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अथ ‘ब्रह्मोद्य’ प्रश्नोत्तरी उपाख्यान: मृणाल पाण्डे की कथा श्रृंखला का उपसंहार                                         

जानी-मानी लेखिका मृणाल पाण्डे की कथा श्रृंखला हम पढ़ रहे थे. संस्कृत कथाओं की याद दिलाती हुई इस कथा में हीरामन तोता भी था, हिमुली देवी भी. लेकिन समकालीन जीवन, समाज, राजनीति की कथाएं इससे निकलती जा रही थीं. लेकिन हर कथा की तरह इस कथा का भी अंत हो रहा है. यह उपसंहार है. उस कथा श्रृंखला का जो न उपन्यास है, न कहानी बल्कि एक पारंपरिक किस्सागोई की लुप्त होती विधा का नवीन रूप है. आदरणीया मृणाल जी ने यह पूरी पुस्तक जानकी पुल पर लिखी. हम आभारी हैं. आप उपसंहार पढ़कर बताइए कि कैसी लगी यह कथा-इसका समापन- मॉडरेटर

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दंभिनी के मंदिर से प्रस्थान के बाद कुछ देर शांति रही । फिर अंग भंग और अपमान भय से मुक्त हुआ एक कौडी का तोता हीरामणि, हिमुली के सामने अष्टांग दंडवत् कर एक आँख से सुख के आँसू गिराता बोला:

‘हे देवि हिमुली, उस दंभिनी को उसकी उचित औकात बता कर और मुझे उसके निरंतर उत्पीडन से मुक्ति दिलवा कर आपने मुझे सचमुच अपना दासानुदास बना लिया है ।

हिमुली ने काने लँगडे कथाकार पर तीखी चितवन डालते हुए कहा, ‘हे कथाकार, मेरे समक्ष मूर्खता का निरर्थक नाटक मत कर । यह सच है मैंने तुझे मृत्यु भय से मुक्ति दिलाई है । पर यह कार्य मैंने निरपेक्ष भाव से नहीं किया । इसके बदले में तुमको अब मेरा एक आवश्यक काम करना होगा ।’

‘आप आदेश करें, इस एक कौडी के कथाकार का सारा जीवन आपके श्रीचरणों को अर्पित है, मेरा सर्वस्व अब आपका है ।’ तोता बोला ।

हिमुली हँसी ।

‘मर्दों को चाटुकारिता की आदत बदलना कठिन होता है रे । सुन, जो काम तुझे करना है, वह जोखिमभरा है । डगर बहुत कठिन है जिस पर बिना गिरे चलने के लिये तुझे गहन ज्ञान और सहज वाक्चातुर्य की हर समय आवश्यकता होगी । अब जो ज्ञानी हो वह वाक्चतुर भी हो, अथवा जो वाग्वीर हो वह ज्ञानी भी निकले यह निश्चित नहीं होता ।

इसलिये इस महती काम का बीडा तुझको देने से पूर्व तुम्हारी परीक्षा लेना आवश्यक है । इस के लिये मुझे तुझसे विशेष ‘ब्रहमोद्य’ करना होगा ।

‘ब्रह्मोद्य क्या है देवि ? तोते ने पूछा ।

‘हम यक्षों में ज्ञान की बडी भूख होती है रे । ‘ब्रह्मोद्य’ उसी से जुडा खेल है जो महाभारत और राजा विक्रम के समय से ही चला आ रहा है । इसके लिये गहरे वन में छुप कर घात लगाई जाती है, कभी अदृश्य यक्ष तो कभी वेताल बन कर । और कोई महारथी योद्धा भटक कर सामने आया नहीं, कि उसको बाँध कर यह खेला किया जाता है ।

‘पहले जकडे गये शिकार से एक विशेष प्रकार की प्रश्न झडी लगा कर बुद्धि को चकरा देनेवाले कुछ अनपेक्षित सवाल पूछे जाते हैं । यदि वह उत्तर न दे सका उसका सर फोड दिया जाता है । और जो जवाब दे कर संतुष्ट कर दे , उसकी मनोकामना पूरी वूरी कर दी जाती है ।

‘ठीक है ? तो तुम्हारा समय शुरू होता है अब !’

सोने की ॠंखला में जकडे गरीब तोते ने अपनी बची खुची आँख मींच कर कुछ पल अपना मन एकाग्र किया फिर बोला, ‘मैं प्रस्तुत हूँ देवि पूछें जो भी पूछना है ।’

हिमुली ने चार प्रश्न पूछे जिनके हीरामणि कथाकार ने इस प्रकार उत्तर दिये :

‘पहला सवाल, कौन है जो राजा तथा प्रजा जब सोते हों तब भी नहीं सोता ?

‘ संपन्न देश में पूंजी का प्रवाह तथा निवेश राजा व प्रजा के सोते हुए भी नहीं सोता ।’

दूसरा, कौन से दो काम हैं जो विपरीत धर्मी हैं किंतु खडे रह कर ही किये जा सकते हैं ?

-‘युद्ध में जीतना और दूध उबालना दो विपरीतधर्मी काम होते हुए भी खडे खडे किये जाते हैं ।

तीसरा, कौन है जो निरंतर चलता है सबको चलाता है, पर उसके हृदय नहीं होता ?

-‘काल निरंतर गतिशील किंतु हृदयहीन होता है । जो उसके आगे आया, उसको उसने खाया ।’

चौथा, क्या है जो अचानक अकारण बढ जाता है ?

‘सत्ता में आने पर राजपुरुषों का धन बाढवाली नदी की भाँति अचानक अकारण बढ जाता है ।’

हिमुली संतुष्ट हुई ।

अगली प्रश्न ॠंखला :

-‘कौन है जो बहुत कम जानकारी और उससे भी कम श्रम के बल पर बहुत कुछ जाननेवाले और बहुत परिश्रमी से अधिक कमा लेता है ?’

उत्तर -‘साहित्य-कला समालोचक ।’

प्रश्न : ‘कौन नार चतुर कहलावे, मूरख को ना पास बुलावे, चतुर पुरुख ज्यों हाथ लगावे, खोल हिया वह आप दिखावे ?’

उत्तर : ‘पुस्तक ।’

प्रश्न : वह जिसके पैरों पडी, उसका मन घबराय, बडे कष्ट से पैर उठें और डगर न साधी जाय ?

उत्तर : ‘ बेडी ।’

प्रश्न : मित्रता की कैंची है ?

उत्तर: युद्धक्षेत्र में उतरने के उपरांत साधा गया स्वार्थी गठजोड ।

हिमुली पूर्णत: संतुष्ट हुई । और उसने अपने हाथ की सिद्ध मुद्रा तोते को छुआ कर उसके टूटे पैर को स्वस्थ कर दिया । फिर कहा, ‘सुन रे कथाकार, यह जानने के बाद ही कि तू बुद्धिमान् और वाक्चतुर दोनो है, मैंने तुझे इस भाँति स्वस्थ किया है । जानती हूँ तू सोचता होगा मेरी आँख कब स्वस्थ होगी ? वह भी होगा किंतु मेरा काम हो जाये तब । अभी बस इतना जान ले कि यह हिमुली मात्र जनकल्याण के लिये कुछ नहीं करती । अभी तुझे काना रखा है, ताकि तू पूर्णत: स्वस्थ हो कर अचानक विश्वासघात न करे ।

‘अभी मात्र तेरा टूटा पैर स्वस्थ बनाने का उद्देश्य तेरे सम्मुख उजागर करूं उससे पूर्व तू मेरा विश्वस्त बन कर तीन बार वचन दे, कि अब जो मैं तुझे बताती हूँ, उसे गोपनीय रखते हुए तू इंद्रप्रस्थ नगरी जा कर मेरा बताया काम सम्पन्न करेगा ।’

‘वचन देता हूँ, वचन देता हूँ, वचन देता हूं,’ तीन बार तोते ने कह कर हिमुली को प्रसन्न किया ।

अब हिमुली ने हीरामणि तोते को बताना प्रारंभ किया कि उसको क्या करना होगा । विस्फारित नेत्रों से हीरामणि ने उसको केवल सुना, वचनबद्धतावश कुछ बोला नहीं ।

हिमुली हँसी ।

-‘मैं जानती हूँ कि तू अपनी सुरक्षा को ले कर चिंतित है । पर भय न कर । जब तक तू राजभवन में है, मैं तेरे पास सशरीर न भी होऊं, तेरी परिचित अपनी कर्णपिशाची के माध्यम से हर समय तेरी खबर लेती और समुचित निर्देश देती रहूंगी । जिस भाँति भी हो हमको निश्चित समय के भीतर यह कार्य सिद्ध करना है ।

‘इंद्रप्रस्थ के महाप्रतापी अत्रभवान् सदासमरविजयी राजा लोलेश्वर सिद्धदास के राजमहल में जाने से तू डर मत । तुझे अकेला नहीं भेजती हूं । स्वयं तुझे वहाँ ले जा कर राजाधिराज लोलेश्वर सिद्धदास से मैं तेरा परिचय कराऊंगी ।

वे अश्वमेध यज्ञ कराना कराना चाहते हैं किंतु यह कोई आसान काम नहीं । उसके लिये जिस अकूत धन और भुजबल की आवश्यकता होती है उसका आयोजन करवा सकने की अपनी क्षमता से मैं अधुना उसकी विश्वासभाजन हूँ । मेरी भेंट जान कर वह तुझे मित्रवत् स्वीकार करेगा ।

अब हमको तुरत प्रस्थान करना होगा ताकि तू शीघ्रातिशीघ्र उसका सहचर बन जाये । और कालांतर में जब मेरे लिये कार्यसिद्धि करवाने का क्षण आये, तब तक तू उसका परम विश्वासभाजन और सहायक बन गया हो ।’

इतना कह हिमुली मत्स्यगंधा ने एक कौडी के कथाकार काने हीरामणि को पिंजडे में भीतर बिठा कर श्रृंखला से बाँधा और पिंजडा उठा लिया ।

वचनबद्ध हीरामणि ने भीतर से डरते हुए भी जातीय गुण के अनुसार तोताचश्मी का मार्ग गहना ही उचित माना । निर्विकार भाव से वह मुंबई नगरी के महान् वाहन निर्माता वणिक रत्नसेन के मित्र सहयोगी कल्पक के बनाये अद्भुत् वातानुकूलित वायुयान में हिमुली के साथ जा बैठा और अपनी एक आँख उसने बाहर के दृश्य पर टिका दी ।

वाहन चला, हिमुली ने कहना प्रारंभ किया ।

अथ अश्वमेध विषयक उपाख्यान :

‘ जैसा कि बंग देश के तेरे कथाकार बंधुजन कहते हैं, शुरू से ही शुरू करें । मैं अब अत्रभवान् सदा समरविजयी महाराजाधिराज लोलेश्वर सिद्धिदास की अश्वमेध यज्ञ कामना की कथा का वाचन शुरू से ही शुरू करती हूं जिससे मेरी लंबी राह भी कटे और तेरी जिज्ञासा का शमन भी हो । ध्यान से सुन ।’

यह कह कर शीतल सुगंधित मदिरा के सुवर्ण चषक् से घूँट भरती हिमुली ने काने तोते को उसकी प्रिय, एक तीती हरी मिर्च कुतरने के लिये पकडाई ।

‘संसार में हर कार्यव्यापार की जड में एक मूल बीज होता है । हमारी इस अश्वमेध कथा को प्रेरित करने वाला भी मूल बीज था एक दिवा स्वप्न । यह प्रसिद्ध स्वप्न वैशाख जेठ सुदी सप्तमी को राजसूय यज्ञ करने के बाद श्रम क्लांत यशस्वी महारथी महाराज लोलेश्वर सिद्धदास ने अर्धसुप्तावस्था में देखा था । स्वप्न में महाराज ने क्या देखा कि विश्व भर के राजे महाराजाओं से भरी सभा में वे ब्राह्मणों के स्वस्तिवाचन से गुंजित अश्वमेध यज्ञ में होम करते हैं । फिर एक सफेद हाथी की सूंड में थमे जल कलश से उनका मस्तकाभिषेक करता है और इसीके साथ स्वस्तिवाचन करते सात पुरोहित उन के सर पर चक्रवर्ती सम्राट् का मुकुट धर कर जयघोष करते हैं ।

‘जब उन्होंने अगले दिन अपने राजज्योतिषी को इस बारे में सूचित किया तो उन्होंने इसे महाराज की जन्मकुंडली देख कर उनकी आगामी सफल विश्वविजय का द्योतक बताया जिसकी सफलता के  प्रतीकस्वरूप चक्रवर्ती सम्राट् लोग अश्वमेध किया करते हैं ।

‘यह होना असंभव भी नहीं । अब तक परम प्रतापी महाराज लोलेश्वर ने अपने राज्य के आस पास के सभी राजाओं को पराजित कर अपने गोधन गजधन वाजिधन में अभूतपूर्व वृद्धि कर ली है । गोरक्षा से लेकर कृषि- वाणिज्य-वैदेशिक नीति, सब पर उनकी अपने पहले के राजाओं से कहीं गहरी पकड बनी हुई है । इसी सब के प्रचारार्थ कुछ वर्ष पूर्व राज्य के श्रेष्ठियों द्वारा विशेष सहयोग न मिलने पर भी उन्होंने एक भव्य राजसूय यज्ञ का सफल आयोजन करवाया था । तदुपरांत अकूत धन से राजकीय कोषागार तथा कोष्ठागार लबालब भरते जाने से सपना देखने के बाद से ही उनकी चक्रवर्तित्व कामना आकाश छू रही  है ।

‘ राज ज्योतिषी द्वारा स्वप्न का इतना सुखद फलादेश सुनकर उनके बाहु फडक उठे हैं । अगले ही दिन राजकीय घोषणा द्वारा उन्होंने मुद्रा का हठात् अवमूल्यन करा दिया ताकि वित्तीय सहायता देने में कृपण रहा नकचढा वणिक् वर्ग इससे कंपायमान और दाँतों में तृण दबा कर दुहाई देने को बाध्य हो । महाराज ने कल राजभवन में नगरसेठ अंबष्ठ तथा वणिक्श्रेष्ठ रत्नसेन मुंबा नगरी से इंद्रप्रस्थ के नगरसेठों के साथ गोष्ठी हेतु बुलाया । वहाँ पहले तो महाराज तथा उनके मंत्रियों ने नाना प्रकार से सेठों की खिल्ली उडाई । फिर उनको सूचित किया गया कि केंद्र को शत्रुमुक्त कर चुके महाराज लोलेश्वर सिद्धदास अब सभी शेष करदाता गणराज्यों को सर्वभूमि में मिलाते हुए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की स्वायत्तता समाप्त करेंगे क्यों कि वे भ्रष्ट हैं और नियमित कर नहीं देते ।

‘इसके उपरांत महाराज चाहते हैं कि वे सेना प्रमुख दुर्मुख महाभाग द्वारा नगाधिराज तक फैले समस्त म्लेच्छ देशों को अश्वमेध का घोडा भेजते हुए उनको भीषण युद्ध झेलने अथवा महाराज लोलेश्वर की आधीनता स्वीकार कर लेने की चुनौती दें । फिर अपेक्षित रूप से महाराज का निर्विवाद शासन सब कहीं स्थापित हो जाये तब एक विराट् भव्य अश्वमेध यज्ञ का आयोजन हो । उस यज्ञ में सभी अधीनस्थ शासकों सामंतों की उपस्थिति में शास्त्रोक्त विधि से वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा महाराज लोलेश्वर को सारी सचराचर धरा के सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् घोषित किया जाये ।

‘श्रेष्ठि समुदाय से जब यह कहा जा रहा था, तब महाराज ने उनकी ओर अपमानजनक ढंग से नाक से इंगित कर, ‘साथ दो, अन्यथा’ इतना जोड कर उनको इस अश्वमेध यज्ञ हेतु अपने समस्त संसाधनों को आदेशानुसार व आवश्यकतानुसार राजकीय पक्ष को हस्तांतरित करते रहने का कठोर आदेश और भी गंभीरता से रेखांकित किया ।

‘हे हीरामणि, मुंबा नगरी के उन दोनो उत्तम व्यवसायियों ने मुंबा नगरी लौटते ही मुझे तुरत बुलवा भेजा । रात जब हमने गुप्त विमर्श किया, तो मैंने उनसे कहा, बंधुवर, वेदव्यास के समय से आज तक मैंने अनेकों साम्राज्यों का उदय और पराभव देखा है । अश्वमेध तथा सम्राट् बनने की ऐसी उत्कट इच्छा का राजकीय मानस में समवेत उदय संकट की सूचना देता है ।

‘मुझे स्मरण होता है कि महाभारत के सभापर्व में ज्ञानी युधिष्ठिर ने कहा भी था कि सम्राट् शब्द से सावधान । यह शब्द, ‘कृत्स्नभाक्’ यानी सबको हडप लेनेवाला शब्द है । निश्चय जानें कि ऐसी सर्वभक्षी सम्राटत्व कामना तीनों भुवनों को बिना डकार हडपे बिना तुष्ट नहीं होगी । उसके बाद भी तृप्ति हो ही जाये इसका क्या भरोसा ?

‘थोडा कहती हूं, बहुत जानना । मैंने आप दोनो का नमक खाया है अत: कहती हूँ कि आप लोग बहुत सतर्क रहें ।’

-किंतु प्रजापालन? उसका क्या होगा ? दोनो ने पूछा ।

मैंने कहा : ‘प्रजापालन का काम करने को दंडविधान लिये राजा की आवश्यकता मैं भी स्वीकारती हूँ । अराजक राज्य जैसे बिना रस्सी का साँड । अराजकता अर्थात् मत्स्यन्याय । और यदि हर छोटी मछली बडी मछली का आहार बनने लगी तो धन धान्य वणिज व्यापार सबका नाश निश्चित है ।

‘हमको तो कुछ ऐसा उपाय करना होगा कि यह बलशाली योद्धा सिद्ध हुआ राजा सिंहासन पर बना रहे, किंतु उसकी लगातार ऊंची होती नाक और दंभी बनती वाणी आगे के लिये जहाँ तक संभव हो, छाँट दी जायें ।’

‘इस विमर्श के बाद हमारे बीच जो योजना मेरी सलाह से बनाई गई, उसे हे एक कौडी के तोते, सफलता से निष्पादित करना तुम्हारा दाय होगा । इसमें तुमको मेरे तथा कर्णपिशाची के साथ सारे श्रेष्ठिवर्ग का भी भरपूर समर्थन व निरंतर सहाय्य मिलेगा ।

‘यदि तुम गणराज्य, कृषकों तथा वणिकों के भले के अतिरिक्त स्वयं अपनी आँख को भी ठीक करवाने को उत्सुक हो, तो कहो, ‘हाँ करूंगा ।’

‘हाँ करूंगा,’ एक कौडी के कथाकार तोते हीरामणि ने हिमुली मत्स्यगंधा से तोताचश्मी त्यागते हुए कहा ।

‘चलिये’, हिमुली ने हँस कर वाहन चालक से कहा

अथ राजमहल की डेवढी का उपाख्यान :

रेशमी वस्त्र से आवेष्टित हिमुली जब सोने की ॠंखलावाला हीरामणि तोते का पिंजडा हाथ में लिये अत्रभवान् सदासमरविजयी महाराज लोलेश्वर सिद्धदास के राजमहल की डेवढी पर उतरी तो हीरामणि की आँख विस्फारित हो गई ! बाप रे, कैसा तो वैभवी राजद्वार था, जिसके पुष्प वितानों से सुगंधित रेशम की तिरंगी राजकीय ध्वजा से तरंगायित ऊपरी भाग में बैठे केसरिया पगडी पहने अनेक संगीतकार सुषिर वाद्य की सुमधुर ध्वनि से दिशाओं को दूर दूर तक गुंजायमान करते थे ।

जब साली डेवढी ही ऐसी है, तो कैसा होगा वह राज्यसभा कक्ष जहाँ साक्षात् महाराज स्वयं विराजते हैं ? अभिभूत हीरामणि सोचने लगा ।

यान से उतरते ही आर्या हिमुली के साथ उसका भी भव्य स्वागत डेवढी पर तैनात स्वर्णालंकारधारी लंबे केशवाली छरहरी युवतियों की एक टोली द्वारा किया गया । पहले उन पर पुष्पवृष्टि की गई फिर मंत्रोच्चार सहित उनके ललाट पर कस्तूरी तिलक लगाया गया । कपाल पर कोमल हाथों से लगाये जा रहे सुगंधित चंदन लेप का स्पर्श एक कौडी के उस कथाकार को आपादमस्तक सिहरा गया । वह अपनी स्वभावगत चंचलता से नेत्र मटका कर युवतियों की चंपाकली सरीखी उंगलियों को चंचु से सहलाने जा ही रहा था कि आर्या ने उसे उसकी पूंछ खींच कर भृकुटिचालन कर रोका । असंयमी आचरण पकडा जाने से लज्जित कथाकार तोता तुरत रुक भी गया ।

अनेक अभिवादन स्वीकार करने के बाद आर्या हिमुली के साथ हीरामणि का पिंजडा अब डेवढी के पार अनेक छतनार वृक्षों और फूलों से सुशोभित एक विशाल उपवन के बीच आया ।

‘यह राजधानी का गर्व, लोध्र उपवन है । अनेकों दुर्लभ वृक्षों तथा अनेकरंगी सुगंधित पुष्पों की वाटिकाओंवाले केवल अतिविशिष्ट नागरिकों के लिये खुले इस उपवन को महाराज के एक यवन मित्र तुरुष्क राजा लोध्र के द्वारा भेजे गये कुशल वास्तुकारों तथा मालियों ने कई वर्ष तक कठिन परिश्रम व कौशल से रचा है ।

‘यह महाराज का प्रिय उपवन है, जहाँ वे प्रतिदिन प्रात: भ्रमण करते हुए अपने महत्वपूर्ण राजपुरुषों के बीच अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण राजकीय कार्य भी संपादित करते हैं । इसलिये तुमको यह स्थान दिखाती हूँ । हम यहाँ कुछ पल रुकेंगे ताकि तुम इसको भली तरह देख जान सको ।’ हिमुली ने कहा ।

‘और ?’ तोते ने पूछा ।

हिमुली हँसी, ‘तू चतुर है रे, रहस्य का छोर तुरत पकड लेता है ।

‘हर सुबह लोध्र उपवन में राजा के महल चले जाने के बाद उनके निकटस्थ माने जानेवाले इंद्रप्रस्थ के सभी बडे श्रेष्ठिजन, अमात्य, राजदूत तथा बडे राजपत्रित कर्मचारी प्रात: भ्रमण को अपने अपने विश्वस्त मित्रों की टोली सहित यहाँ आते हैं और परस्पर गुपचुप मंत्रणा करते हैं । फिर उनके पीछे आते हैं राजधानी के अनेक चतुर सुजान मध्यस्थ लोग । ‘यह मध्यस्थ लोग वाणिज्य कार्य का मेरुदंड होते हैं । कब कहां किस राज्याधिकारी से किस प्रकार की गोपनीय किंतु हितकारी जानकारी किस तरह पाई जा सकती है, इसमें वे निष्णात् होते हैं । उनके दिये राजसी भोज तथा उनकी पाली हुई अप्सरा सरीखी गणिकायें बडे बडे यतियों का तपोभंग करा चुकी हैं ।

‘यह गुणीजन राजधानी में लोध्र उपवन घूमने के बहाने यहाँ आनेवाले अति विशिष्ट लोगों के बैठने के स्थान के पीछे, कुछेक कुंजों की पूर्ण जानकारी रखते हैं । निरंतर गुप्त रूप से बैठ कर उनका वार्तालाप सुनने से वे हमको अनेक प्रकार की सूचनायें देते रहते हैं यथा महाराज इन दिनों क्या सोचते हैं ? किसे अधिक कृपाभाव से देखते हैं ? कौन किस विभाग को स्थानांतरित होने जा रहा है ? किसकी उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है ? और यह भी, कि किस श्रेष्ठि का पोषित राजपुरुष या सामंत किसकी प्रगति में अडचन डालने को किस प्रकार की कूटचालों का ताना बाना बुन रहा है ?

‘इंद्रप्रस्थ में इसे म्लेच्छ भाषा में कहते हैं, सेंस ऑफ दि हाउस । यह जानकारी कितनी अनमोल होती है अब यह तुम समझ लो ।’

हिमुली और हीरामणि भी यह वार्तालाप करते हुए एक गुप्तवार्ताश्रवण निकुंज में जा विराजे । झाडियों के उस पार कुछ गुट बात करते सुने जा सकते थे ।

-‘क्यों न होऊँ कृश और विवर्ण मित्रो ! महाराज ने किसी अंधे सारथी के अश्व की भाँति मुझे उलटे जुए में बाँध रखा है । जो मुझसे छोटे हैं, वे वेगवान् गति से बढ रहे हैं, और मेरे जैसे वरिष्ठजन काम करते हुए छीज रहे हैं फिर भी जब सेवा के विस्तार की चर्चा उठती है, तो मुंबानगरी के सेठों का टुकडखोर कुत्ता साला ससुर का नाती कुमुदचंद्र महाराज के सामने आकर कहता है कि अपवादस्वरूप यह करना सारे अमात्यवर्ग के लिये बुरा दृष्टांत बनेगा । बस बरसात में भींगे भूसे की तरह मेरा काम बिगड जाता है ।’

‘अहो, यह तो महामात्य कर्कट का स्वर है,’ हिमुली ने कहा, ‘चलो, कुमुदचंद्र ने वचन के अनुरूप काम कर दिया । अब तो इसकी राजभवन से छुट्टी हुई । वणिक समाज का काँटा यह खुचडिया वृद्ध निकल गया तो हमारे लिये अपना काम साधना सहज होगा ।’

बहुत कुछ अनर्गल बकने के बाद महामात्य ने जो कहा उसका सार था, कि उसके पास पुष्ट प्रमाण हैं कि महाराज के आगे पीछे मधुलोभी भ्रमर की तरह घूमते इन नगरसेठों की संपदा बिना जोखिम और युद्ध के, केवल हस्तलाघव तथा राजकृपा से कमाई जाती रही है ।

‘फिर भी उनकी धृ्ष्ठता देखो ! अब वे अपने कराधान के विवरण येन केन राजकीय परीक्षण से अलग बनाये रखना चाहते हैं । निजी हाथों में इस प्रकार अर्जित इतनी अनैतिक संपत्ति निरंतर बढने दी गई तो यह राष्ट्र में कभी अनर्थ और घोर कलह भी पैदा करा सकती है ।

‘पर कष्ट यह, कि मैं बिना धर्म्य मार्ग को छोडे इन लोगों की अकूत संपदा राजकोष में किस तरह खींची जा सकती है इसका विश्वास महाराज को कराने में सफल हो भी जाऊँ, उसी समय कोई भेंगा कुमुदचंद्र या मत्स्यगंधा हिमुली सरीखा कुटिल प्रतिनिधि आ टपकते हैं और महाराज की बुद्धि को गडबडा जाते हैं ।

‘इसीसे आज आप सब प्रिय मित्रों को कहता हूं, दैव प्रतिकूल हो तो रोग और मौत राह नहीं जोहते । अत: जब तक मेरे पास राजपद है, मुझसे आप अपने अपने हित में काम करवा लो । काम हो गया तो मेरे भाग का श्रेयस् अंश किस भाँति में किस हुंडी में डालना होगा मेरे विश्वस्त सचिव आपको सदा की भाँति सूचित कर देंगे ।’

धन्यवाद प्रस्ताव सहित मंडली विदा हुई ।

कुछ क्षण बाद एक और मंडली झुरमुट के उस पार आन विराजी । उनकी बातचीत सुनती हिमुली ने काने कथाकार को बताया, कि यह कतिपय सेवानिवृत्त वित्तकोषीय महाधिकारी तथा दंडाधिकारी लोग थे । बातचीत से वे सभी राज्य में बढती अराजकता और युवा वर्ग में सुरापान, नाच रंग तथा मांसाहारी खानपान की प्रवृत्ति से चिंतित सुनाई देते थे ।

‘सारी गडबड तब से शुरू हुई है जब से यह मद्र तथा पांचाल क्षेत्र से उजाडे गये लोग यहाँ इंद्रप्रस्थ में आन बसे । स्वभाव से ही वे झूठे, कुटिल और दुरात्मा होते हैं । वही हाल उनकी संतानों का है ।’

‘अब अक्षौहिणी के सैन्य प्रमुख को ही देखो जब से राजसूय यज्ञ हुआ और उसको महाराज द्वारा परम विशिष्ट सेवा पदक से सम्मानित किया गया, साले की छाती बावन हाथ की हो उठी है ।’ किसी ने कहा ।

दूसरा बोला, ‘ उधर जलमलव्ययन विभाग के मुख्य अभियंता या राजस्व विभाग के आमात्य या शस्त्रागार के मुख्य प्रभारी को भी देखो । लंठों ने माँ- बाप- बेटे- साले- भाई सबको धनार्जन में लगा कर लुटेरों की तरह उनके नाम से रत्न, स्वर्ण, भूमि तथा शस्त्रास्त्र की खरीदी और विक्रय कर तथा विदेशी माल के आयात निर्यात में नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए कैसी इंद्र सरीखी अकूत संपदा बना ली है । अब उनकी संतानें सुरापान से उन्मत्त हो आर्य कल्पक निर्मित मँहगे महिलाओं से बलात्कार और सडक चलतों की हत्या करती साँड सी निडरता से फिर रही हैं । कोई उनको नहीं पकडता । कह देते हैं कि अमुक महिला तो स्वैराचारी गणिका थी । भला गणिका व्यभिचार की शिकायत कर सकती है ? और सडक पर जो वाहन से टकरा कर मरे, वे सब आत्महत्या करने के इच्छुक थे । अब इसमें बेचारे वाहनचालक का क्या दोष ?’

कुछ क्षण वहाँ और बिता कर, अपने अजीर्ण, वायु विकार, घुटनों के कष्ट तथा रक्तचाप के उतार चढाव गिनवा कर जब वे वृद्धजन भी चले गये, तो अचानक उमडी सुगंधि की लपटों से लगा कि कुछ कमनीय युवतियाँ खिलखिल करती वहाँ बात करने आ जमा हुई हैं ।

हीरामणि ने गहरी श्वास खींच कर सुगंध को नासिका पुट में भरा और आनंदित हुआ ।

-‘यह महाराज भी ना -!’ इतना मात्र कह कर कोई युवती हँसी । उसके साथ की अनेक दूसरी कलकंठिनियाँ भी खिलखिलाईं । एक चतुरा बोली, ‘बाहर बाहर का संयमी साधुत्व है इस नगर में सब वृद्धों का, तनिक छू भर दो तो लिपटने लगते हैं ।’फिर उसने जो अश्राव्य गाली दी उसे सुन तोता चकरा गया !

‘और क्या ?’ , कोई अन्य सुंदरी बोली, ‘ युवा तो तब भी कुछ समय बाद खुलते हैं । इन बूढों के सौ सौ चोंचले ! उस दिन यहीं उस लंपट विदेश व्यापार विभाग के अमात्य ॠतुपर्ण ने अकेली देखा तो ‘हमको न भुलाना सुंदरि ! कहते हुए मेरा उत्तरीय खींच कर बाँहों में भर प्रिये प्रियतमे कहते हुए मेरे अधर चूम लिये । लज्जाहीन कहीं का ! बेटी ब्याह दी पर स्वयं को अभी भी रासलीला का कृष्ण समझता है । मैंने भी एक चौंसठबानी हीरे की अंगूठी तो झटक ही ली कलमुँहे से ।’

‘मैंने तो सुना है कि वह महाराज के राजवैद्य को गुपचुप एक झोली सुवर्ण दे कर अपने लिये भी उनकी ही सी पौरुषवर्धनी बटी बनवाता है ।’

-‘पता नहीं, मुझे तो हला वज्जिका कहती थी उस वटी से भी कुछ नहीं ..’

‘चलें, हमारी रसमयी बातें तो समाप्त ही नहीं होतीं । पर इस गात का जतन करना सर्वोपरि है । इस सप्ताह अनेक गोष्ठियों में सुरापान तनिक अधिक ही कर लिया गया । उसकी खुमारी मिटाने को अभी दो घटी तक बिन बोले भ्रमण आवश्यक है ।

‘अयि, तूने मेरे लिये अपना जैसा रक्तवर्ण चीनाँशुक अपने नये आर्यपुत्र से मँगवाया क्या ? भूली तो नहीं ?’

‘नहीं जी, हाथ लगे अपने लिये भी रुम्म देश से तेरा जैसा कटि आभूषण मँगवा लिया ।’

‘ धन्यवाद सखि, चल फिर मिलते हैं ’, आदि कह कर सुंदरियाँ विदा हुईं ।

हिमुली तथा हीरामणि बाहर निकले और सभा कक्ष की ओर चले ।

‘अहो, कैसी पापों से भरी नगरी है यह !’ साँस भर कर कथाकार ने कहा ।

हिमुली कुछ पल उसे घूरती रही ।

‘देख कथाकार दाई से पेट मत छिपा ! तेरी रसिकता और नारी लोलुपता तेरी इस इकलौती एक आँख से भी टपकती रहती है । सो तू तो चरित्र प्रमाणपत्रदाता न्यायाधीश मत ही बन । तुझे अपनी रचना के लिये जैसी सामग्री मिली है अब तू एक पूरी प्रबंधकथा रच सकता है उसके बल पर ! बोल, क्या असत्य कहती हूं ?

‘अपि च, यह उपवन जो है राजनीति की चौपड है । इस चौपड पर छल कपट द्यूत सुरा सुंदरी इन सबके बिना न साम्राज्य जीते न ही हारे जाते हैं । जो बिना अनुकूल प्रतिकूल की चिंता के सिर्फ छलवाले पाँसे की गणना करता रहे, वही जन यहाँ सफल पाली खेलता है । समझा ?

‘हाँ, यदि तू अकारण नैतिकता की दुहाई देकर काम करने से बचना चाह रहा है, तो अभी से मुझे बता दे, तेरी टाँग को पुन: पहले जैसा बना कर तुझे उसी वन में छोड आऊंगी जहाँ तेरे कपटी परिवारजन बसते हैं ।’

‘नहीं नहीं देवि,’ सिहर कर एक कौडी के तोते ने कहा , ‘मेरा आशय यह कदापि न था । फसल बारिश के आधीन है यह जानते हुए भी मेघ की कृपा न हो तो भी किसान तो खेत जोतता ही है । मैं तो अक्षरश: आपकी आज्ञा का पालन करूंगा । जानता हूं कि आपकी तथा मुंबा नगरी के महा वणिकों की संयुक्त महिमा ऐसी है कि हमको सिद्धि मिलेगी ही । ’

हिमुली ने सर हिलाया, ‘तब ठीक है । किंतु आगे से यह नैतिकता सदाचार की बातें तू अपने पाठकों को छलने के लिये अपने पंखों के बीच वापिस रखियो । यह वनवासी वृद्धाश्रम नहीं, मयदानव विरचित नगरी इंद्रप्रस्थ है जहाँ सदा से सत्ता का चौपड इसी भाँति खेला जाता रहा है ।’

अब तक वे दोनो एक भव्य प्रतीक्षा कक्ष के द्वार पर आ पहुँचे थे ।

‘यहाँ वे ही भाग्यवंत जन आते हैं जो महाराज के रक्षक मंडल द्वारा जाँचे परखे हुए होते हैं और विशिष्ट राजकीय मुद्रा धारण करते हैं । सामान्य तोता तो यहाँ पर भी नहीं मार सकता ।’

कक्ष में घुसते हुए हिमुली ने काने एक कौडी के तोते से कहा, ‘अच्छी तरह देख ले । एक एक कर इन सबको तुझे सही व्यवहार से पराजित करना होगा । राजपुरुष को नम्रता से, अमात्यों को भेद से, राज्याधिकारियों को कुछ टुकडे डाल कर और बराबरीवालों को बात की जगह लात मार कर ।’

यक्षिणी तथा तोता एक दुर्लभ रेशमी यवनिकाओंवाले गवाक्ष के पास एक देवदारु निर्मित सुवरण मंडित पीठिका पर जा बैठे । कक्ष से आते जाते सभी विशिष्ट जन आर्या हिमुली को हँसते हुए अभिवादन करने के बाद भीतर जाते या बाहर जा अपने अपने यानों में बैठ रहे थे । एक कौडी का काना तोता उनको विस्फारित नयन बन देखता रहा । ऐसा वैभव , ऐसी उत्कट चतुराई उसके बाप दादाओं ने भी कब देखी थी ? ‘धन्यभाग सेवा का अवसर पाया, जी पाया ।’ उसने स्वत: कहा ।

प्रतीक्षा के क्षणों में भी हिमुली उसे मंद स्वरों में आते जाते महाभागों का परिचय देती रही :

‘यह असम गणराज्य के प्रमुख बाहुक हैं, जो महाराजा को सफेद हाथीदाँत की मूंठोंवाली तलवार, गैंडे के सींग का दुर्लभ चूर्णभरा स्वर्णपात्र तथा जंगली बिलावों के चमडे के बने उत्तम शीतकालीन वस्त्र का उपहार दे कर आ रहे हैं । उनके साथ वह साँवला सलोना किशोर त्रिगर्त के राजकुमार सुदेव हैं जो चीन, बाल्हीक तथा कंबुज देश के राजदूतों से संपर्क सेतु बनाते हैं और अब कोमल वयस में ही किसी बडे म्लेच्छ देश में राज्यकीय कार्यपाल नियुक्त होने जा रहे हैं ।

‘यह डेढ अंगुल के कपालवाले गंजे भीमकाय जन, जिनकी भूधराकार तोंद पिंगलवर्णी मोतियों से सुशोभित है, भारतीय मूल के मोती के व्यापारी हैं जो श्रीलंका से राजा को अनेक भेंटें देने आये हैं । अब मिलने जा रहे हैं । इनका साला अभी हाल में चीन से प्रतिबंधित सामग्री की तस्करी करते हुए पकडा गया है । निश्चय ही उत्तमोत्तम मोतियों की भेंट के साथ वे उसकी छुडवाई की याचना करेंगे ।’

‘यह गेरुए वस्त्र पहने सोने की खडाउंओं पर चलती दो आकर्षक महिलायें पहले विख्यात गणिकायें थीं, कोशा तथा उपकोशा । अब महाराज के कहने से दोनो ने दीक्षा ग्रहण कर ली है और उनके आदेशानुसार ही उनके निर्दिष्ट विशिष्ट पुरुषों के साथ रमण करती हैं । सुनते हैं कोशा चतुर विषकन्या है और उसने कई राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त चरित्रहीन राजदूतों की राजकीय आदेश से हत्या की है । उपकोशा यवन देश के मित्र राजाओं से अयुद्ध संधियों पर हस्ताक्षर कराने के लिये विशेष रूप से शिक्षित की गई है । सुनते हैं यवन देश के कई विशिष्ट पुरुष इसे अपनी समस्त संपत्ति देकर अपनी अंकशायिनी बनाने का प्रस्ताव भी दे चुके हैं, पर यह राष्ट्रप्रेमी है और स्वदेश से अलग होने की इच्छुक नहीं ।’

एक लंबी काठी का तनिक झुकी पीठ और लकीरों भरे माथेवाला बुज़ुर्ग जन तभी अनेक रेशमी लाल वस्त्रों में लिपटे राजकीय ताडपत्र का अंबार उठाये कक्ष में आया तथा वहाँ बिना क्षण भर को रुके सीधा भीतर जा घुसा ।

‘बस अब इसके बाद हमारी बारी ।’ आर्या हिमुली ने काने तोते को बताया । ‘ यह महाभाग महामात्य कर्कट हैं । हाँ वही जिनके मधुर स्वर हमने अभी कुछ क्षण पहले लोध्र उपवन में सुने थे । अब यह चेष्टा में हैं कि सेवा विस्तार न सही किंतु किसी बडे राज्य का राजपाल ही इनको बना दिया जाये ।’

कुछ देर तक कक्ष में शांति रही । तदुपरांत महामात्य अतिव्यस्तता का नाट्य करते सीधे तीर की बाँति जैसे आये थे निकल गये !

‘पांषड देखा इसका ?’ हिमुली फुसफुसा कर तोते से बोली । यह जानता है, हमारा परिसंघ इसकी छुट्टी कराने के उद्देश्य से प्रयासरत रहा है । इसी से लंठ मेरी देखी अनदेखी करता जा निकला । तेरी तो- !’ आर्या ने जो गाली दी उससे फिर तोते का माथा घूम गया । आह इंद्रप्रस्थ, तेरी लीला ही अजब ! उसने सोचा ।

तभी आर्या हिमुली के कहे अनुसार भीतर से एक राजकीय वेशभूषावाला नृत्य करते मोर सी छितराई पुच्छदार पगडीधारी एक नम्र भृत्य बाहर आया । ‘अब कक्ष में महाराज एकाकी हैं, आर्या को याद किया है ।’ उसने भूमि की ओर देखते हुए कहा और पिंजडा उठाने को प्रलंब बाहु बढाया ।

‘नहीं बंधु’, बडे ही मधुर स्वर में हिमुली बोली, ‘यह विशिष्ट उपहार मैं स्वयं अपने हाथों से महाराज को देना चाहती हूँ ।’

‘जो आज्ञा’, कह कर भृत्य ओझल हुआ ।

अथ हिमुली लोलेश्वर हीरामणि मिलन उपाख्यान :

हिमुली जब उसका पिंजडा अपने मृणालदंड सरीखे कोमल बाहुओं में लिये महाराज लोलेश्वर सिद्धराज की सभा के अंतरंग कक्ष में घुसी तो ही हीरामणि कथाकार समझा कि यह सभा मणिकांचनी नाम से किस लिये प्रसिद्ध थी ।

महाराज का सभाकक्ष मय दानव के बनाये इंद्र के सभाकक्ष से भी उत्तम सोने से मढे अस्सी खंभोंवाला एक इंद्रलोक तुल्य स्थान था, जिसकी दीवारों पर सौ विशाल दीपलक्ष्मियाँ सोने के मणिजटित दीप उठाये हुए उत्कीर्ण की गई थीं । सभी लक्ष्मियों के अगल बगल सीप जैसे कानोंवाले यक्षों की प्रतिमायें थीं जिनकी आँखों में हीरे जडे हुए थे और जिनके मुख से सुवासित जल के फव्वारे फूटते थे जिनका जल उनके हाथों में थमे चाँदी के विशाल कटोरों में जमा हो कर कक्ष के चारों ओर सुवास फैला रहा था ।

‘महाराज की जय हो !’ हिमुली ने मधुर स्वर में कहा ।

सभाकक्ष में एक विराट् मयूराकृति सिंहासन पर विराजे महाराज ने अपने अलसाये धवल केशों पर हाथ फेरा और उनके पके हुए अमरूद सरीखे विशाल अधरपुट हँसी जैसे भाव में तनिक फैल गये किंतु गर्वीली आँखें वज्र सम कठोर तीखी बनी रहीं ।

धन्य हो महाभाग ! कथाकार तोते ने सोचा ।

‘कैसी हो देवि ?’ महाराज ने मेघ गंभीर, कुछ कुछ सानुनासिक सुर में पूछा ।

‘कृपा है प्रभो ! हर समय आपकी कुशल भी नेक चाहती हूँ ।’ कहते हुए हिमुली ने पिंजडा महाराज के चरणों में रख कर माथा टेका । महाराज पुन: हँसे से ।

‘पुरुषार्थ से सब संभव है आर्ये । राजसूय यज्ञ सफलता से प्रतिपादित कर चुका हूँ । मेरे अतुलित पौरुष प्रदर्शन से आस पास का समस्त शत्रुबल क्षीण होते हुए लुप्त हुआ है । राजपुरोहित का यह कहना है कि मेरी लग्नपत्रिका में स्वगृही भौम अपनी कक्षा में उत्तम बंधु ग्रहों द्वारा दृष्ट होने से आज कोई कुछ भी करे, मेरा समय उत्तमोत्तम ही चलेगा । कुंडली में मेरा प्रबल शत्रुहंता योग बना हुआ है । शत्रु टिक नहीं पाते स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं । अत: अब आनेवाले समय में मेरी इच्छानुसार मेरा अश्वमेध यज्ञ भी ऐसा होगा जैसा इस लोक में कभी हुआ ही नहीं ।

‘अब तो मेरे जैसे बलिष्ठ शासक के आगे वायु जल भी अनुकूलता दिखलाने में विलंब नहीं करते । राज्य में इस वर्ष वृष्टि ही प्रचुर हुई है । कृषि उत्तम होगी । यज्ञ पूर्व ही अन्य सारे देवता भी लगता है, मेरे पक्ष में आ खडे हुए हैं । मंत्र से न्योतूंगा तो मेरे अश्वमेध यज्ञ के लिये पूषन् वरुण, अग्नि सब स्वयं दौडे आयेंगे । लोमश वक्षस्थल देखा है मेरा ? सिंह समान । इसको सामने अडा कर मैं सारे समुद्र का जल थाम कर अपनी अक्षौहिणी सेना को पल में पार उतार सकता हूँ ।’

तभी अत्रभवान् राजराजेश्वर की दृष्टि हीरामणि पर पडी । ‘यह पिंजडा कैसा ? क्या इसमें यह शुक है ? मेरे मनोरंजनार्थ ? पर अहो यह तो काना है ! राजकीय उपहार में विकलांग पक्षी कैसा ?’

‘आप सरीखे तपस्वी मनस्वी महाराज को मनोरंजन की दृष्टि से खंडित उपहार देने का दुस्साहस कौन करेगा ?’ हिमुली का स्वर गंभीर हुआ । ‘यह तो एक विशिष्टातिविशिष्ट दिव्यांग शुक है, काने दैत्यगुरु शुक्राचार्य का वंशज और परम ज्ञानी ज्योतिषी भी । इनके वंश में सभी वंशधर एक आँख वाले तथा महापंडित होते आये हैं ।

‘हीरामणि इसका नाम है और इसको विशेष रूप से लाने का विशेष कारण है । आपका राजसूय यज्ञ निर्विघ्न हो, इस उपक्रम में यह निरंतर स्तुतिवाचनादि द्वारा आपको तथा ग्रहों को प्रसन्न किया करेगा । श्रेष्ठिवर रत्नसेन ने इसकी ख्याति सुनकर इसे गाँधार से बहुत बडा मोल देकर मँगवाया तथा आपको उपहारस्वरूप भेजा है ।

‘हीरामणि, पुत्र, महाराजाधिराज की प्रशस्ति में कुछ नया कहो तो !’

हीरामणि हतप्रभ सोचता था कि क्या कहे, जभी उसके कानों में कर्णपिशाची उत्तर फुसफुसा गई ।

लहक कर काना कथाकार उच्च स्वर में बोलने लगा :

‘अहो, सिंह समान गर्वी, विष्णु समान कौस्तुभमणि दीप्त वक्षस्थलवाले महाराज के लिये वैसे तो कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाना होगा । जिन विश्वविजेता का नाम ही लोलेश्वर हो उनकी प्रजा के लिये प्रस्तुत है एक नया नारा :

‘हम तुम बोलें तुम हम बोलें, बम बम लोले ! बम बम लोले !’

महाराज हँसे । उनके नेत्रों में चमक आई । ‘अहो उत्तम उपहार है, रत्नसेन से कहना स्वीकार्य है ।’

यह कह उन्होने एक हाथ से हीरामणि का सर छुआ ।

हीरामणि की जान में जान आई । हिमुली हँसी वह अब महाराज के आसन के अतिनिकट उनके चरणों में जा बैठी जहाँ से लोलेश्वर सिद्धिराज के लिये उसके सयत्न गिराये उत्तरीय के ऊपर उभरे हुए उन्नत पीन पयोधरों पर अविरल दृष्टिपात करना संभव था ।

जिय रे राज्जा ! हीरामणि ने सोचा । वाह री हिमुली मत्स्यगंधा !

‘कक्ष खाली हो और महाराज की आज्ञा, तो कुछ गुप्त समाचार कथन प्रारंभ करूं ?’ बहुत मंद स्वर में हिमुली ने बिना महाराज की ओर दृष्टिपात किये कहा ।

महाराज लोलेश्वर ने दो बार करतल ध्वनि की । उसीके साथ कक्ष से अंगरक्षक भी जाते रहे ।

अब कक्ष में वे तीन प्राणी ही थे । अहो, कैसी महिमा है इस मत्स्यगंधा यक्षिणी की ! एक कौडी के कथाकार ने यह देख सुन कर सोचा, और नारी शक्ति के आगे मन ही मन अनेक बार नतमस्तक हुआ  उसने देखा कि बिना समय खोये आर्या हिमुली सिंहल द्वीप में कनक अटारी पर निबुक चढे कपिवर हनुमान की भाँति एक सरसराहट के साथ उचक कर महाराज की गोद में जा दबे स्वर में उनसे वार्ता करने लगी थी :

‘महाराज, राजसूय महायज्ञ में मनस्वी पंडितों तथा कुलगुरु के मार्गदर्शक मंडल से परामर्श नहीं किया जाने से लोध्र उपवन में कहा जा रहा है कि वे सब अभी तक खौंखियाये बैठे हैं । अश्वमेधिक अभियान से पूर्व इसका परिमार्जन होना अच्छा रहेगा । अपि च, निरर्थक ही सही, किंतु सादर परामर्श के नाटक के बाद उनका क्रोध सार्वजनिक रूप से विसर्जित नहीं, तो अकारण अवश्य मान लिया जायेगा । तब महाराज जनापवाद भय के बिना बूढों की ओर से ध्यान हटा कर उनको वनवास दे सकते हैं ।

‘प्रजा के बीच राजकीय साख बहाली के बाद फिर दिग्विजय का समय आयेगा । गांधार देश से मंगवाया शास्त्रों के अनुसार उत्तमगुणों से युक्त श्वेत अश्वमेधी घोडा मुंबा नगरी पहुँचने ही वाला है । उसे मैं स्वयं ले कर आऊंगी । युद्धवार्ता हेतु वह अश्व छोडते समय महाराज उसके साथ भेजे जा रहे सेनापति अक्रूर को कन्नौज से वाराणसी तक के क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने का निर्देश दें । कारण यह, कि मुझे सूचना मिली है कि वहाँ पर उस क्षेत्र के अधिपति दुष्टराज माकंदीपुत्र हल्ल तथा विहल्ल अपने चारों ओर खिंची जातीय बंधुओं की अभेद्य ॠंखला के पीछे चट्टान बने बैठे हैं ।

‘मेरे सूत्रों के अनुसार उनके भी कुछ दूत तुरुष्क देश में अश्वमेध के श्वेत अश्व की खरीदारी को भी भेजे जा चुके हैं और साथ ही वे शस्त्रास्त्रों का विशाल भंडारण करते बताये जा रहे हैं । अपनी शक्ति का गलत अनुमान लगानेवाले माकंदीपुत्रों का मन अस्वस्थ है महाराज । अत: आप मेरा थोडा कहा बहुत जानें क्योंकि उन दो भाइयों का अपने जातिभाइयों से संरक्षित समवेत बल भी कोई कम नहीं है । नीत्यानुसार उनको अपदस्थ करने से पूर्व दुष्ट माकंदी की दूसरी पत्नी तथा विहल्ल की माता द्वारा भाइयों के बीच वैमनस्य करवा देना उचित रहेगा ताकि अश्वमेधी अश्व के वहाँ पहुँचने से पहले ही उनके सहयोगी व अक्षौहिणी बँट जायें । आर्य अक्रूर दो फाट कर दिये दोनो टुकडे विपरीत दिशाओं में फेंकवा दें ताकि जरासंध की ही तरह वे पुन: जुड न सकें । मेरी भेजी गई गुप्तचर महिलायें काम पर लगी हैं । वे हल्ल विहल्ल के कान भर कर सुनिश्चित कर चुकी होंगी कि दोनो में से कोई दूसरे भाई की रक्षार्थ शस्त्र न उठायेगा ।

‘दिग्विजय की घोषणा का बडा महत्व होता है । अत: उसे पूरी भव्यता से करवाया जाये । इसके लिये मुंबानगरी से चयनित विशिष्ट प्रचारक शीघ्र ही प्रस्तुत किये जायेंगे । उनके घर घर कराये जानेवाले स्तुतिगान के साथ ही तीन भुवन व चारों दिशाओं में इस हीरामणि शुक से भी स्तुति परक वक्तव्य रचवा कर उच्च स्वरों में महाराज के पक्ष में सतत प्रचार अभियान भी प्रारंभ होना आवश्यक है । यह सारा कार्यव्यापार निश्चित ही बहुत धन संसाधनों की अपेक्षा रखता है, किंतु महाराज आश्वस्त रहें । आपके साम्राज्य स्थापनार्थ, देशप्रेम के मूर्त रूप आर्य अंबष्ठ तथा रत्नसेन ने मुझसे आपको यह विशेष रूप से सूचित करने को कहा है कि वे इस बार पुरानी त्रुटि नहीं दोहरायेंगे । अश्वमेध यज्ञ के हेतु श्रेष्ठिगण अपने समस्त जातीय बंधुओं तथा धनबल को राष्ट्रहित में नियोजित करने को तत्पर हैं ।

‘यज्ञ की सामग्री, यज्ञपात्र, मंगलात्मक पदार्थ तथा अन्नों की सूची महाराज की कार्यशाला से हिमुली दासी ले लेगी फिर उस सबकी समय रहते व्यवस्था कर लेना उसका निजी दाय होगा ।

‘इसके अतिरिक्त कितने ॠत्विज, स्तुतिवाचक तथा जातियाँ न्योती जायें, चारों दिशाओं को किस प्रकार के सुंदर लिखाईवाले निमंत्रणपत्र यथासमय भेज दिये जायें, राजमार्ग तथा वीथियों की सज्जा आदि का दाय भी हिमुली तथा मुंबानगरी श्रेष्ठिसंघ का होगा ।’

अपनी कानी आँख से तोते ने महाराज का मुख हास्य से उद्भासित होता देखा ।

हिमुली ने भी देखा ।

-‘ इतर क्या कहूँ । महाराज तो सर्वज्ञ हैं, उनकी क्रीत दासी यह अकिंचन हिमुली यक्षिणी उनको अतिरिक्त ज्ञान क्या दे सकती है भला ?’

‘तुझसे यही अपेक्षा थी मेरी यक्षिणी,’ कहते हुए महाराज लोलेश्वर ने हिमुली का सुदीर्घ आलिंगन किया ।

तोते के गुलाबी पडते कान में कर्णपिशाची बोली, छी: छी: ! बूढा बाहरखाने विरक्ति का कैसा कैसा तो नाटक करता है !

‘माँग क्या माँगती है !’- तुष्ट तृप्त, दीप्त पके हुए दो कदलीफलों सरीखे मुख से शब्द आये ।

हिमुली ने वस्त्र संयत किये, मुख पर करुणा के भाव लाई और शीश नवा दिया, ‘महाराज मेरे इस अनाथ, किंतु शुक्राचार्य के इकलौते वंशधर एक आँख वाले तोते की रक्षा करें ।

‘किया । और बोल-‘ महाराज विहँसे ।

राजा है खुर्राट् ! तोते ने सोचा ।

हिमुली मुस्कुराई ।

‘हमारे महाराज से क्या छिपा है ? संभव हो तो बस तनिक महालेखाधिकारी तथा कराधान प्रमुखों को अभी बुला कर निर्देश दे दिया जाये कि राष्ट्रहित में दूर दूर से माल आयात मँगवाने में निरंतर उपक्रम करते हम मुंबा नगरीवालों को बस अश्वमेध यज्ञ पर्यंत राज्य-निर्धारित शुल्क वसूली में छूट दे दी जाये । ताकि यज्ञ की तैयारियों के लिये जिसे म्लेच्छ भाषा में कहते हैं ‘मनी फ्लो,’ यानी मुद्रा प्रवाह ऐन समय पर बाधित न हो ।’

‘अहो सुनयने, इस इंद्रप्रस्थ में तेरी जैसी कुटिल सूझबूझवाला कोई अन्य गुप्तचर आज तक नहीं उपजा होगा !’ यह कह कर महाराज ने पुन: दो बार करतल ध्वनि की ।

ध्वनि सुन कर सर झुकाये हुए विशेष राजकीय प्रकोष्ठ के चार वरिष्ठ अधिकारी एक एक कर कक्ष के भीतर आये । उनको वांछित निर्देश दिलाने के उपरांत पुन: महाराज के चरणस्पर्श कर तथा हीरामणि के सर पर हाथ फेर कर कृतज्ञता व्यक्त करतीं आर्या हिमुली सहर्ष विदा हुईं ।

इति ।

अथ अघट घट उपसंहार उपाख्यान :

घटना के बाद कुछ माह बीते । आशानुरूप अश्वमेधी घोडा जो महाराज द्वारा बडे भव्य समारोह के साथ विजय को भेजा गया, प्रत्याशित रूप से दिग्विजय कर लौटा । लौटने पर नगर में यत्र तत्र तोरणद्वार बना कर पुष्पवर्षा से विजयी सेना का अभिनंदन किया गया । अत्रभवान् महाराज भी स्वयं सभी द्वारों पर अपने वाहन से हाथ उठा कर उन देशभक्तों का अभिनंदन करते और प्रजा का अभिनंदन स्वीकारते देखे गये जिस बीच वातावरण महाराज के अभिन्न मुख्य प्रचारक तथा राज ज्योतिषी हीरामणि शुक विरचित घोषों से गूंजता रहा :

‘हम तुम बोलें, तुम हम बोलें,बम बम लोले ! बम बम लोले !’

‘लोल लोल लहरें, लोल लोल सुराज, राजाओं के राजा लोलेश्वर महाराज !’

‘लोल जी ! लोल जी ! लोल जी !’

‘ललो ललो लोरियाँ दूध भरी कटोरियाँ, कटोरी में बताशा, अच्छे दिन अच्छा तमाशा ।’

कई स्थानों पर तो युवक युवतियाँ तो रंग उडाते, आविष्ट से नाचते हुए उत्साहातिरेक में वस्त्र फाडते तक देखे गये । काने शुक से अपनी सफलता की दिन रात भूरि भूरि प्रशंसायें तथा प्रजाजनों के बीच जा कर लाई अनेक प्रशंसापरक वार्तायें सुनते महाराज अतीव संतुष्ट हुए ।

माघ शुक्ल द्वादशी के दिन धूमधाम से यज्ञ का आयोजन औपचारिक रूप से शुरू किया गया । और फाल्गुन पूर्णिमा के दिन वेदपारंगत विद्वानों ने शास्त्रीय विधि से निर्मित एक भव्य सोने तथा रत्नों से सज्जित यज्ञशाला में जिसमें बेल, खैर, पलाश, देवदारु तथा लिसोडे के 21 यूप खडे किये गये थे, देश विदेश से भारी उपहार ले कर आये राजपरिवारों की उपस्थिति में नये राष्ट्र के जन्म के प्रतीकस्वरूप यज्ञ का प्रारंभ हुआ ।

चीनांशुक से देह ढँके आपादमस्तक स्वर्णाभरणों से सज्जित आर्या हिमुली यज्ञ में महाराज की विशेष अतिथि थीं जिनका विशेष सत्कार किया गया । शुक को इस विशेष अवसर पर आर्या के अनुरोध पर ॠंखला मुक्त कर दिया गया । वह महाराज के वाम कंधे पर जा बैठा । प्रधान पुरोहित कुछ कहने को उद्यत हुए किंतु महाराज को अतीव स्नेह से भक्त शुक को सहला कर हर्ष जताते देख चुप हो गये ।

भव्य कर्णमधुर मंत्रोच्चारसहित यज्ञ प्रारंभ हुआ और यथा समय समाप्त ।

ठीक जिस समय पवित्र सात नदियों के जल से महाराज का महामस्तकाभिषेक प्रारंभ हुआ, कर्ण पिशाची बोली, यही समय है रे काने ! चल शुरू होजा !

महाराज के श्रतीचरणों पर बैठा एक कौडी का कथाकार तोता अचानक उडा और यज्ञ वेदिका के पास जाकर उसके चक्कर काटने लगा । उसकी व्यग्रता देख सब स्तब्ध हुए । शेष लोगों में तो महाराज के अतिप्रिय शुक को कुछ कहने का साहस न था, अंतत: महाराज ने ही उच्च स्वर में उससे पूछा अहो, मुनि हीरामणि शुक ! यह क्या करते हैं आप ?

स्पष्ट वाणी में शुक बोला : ‘मैंने शास्त्रों में पढा तथा आर्य दैत्य कुल गुरु शुक्राचार्य जी से सुना था कि अश्वमेध यज्ञ की पवित्र यज्ञ वेदिका की गर्म राख पर चलते परिक्रमा करने से हर विकलांगता मिट सकती है ।मुझे लगा अत्रभवान् के यज्ञ में मेरी यह फूटी आँख भी पुन: स्वस्थ हो जायेगी ! इसी लिये वेदिका के इतने चक्कर काटे, किंतु अब तक हुआ क्या ? घंटा ! यह यज्ञ नहीं आडंबर है मित्रो, आडंबर !

यज्ञशाला में सुई टपक सन्नाटा छा गया । महाराज को काटो तो खून नहीं ।

जब तक वे सँबल पाते शुक उडता हुआ पहले सारी यज्ञशाला पर, फिर बाहर खडी प्रजा के बीच मँडरा मँडरा कर चिल्लाने लगा था :

‘रे बोलाला काना तोता बोलाला । राजा के अश्वमेध में घोटाला हीच घोटाला !’

भव्य यज्ञ का रंग तत्काल फीका पड गया । राजा का नि:शब्द खुला रहा मुख चुसे आम सरीखा दिखने लगा । पुराने दरबारी पैरों के नख से धरती खुरचते आँखों ही आँखों में एक दूसरे से पूछने लगे , क्यों जी ? क्या सच कहता है शुक ? शुक्राचार्य का वंशज क्या असत्य कहता होगा ?

बाहर खडी प्रजा में भी खुसुर पुसुर की ध्वनि उभरने लगी ।

यह सब देख सुन कर न्योते में अतिथि बन कर पिता के साथ आई मद्र देश की एक मसखरी राजकन्या पर हँसी का दौरा पड गया । उसे चुप कराने के असफल प्रयास देख देख कर कुछ ही क्षणों में कुरु- पांचाल, मगध- कोसल, सिंहल तथा कांबुज,सिंधु सौवीर, त्रिगर्त हर कहीं से आये राजसी पाहुने तथा राजदूत भी ठहाके लगाने लगे ।

सुयोग पाकर हिमुली अदृश्य हुई ।

बाहर खडी यज्ञ के लिये मुद्रा जुटाने से पस्त तथा जली भुनी बैठी जनता में भी बूढों को ठेंगा दिखा कर कुछ सिरफिरे युवा उन्मत्त हो नाचने लगे ।

क्या झकास नारा है रे इस तोते का साला ! महाराजा के यज्ञ में घोटाला हीच घोटाला !

हंगामा मच गया । कहाँ का यज्ञ कहाँ का अभिषेक ?

अंतत: सुध पलटी तो गरजे लोलेश्वर, ‘अरे कैसी अव्यवस्था है यह ? कोई है ? अविलंब पकडो इस पापी देशद्रोही को ! जाने न पाये । जीवितावस्था में लाओ इसे ! मैं स्वयं इसका वध करूंगा !

कर्णपिशाची कथाकार के कान में बोली, रे हीरामन्न तेरा समय सुरू होता है अब्ब !

हीरामणि अब बाहर भीतर मँडराता चिल्लाने लगा : मेरी पकडी पुकडी होगी, मेरी पकडी पुकडी होगी !

हँसी और ऊँची हुई जिसके बीच चार विशेष गगनचारी भटों ने घात लगा कर तोते को पकडा और महाराज के पास ले चले ।

हीरामणि चिल्लाया :

भीतर भीतर सब मिले हुए हैं जी, सबकी छुट्टी होगी , शुक की काट्टी कुट्टी होगी ।

जनता का आबालवृद्ध जत्थे का जत्था यज्ञशाला के भीतर इस प्रहसन का अगला चरण देखने उमड पडा । पंडित और वेदज्ञ जान बचा कर भागे ।

यज्ञशाला में खडे रौद्ररूप धारी महाराज अपनी तलवार लहराते कहते थे, ‘चल रे पापिष्ठ, आज तुझे काट ही डालता हूँ ।’ तो प्रजा हँसती तालियाँ बजाती । लोल ! लोल ! ललो ललो !

‘अम्मा यह कैसा लोल सम्राट् है जी ! काने तोते को चार चार सशस्त्र भटों से पकडवाता है ?’

कहीं एक बच्चा बोला । लोग हँसे, बच्चे के मुख में भगवान् का वास !

महाराज रुके ।

अंगार सदृश्यनेत्रों से पहले बकवासी बच्चे को आँखों ही आँखों से डराया फिर बोले :

‘देख पुत्र, मेरा शौर्य ! इसको मैं बिना मारे जीवित ही निगल जाता हूँ जैसे वन में अजगर बगुले को निगल जाता है ।’

यह कहते हुए उन्होने तोते को उठाया और बिना चबाये निगल गये ! बच्चे से फिर बोले, ‘देखा बे मेरा शौर्य !’

सुई टपक सन्नाटा ! सिर्फ कभी बच्चे की सिसकियाँ सुनाई देती थीं ।

तभी महाराज के उदर से तोते का स्पष्ट स्वर आया, और हँसी फिर प्रबल हुई । बच्चा खिलखिलाया ।

‘पेट बना इक कालकोठरी, उसमें बैठा तोता ! अगर कहीं मैं बाहर आता सोचो क्या कुछ होता

मित्रों सोचो क्या कुछ होता ?’

जनता ताल दे दे कर यह तुकबंदी दोहराने लगी । अजी वाह ! शुक्राचार्य का वंशज है, कोई ऐरागैरा नहीं । पेट के भीतर से भी कविताई कर रहा है ! जिय्य !

महाराज गरजे, ‘ ये क्या सोचता है कि मैं इसकी बाहर लाने की चुनौती अस्वीकार कर दूंगा ? कभी नहीं ! बाहर निकल साले ! लोलेश्वर को परास्त कर सके वह तीन भुवन चौदह समुद्र पर्यंत कोई नहीं बचा । चलो रे भटगण ! मेरे अगल बगल सतर्कता से पहरा दो ।

‘राजवैद्य से कोई जा कहो कि वे विरेचक चूर्ण लाकर मुझे दें । जैसे ही मैं इस दुष्ट का वमन करूं तुम दोनो को तत्काल तलवार से उसका बकवासी सर धड से अलग कर देना है !’

जो आज्ञा । भट एक स्वर में बोले ।

कोई दौडा । राजवैद्य सहित विरेचक चूर्ण लाया गया, महराज द्वारा सही मात्रा में सुगंधित जल पी कर उदरस्थ किया गया ।

कुछ ही पल बाद भारी बदबूदार वमन के बीच से पंख फडफडाता हीरामणि शुक बाहर निकला ।

तीखी तलवारें तुरत चमकीं ! छपाक् छपाक् !

रक्त का फव्वारा छूट पडा ।

पर यह क्या ? बिजली की तरह लपक कर आई कर्णपिशाची के अदृश्य हाथ हीरामणि को बाहर दूर उठा ले गये थे ।

लोगों ने देखा कि जो कटा पडा था वह शुक का सर नहीं, राजा लोलेश्वर की राजसी नाक थी ।

रक्त बहा, किंतु राजा का । शुक का नहीं । राजसी नाक धुप्पल में गई, सो गई ।

पुन: सुई टपक सन्नाटा ।

कुछ देर बाद चूर्णसहित यज्ञशाला में आये राजवैद्य ने हतप्रभ राजा की नाक उठा कर उनके राजमुख पर चिपकाई और अंगरक्षकों के वलय में सुरक्षित अचेत महाराज बाहर ले जाये गये ।

इंद्रप्रस्थ में हर दुर्घठना के लिये पूर्वनिश्चित प्रणाली है । वह तुरत सक्रिय हुई । पहले भटों ने नारा लगाया, चिरजीवी रहें महाराज !

चारणों ने पुण्याहवाचन प्रारंभ किया । फिर महामृत्युंजय जाप होने लगा ।

व्यवहार कुशल महामात्य ने सामने आकर शांतिस्थापना की, तथा बिदकती स्थिति की वल्गा कुशलता से हाथ में ली ।

यज्ञशाला में बचे खुचे अतिथियों राजपुरुषों तथा व्यर्थ वहाँ लटके मार रहे यज्ञ सामग्री से गुपचुप सुवर्ण या रौप्य मुद्रायें उठाते युवा जनों को बाहर खदेड दिये जाने का इशारा कर शेष उन्होने सबको सूचित किया :

‘अहो ! हम सबके पुण्य से हमारे प्रिय महाराजाधिराज लोलेश्वर सिद्धदास जी 1008 सचेत हैं और पवित्र राजसी नाक भी सफलतापूर्वक यथास्थान स्थापित कर दी गई है ।

‘यज्ञ संपन्न हुआ । आप सब रात्रिकालीन राजकीय भोज के लिये सादर आमंत्रित हैं । अभी अपने अपने राजकीय अतिथि आवास को प्रस्थान कर विश्रामादि करें । पुन: सायंकाल की वेला में यहाँ राजमहल में पधारें । उस समय महाराज भी पुन: आपके मध्य सुशोभित होंगे ।’

सुधीजन सभा शांतिमयता से विसर्जित हुई और शेष कार्यक्रम बिना व्यतिक्रम के, यथासमय यथासूचित संपन्न हुआ ।

किंतु तोता लुप्त हुआ सो हुआ । नाक कटनी थी सो कटी ।

उपसंहार :

जानकार बताते हैं कि इस अघट घटना के बाद महाराजा लोलेश्वर सिद्धदास का स्वभाव भी पुराकालीन राजा चंडाशोक की ही आमूलचूल बदला । समय बीतता गया । चक्रवर्ती महाराजाधिराज के धवल केश कुछ विरल हो गये । शरीर कुछ दुर्बल हुआ किंतु वाणी पहले भी सानुनासिक थी वैसी ही रही ।

आयु कारण हो या कुछ और, अत्रभवान् महाराज लोलेश्वर सिद्धदास अब प्रजाजनों के बीच न पहले भाँति घूमते न ही सतत धाराप्रवाह भाषण देते थे । आवश्यकता भी न थी । प्रजा के बीच वे एक सिद्ध साधु का पद पा चुके थे । वे दिखें या नहीं, ईश्वर की ही तरह उनकी उपस्थिति सार्वभौम मानी जाती थी । इसी क्रम में महाराज के बहुचर्चित रंगारंग परिधानों की जगह काषेय वस्त्रों ने ले ली । भोजन विशुद्ध शाकाहारी हुआ । पेय जल में वे मात्र गंगाजल ग्रहण करते हैं यह कहा गया ।

महाराज की वन्यजीव संरक्षण योजना के अंतर्गत लोध्र उपवन तथा महल के हर प्रकार के पालतू पशु पक्षी भी दूर किसी वन में भेज दिये गये, और बाज़ारों तथा घरों में किसी प्रकार का तोता बेचना या पालना धर्मविरुद्ध बना दिया गया । देश बर के सभी व्याध बहेलियों को अन्यान्य प्रकार के हस्तशिल्पों का नि:शुल्क प्रशिक्षण दिलवा कर उनको राज्य तथा धर्म के अनुकूल बन दिया गया ।

शांतिप्रिय महाराज ने जनहित में कोलाहलमय कथावाचन पर भी रोक लगवा दी । स्वच्छता अभियान के अंतर्गत पाठशाला के वटुकों द्वारा जनमन को कुसंस्कार देने वाले ग्रंथों की होली जलवाई गई । तदुपरांत कथाकारों को राजकीय लेखागारों के लिये निर्दिष्ट जनहितकारी विषयों पर पुस्तकें लिखने को प्रचुर वित्तीय प्रोत्साहन दिया गया । बताया गया कि इससे वे प्रसन्न हुए ।

कई वर्ष और बीते । चक्रवर्तिन् महाराजाधिराज लोलेश्वर सिद्धदास राज्य की जनता के बीच शांति, अहिंसा तथा अपरिग्रह के विश्व स्तरीय प्रतीक बन कर स्थापित हो गये । उनके शांत सुस्थिर संस्कारी राज्य में धर्म ही नहीं, वणिज, व्यापार, तथा विविध कलायें भी खूब ही फले फूले ।

राजवैद्य को सेवावकाश के समय अतिविशिष्ट सेवार्थे दिये जानेवाले सर्वोच्च राजकीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।

वृद्ध होने के साथ जनसेवा से जुडते गये वणिक रत्नसेन तथा नगरसेठ अंबष्ठ ने सारे विश्व में ख्यात एक चिकित्सा संस्थान के लिये मुक्तहस्त होकर अनुदान दिया । आज भी वहाँ शरीर के अवयवों की रचना व पुनर्स्थापन का पुण्य कार्य नि:शुल्क किया जाता है ।

महामात्य आर्य कर्कट, जिन को पहले एक वर्ष का सेवा विस्तार दिया गया था, एक मित्र म्लेच्छ देश में विशिष्ट राजदूत नियुक्त किये गये । इसे उन्होंने सहर्ष शिरोधार्य किया यद्यपि उनके कुछ पुराने शत्रुओं ने देश निकाले की संज्ञा दी ।

इस प्रकृत्या पापशंकी ईर्ष्यालु मानवस्वभाव का क्या किया जाये ? सुने को अनसुना करो, यह कह कर महाराजाधिराज ने हँस कर बात टाल दी

आर्या हिमुली जो यज्ञ के बाद से भूमिगत हुईं महाराज की मृत्यु तक वहीं रहीं । इस बीच कुछ कानाफूसी हुई जिनका सार था कि वे अपने प्रिय शुक को कंधे पर बिठाये हुए सुरंग के माध्यम से इंद्रप्रस्थ तथा मुंबा नगरी के बीच आती जाती व आवश्यक कामों का निष्पादन करती रहती हैं ।

सो हे सुधी पाठक गण, हमारा यह सुदीर्घ आख्यान भी एक पुनीत शांतिमय बिंदु पर आ कर विसर्जित होता है । जैसा कि पुरातन प्रबंधसंग्रह में भद्रेश्वर नगर के जगडूक नामक बनिये ने राजा वीसलदेव से कहा : आडंबरों से महिमा नहीं बढती, गुण गौरव से बढती है । अन्य उंगलियों की शोभा अलंकार से भले होती हो, मध्यमा के लिये उसका सब उंगलियों से लंबा होना ही उसका अलंकरण है ।

सो हमारे तप:पूत, अपरिग्रही वैश्विक शांतिदूत महाराजा लोलेश्वर पुरंदरदास भी अपने गुण गौरव से एक जनहितकारी, वृद्धश्रवा तथा परम आदरणीय शासक बन कर विख्यात हुए जिनको मरणोपरांत कृतज्ञ प्रजा ने एक भव्य लाट बनवा कर उनको पूजना प्रारंभ किया । स्थापत्य की दृष्टि से दुर्लभ इस संरचना का नाम (नामपट्टानुसार) है ‘लोलेश्वर महाराज की लाट’, जिसके मूल में किसी अनाम कलाकार द्वारा उत्कीर्ण एक परम आकर्षक यक्षिणी की सुख्यात शालभंजिनी प्रतिमा जडी हुई है जिसके वाम कंधे पर एक तोता बैठा है । जनश्रुति है कि लाट तथा शुकधारी शालभंजिनी की समवेत वंदना से संतानहीनों को पुत्रलाभ होता है, वणिज व्यापार फलता फूलता है ।

‘नकटे लोल की लाट’ अथवा नकटा लोल पीर की मज़ार’ नाम से विख्यात इस स्थली पर हर साल में दो बार मेला भरता है जहाँ विभिन्न संप्रदायों के लोग संतति तथा धन धान्य की आकांक्षा से दूर दूर से आते तथा लाट पर फूलों की माला, रेशमी चादरों तथा हरी मिर्चों का चढावा चढाते हैं ।

फलश्रुति :

जैसे उनके दिन बहुरे तैसे सबके बहुरें । अच्छे दिन भी आयेंगे, चाहे निहुरे निहुरे ।।

।। इति ।।

(फाल्गुनी पूर्णिमा, मार्च सन् 2017)

 

 

 
      

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