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‘बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर’

आज कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती है. मुझे कवि सिद्धेश्वर सिंह के इस लेख की याद आ गई- मॉडरेटर

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न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना

बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर

ये पंक्तियाँ भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘आराम से भाई ज़िन्दगी’ से ली गई है। ऐसा लगता है कि इस कवि को कोई हड़बड़ी नहीं है, कोई जल्दबजी नहीं; कोई व्यग्रता नहीं। फिर भी ऐसा नहीं है कवि की निगाह में सबकुछ ठीक है; सब सही है। वह पास बैठकर बतियाना चाहता है। असंख्य मनुष्यों से भरी हुई इस पृथ्वी पर पास बैठकर बतियाने की काना करना और इस कामना को कविता को में मूर्त कर संवद स्थापित करना बहुत कठिन काम है। यह कठिन काम बहुत सरल तरीके से हमें भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में दिखाई देता है। कविता के  पटल पर ‘खुशबू के शिलालेख’ लिखने वाला यह कवि हिन्दी की दुनियामें  ‘भवानी भाई’  के नाम से प्रसिद्ध है। ‘गीत फरोश’ से शुरू होकर ‘ये कोहरे मेरे हैं’ जैसी कविता की किताबों के रचनाकार भवानी भाई  ‘दूसरा सप्तक’ के कवि होने के साथ एक तरह से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी के उन कवियों में  से हैं जिन्हें  कविता की हर धारा अपने से जोड़कर समृद्ध और सम्मानित अनुभव करती है। बहुत संक्षेप में कहना चाहें तो यह कहा जा सकता है कि वे हमारे समय के सबसे सहज कवि हैं। यह सहजता  विचार व शिल्प के स्तर पर जितनी परिलक्षित होती है उससे कहीं अधिक वह संप्रेषणीयता के स्तर पर लोक तक पहुँचती है। यदि लोकप्रियता की पराकाष्ठा का मूर्त उदाहरण कही जाने वाली उनकी ‘गीत फ़रोश’ और ‘ सतपुड़ा के घने जंगल’ की बात करें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि ये दोनो कवितायें इसलिए हिन्दी की बड़ी कवितायें हैं कि विचार व शिल्प दोनो स्तरों पर ये इतनी सहज लगती हैं कि कविता लगती ही नहीं है। कोई कविता इतनी सहज हो कि वह  कविता लगे ही नही; इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है! ‘किसिम – किसिम के गीत’ बेचने  की बात करने वाला कवि जब ‘ऊँघते अनमने जंगल ‘ की बात करता है तो इसमें कोई शुबहा नहीं रह जाता है कि कवि और कविता की दुनिया वही दुनिया है जिसमें हम सब अपने – अपने हिस्से का जीवन अपने तरीके से जीते हैं और सहजता के विरल होते जाने को एक तरह से सफलता और उन्नति का पर्याय मानने को शापित है।

भवानी भाई की कविता हमें हमारे समय की विद्रूपताओं से शापमुक्ति और सहज होने की राह दिखाने का  काम करती है तो केवल इसलिए नहीं कि उसकी निर्मिति गाँधीवाद के स्पर्श से सिंचित है और उसके  कवि का जीवन व कथन इतना साधारण है कि उसमें असाधारणता का बोध स्वत: होने लगता है बल्कि वह लोक से विलग होकर न केवल विचार रह जाती है और न ही इतनी सरल व सामयिक हो जाती है विनोद का माध्यम बन जाती है। लोक का जीवन लोक से जुड़कर ही जिया जा सकता है और इस लोक के लोक में होशियारी और चतुराई काम नहीं आती। इस बात की तसदीक के लिए भवानी भाई की बहुत – सी कविताओं से उद्धरण दिए जा सकते हैं और कविता में सहजता जैसी बात को बहुत गूढ़ और वैचारिक बना कर कहा भी जा सकता है किन्तु  एक ऐसा कवि जिसकी कविताओं का बड़प्प्न इतना बड़ा है वह दूर की नहीं अपितु हर पढ़ने वाले  अपने पास की चीज लगता है उसके लिए जितना कम कहा जाय वही अधिक है। भवानी भाई कम बोलकर अधिक पास बुलाने वाले कवि हैं। उनकी कविताओं की ‘बुनी हुई रस्सी’ धीरे – धीरे खुलती है। वह हमें चमत्कृत और चकित नहीं करती ; चौंकाती भी नहीं बल्कि सहजता , सरलता और सीधेपन में समय, समाज , सत्ता और संवेदना की की विविधवर्णी छवियों का एक ऐसा इन्द्रधनुष उकेरती है जो चुप्पी और चौकन्नेपन के बीच मनुष्य जीवन की सार्थकता का सहज राग उत्त्पन्न करती है।याद कीजिए , ‘प्राथमिक’ शीर्षक कविता में भवानी भाई क्या यही बात नहीं कहते :

अगर हमने

आगे नहीं रखा हर चीज से

आदमीयत को

तो और जो चाहे कर लें

जाति धर्म कौम देशाभिमान

सब छुएंगे पशुता के छोर

और चुएंगे

किसी एकांत में

आदमीयत के आंसू।

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