उसकी दाढ़ी जल कर धू-धू तो नहीं करेगी? कहीं सब भस्म हो गया तो?”
“अरे मार्क्स की दाढ़ी क्या हनुमान जी की पूँछ है? शक्तिहीन है वो। जला डालो।”
“होल्ड करिए। जलाता हूँ।”
“कैसे जला रहे हो?”
“सिगरेट से।”
“होलिका दहन सिगरेट से? पगला गए हो क्या?”
“पर जला तो मार्क्स को रहे हैं।”
“ओह हाँ। ठीक है। सिगरेटे से जलाओ।”
“पकड़ लिया आग। और सुनाइए। फगवा का रंग कैसा है?”
“ऐह ढोल-ताशा बज रहा है, गाम में उमंग है। मार्क्स जला क्या?”
“नहीं। किरासन डालना होगा।”
“उसको भी बरदाने मिला हुआ है क्या?”
“पता नहीं। रूकिए दाढ़ी साइड से लगाते हैं।”
“किसी साइड से जलाओ। इस होलिका को मारो, खत्म करो, और फिर तुम प्रह्लाद बनकर निकलो।”
“ऐज यू से कक्का!”
“रूको डॉक्टर सरबन मल्लाह आया है, सुनो जोगीरा लाइव। सरबन सुनाओ कोई मार्क्स पे।”
“कोन! ओ कलकत्ता बाले?”
“हाँ हाँ। वही।”
“मारकस बाबू मारकस बाबू, जबर आईडिया,
हरमजदबा को ढिसमिस करे सारी दुनिया।
जोगीरा सा रा रा रा।”