Home / Featured / महापंडित राहुल और वोल्गा की रात

महापंडित राहुल और वोल्गा की रात

आज महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 54 वीं पुण्यतिथि है. हिंदी में उनके जितना विविध और विपुल लेखन शायद ही किसी और लेखक ने किया. वे महायात्री थे. उनके यात्राओं के वर्णन सम्मोहक होते थे. यह वोल्गा का वर्णन है- दिव्या विजय

==================

निशा 1

देश – वोल्गा तट (ऊपरी)

जाति – हिन्दी यूरोपीय

काल – 600 ईसा पूर्व

दोपहर का समय है, आज कितने ही दिनों बाद सूर्य का दर्शन हुआ है। यद्यपि इस पाँच घंटे के दिन में उसके तेज में तीक्ष्णता नहीं है तो भी बादल, बर्फ़, कुहरे और झंझा से रहित इस समय चारों ओर फैलती सूर्य की किरणें देखने में मनोहर और स्पर्श से मन में आनंद का संचार करती हैं। चारों ओर का दृश्य? सघन नील-नभ के नीचे पृथ्वी कर्पूर सी श्वेत हिम से आच्छादित है। चौबीस घंटे से हिमपात न होने के कारण दानेदार होते हुए भी हिम कठोर हो गया है। यह हिमवसना धरती दिगन्त-व्याप्त नहीं है, बल्कि यह उत्तर से दक्षिण की ओर कुछ लम्बी रुपहली टेढ़ी-मेढ़ी रेखा की भाँति चली गयी है, जिसके दोनों ओर की पहाड़ियों पर काली वन-पंक्ति है। आइये इस वन-पंक्ति को कुछ समीप से देखें। उसमें दो तरह के वृक्ष ही अधिक हैं, एक श्वेत बल्कलधारी किन्तु निष्पत्र (भुर्ज) और दूसरे अत्यंत सरल, उत्तुंग समकोण पर शाखाओं को फैलाये अतिहरित या कृष्णरहित सुई-से पत्तों वाले देवदारु। वृक्षों का कितना ही भाग हिम से ढँका हुआ है, उनकी शाखाओं और स्कन्धों पर जहाँ-तहाँ रुकी हुई बर्फ़ उन्हें कृष्ण-श्वेत बना आँखों को अपनी ओर खींचती है।

और? भयावह नीरवता का चारों ओर अखंड राज्य है। कहीं से न झिल्लियों की झंकार आती है, न पक्षियों का कलरव, न किसी पशु का ही शब्द।

आओ, पहाड़ी के सर्वोच्च स्थान के देवदारु पर चढ़कर देखें, शायद वहाँ बर्फ़, धरती, देवदारु के अतिरीक्त भी कुछ दिखाई पड़े क्या यहाँ बड़े-बड़े पेड़ ही उगते हैं, क्या इस भूमि पर छोटे पौधे, घासों के लिए कोई स्थान नहीं है? लेकिन इसके बारे में हम कोई राय नहीं दे सकते। हम जाड़े को दो भागों को पारकर अंतिम भाग में हैं। जिस बर्फ़ में ये वृक्ष गड़े हुए-से हैं, वह कितनी मोटी है उसे नापने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। हो सकता है कि वह आठ हाथ या उससे भी अधिक मोटी हो। अबकी साल बर्फ़ ज़्यादा पड़ रही है, यह शिकायत सभी को है।

देवदारु के ऊपर से क्या दिखाई पड़ता है, वही बर्फ़, वही वनपंक्ति, वही नीची-ऊँची पहाड़ी भूमि। हाँ, पहाड़ी की दूसरी ओर एक जगह धुँआ उठ रहा है। इस प्राणी-शब्द-शून्य अरण्यानी में धूम का उठना कौतूहल जनक है। चलो वहाँ चलकर अपने कौतूहल को मिटायें।

धुँआ बहुत दूर था किन्तु स्वच्छ निरभ्र आकाश में वह हमें बहुत समीप मालूम होता था। चलकर अब हम उसके नज़दीक पहुँच गये हैं। हमारी नाक में आग में पड़ी हुई चर्बी तथा माँस की गंध आ रही है। और अब तो शब्द भी सुनाई दे रहे हैं, ये छोटे बच्चों के शब्द हैं। हमें चुपचाप पैरों तथा साँस की भी आहट न देकर चलना होगा, नहीं तो वे जान जायेंगे और फिर न जाने किस तरह का स्वागत वे ख़ुद या उनके कुत्ते करेंगे।

हाँ, सचमुच ही छोटे-छोटे बच्चे हैं, सबसे बड़ा आठ साल से अधिक का नहीं है और छोटा तो एक वर्ष का है। आधा दर्ज़न लड़के एक घर में। घर नहीं यह स्वाभाविक पर्वत गुहा है जिसके पार्श्व भाग अंधकार में कहाँ तक चले गये हैं, हम नहीं देख पा रहे हैं और न देखने की कोशिश करनी चाहिए। और सयाने आदमी? एक बुढ़िया जिसके सन जैसे धूमिल श्वेत केश उलझे तथा जटाओं के रूप में इस तरह बिखरे हुए हैं कि उसका मुँह उनमें ढँका हुआ है। अभी बुढ़िया ने हाथ से अपने केश को हटाया, उसकी भौंहें भी सफ़ेद हैं, श्वेत चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई हैं जो जान पड़ता है सारी उसके मुँह के भीतर से निकल रही हैं। गुहा के भीतर आग का धुँआ और गर्मी भी है, ख़ासकर जहाँ बच्चे और हमारी दादी हैं। दादी के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं, कोई आवरण नहीं। उसके दोनों सूखे-से हाथ पैरों के पास धरती पे पड़े हैं, उसकी आँखें भीतर घुसी हुई हैं और नीले रंग की पुतलियाँ निस्तेज शून्य-सी हैं किन्तु बीच-बीच में उनमें तेज उछल जाता है जिससे जान पड़ता है कि उनकी ज्योति बिल्कुल चली नहीं गयी है। कान तो बिल्कुल चौकन्ने मालूम होते हैं। दादी लड़कों की आवाज़ अच्छे से सुन रही जान पड़ती है। अभी एक बच्चा चिल्लाया, उसकी आँख उधर घूमी। बरस-डेढ़ बरस के दो बच्चे हैं, जिनमें एक लड़का एक लड़की, क़द दोनों के बराबर हैं। दोनों के केश ज़रा-सा पीलापन लिए सफ़ेद हैं, बुढ़िया की भाँति किन्तु ज़्यादा चमकीले, ज़्यादा सजीव। उनके शरीर पीवर पुष्ट, अरुण गौर, उनकी आँखें विशाल पुतलियाँ नीली। लड़का चिल्ला-रो रहा है, लड़की खड़ी छोटी हड्डी मुँह में डाले चूस रही है। दादी ने बुढ़ापेे के कंपित स्वर में कहा –

अगिन! आ ! यहाँ आ अगिन। दादी यहाँ।

अगिन उठ नहीं रहा था। उस समय एक आठ बरस के लड़के ने आकर उसे गोदी में ले दादी के पास पहुँचाया। इस लड़के के केश भी छोटे बच्चे के जैसे पांडु-श्वेत हैं किन्तु वे अधिक लम्बे हैं, उनमें अधिक लटें पड़ी हुई हैं। उसके आपाद नग्न शरीर का वर्ण भी वैसा ही गौर है किन्तु वह उतना पीवर नहीं है और उसमें जगह-जगह काली मैल लिपटी हुई है। बड़े लड़के ने छोटे बच्चे को दादी के पास खड़ा कर कहा –

“दादी! रोचना ने हड्डी छीनी। अगिन रोता।”

लड़का चला गया। दादी ने अपने सूखे हाथों से अगिन को उठाया। वह अब भी रो रहा था उसके बहते आँसुओं की धारा ने उसके मैले कपोलों पर मोटी अरुण रेखा खींच दी थी। दादी ने अगिन के चेहरे को चूम-पुचकार कर कहा – “अगिन मत रो। अभी रोचना को मारती हूँ।” और एक हाथ को नंगी किन्तु वर्षों के चर्बी से युक्त फ़र्श पे पटका। अगिन का “ऊँ-ऊँ” अब भी बन्द न था और न बन्द थे आँसू। दादी ने अपनी मैली हथेली से आँसुओं को पोंछते हुए अगिन के कपोलों की अरुण पंक्ति को काला बना दिया। फिर रोते अगिन को बहलाने के लिए सूखे चमड़े के भीतर झलकती हुई ठठरियों के बीच कुम्हड़े की सूखी बतिया की भाँति लटकते चर्ममय स्तनों को लगा दिया। अगिन ने स्तन को मुँह में डाला और रोना बन्द कर दिया। उसी समय बाहर से बातचीत की आवाज़ आने लगी। उसने शुष्क स्तन से मुँह खींचकर ऊपर झाँका, किसी की मीठी सुरीली आवाज़ आई –

अगि-इइ-न।

 
      

About divya vijay

Check Also

नानकमत्ता फिल्म फिल्म फ़ेस्टिवल: एक रपट

कुमाऊँ के नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 26 और 27 मार्च को फिल्म फ़ेस्टिवल का आयोजन …

One comment

  1. I read this paragraph fully about the resemblance of
    most up-to-date and preceding technologies, it’s awesome article.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *