23 अप्रैल को दिल्ली के मुक्तांगन में ‘एक थी सीता’ विषय पर बहुत अच्छी चर्चा हुई. उसकी एक ईमानदार रपट लिखी है जेएनयू में कोरियन विभाग की शोध छात्रा रोहिणी कुमारी ने- मॉडरेटर
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मुक्ताँगन : नाम में ही अपनापन है और जो लोग इसका आयोजन करते हैं वे इस बात का पूरा ख़याल रखते हैं कि इसके नाम की साथ बेईमानी न हो. इस बार मुक्ताँगन के मासिक कार्यक्रम में चार सत्र रखे गये थे और सभी एक दूजे से इतर. इस माह के चार सत्रों में आख़िरी सत्र मुझे इसके नाम से ही आकर्षित कर रहा था और इसलिए बस इस सत्र को सुनने के लिए मैं वहाँ अंत तक बनी रह गई. आयोजक ने उस सत्र का नाम रखा था “एक थी सीता”. इस सत्र के वक्ताओं में शामिल थी हिंदी जगत की लेखिका वंदना राग, पूर्व भारद्वाज, मनीषा पांडे. सत्र का संचालन प्रभात रंजन कर रहे थे. जैसा कि शीर्षक से ही ज़ाहिर है बातचीत का केंद्र नारी और नारीवाद था. आज का यह दौर जब धर्म और धर्म से जुड़ी किसी भी तरह की बात करना अपने जान को ख़तरे में डाल देने से कम नहीं है उस माहौल में इस तरह की बहस के लिए जगह और मंच देना किसी दिलेरी से कम नहीं. आयोजकों का इस साहस के लिए तहे दिल से शुक्रिया.
सीता का व्यक्तित्व रामायण के अलग-अलग संस्करणों में, लोक में, नाटकों में, अन्य कला रूपों में अलग-अलग रूपों में उभरकर आता रहा है. जिनमें सीता का त्याग, उनके सताए जाने की कथा ही सबसे प्रबल रही है. इसीलिए नारीवाद के लिए उनकी कथा के मायने रहे हैं.
सत्र की बातचीत आगे बढ़ते हुए संचालक ने देवदत्त पटनायक की किताब “सीता के पाँच निर्णय” का हवाला देते हुए कहा कि सीता ने अपने जीवन में पाँच निर्णय लिए और उन्ही पाँचों निर्णय की वजह से उसके जीवन का स्वरूप बदला. सवाल यह है कि एक सीता ने क्या वे पाँच निर्णय ख़ुद अपनी इच्छा से लिए या फिर हालात की वजह से लिए. चाहे वे निर्णय राम के साथ चौदह वर्षों के वनवास का रहा हो या फिर धरती में समा जाने का निर्णय. इस बात को ख़ारिज करते हुए मनीषा पांडे ने अपना पक्ष रखा और कहा कि सीता के वे पाँच निर्णय चाहे उनके ख़ुद के द्वारा लिए गये कहे जाएँ लेकिन इसमें भूमिका राम और उस समय की स्थितियों की ही रही है. एक समाज जो सदा से पुरुष प्रधान रहा हो उसमें एक स्त्री चाहे वह सीता ही क्यों ना हो उसके निर्णय लेने के अधिकार की कल्पना की जा सकती है. आज के दौर में भी जब स्त्रियों का एक तबक़ा एक हद तक स्वावलंबी कहा जा सकता है उस समय में भी परिवार के मुख्य निर्णय लेने में घर की महिलाओं का रोल क्या और कितना है ये बात किसी से छिपी नहीं है. बहस को आगे बढ़ते हुए पूर्वा भारद्वाज ने अलग-अलग स्रोतों में आये कई तथ्यात्मक पहलुओं से श्रोताओं को रूबरू करवाया. उन्होंने देशव्यापी सीता के विभिन्न रूपों की बात करते हुए यह बताया कि कैसे दक्षिण की सीता पूर्वोत्तर राज्यों की सीता से अलग है.
अनेक उदाहरण के माध्यम से पूर्वा जी भारद्वाज ने अपना पक्ष रखा और बहस आगे की ओर बढ़ते हुई वंदना राग तक जा पहुँची. वंदना जी की दृष्टि में पुरुषप्रधान इस समाज का सच बहुत ही भयावह है और उसने अपने फ़ायदे के लिए सीता जैसी एक स्त्री का मानक गढ़ रखा है जो अपने पति के अनुसार चलती है, विरोध जिसका स्वभाव नहीं है, वह त्याग की मूर्ति है. जिसे अपने चरित्र को प्रमाणित करने के लिए अग्नि परीक्षा से गुज़रने में भी कोई समस्या नहीं है. और सीता की बलिदान वाली छवि पुरुष प्रधान समाज की चालाकी भर है. यही कारण है कि सीता की बात में भी ज़िक्र हमेशा राम का ही होता है.
सवाल यहाँ यह नहीं है कि सीता की छवि क्या थी और क्या बनाई जाए, बल्कि मेरे हिसाब से सवाल अब यह है कि आज भी इस बहस की जगह कहाँ से बन आती है की सीता को ही मानक माना जाए हमारे समाज की स्त्रियों को परिभाषित करने के लिए. क्यों हर नारी को सीता ही होना चाहिए, जबकि हिंदू मिथक में ही उसके अनेक रूप और प्रकार मौजूद हैं. हिंदू मिथकों में सीता के अलावा भी पाँच अन्य देवियाँ हैं जिन्हें पूजा जाता आ रहा है. उनमें से एक द्रोपदी भी है. द्रौपदी को आम जनमानस केवल पाँच पतियों की पत्नी के रूप में ही जानता है जबकि सच बस इतना भर नहीं है. हिंदू मिथकों में उसकी अपनी एक ख़ास जगह है, तो आज की नारी सीता की जगह द्रौपदी क्यों नहीं हो सकती? या फिर आज की हर एक स्त्री क्यों सीता या द्रोपदी या सती ही बने वो अपने नाम से क्यों नहीं जानी जा सकती है. क्यों उसे किसी राम की ज़रूरत हो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए…आज हमें सीता या उसकी छवि को बचाए रखने से ज़्यादा ज़रूरत है स्त्रियों की नयी छवि गढ़ने की जिसमें हर स्त्री अपनी ख़ास हो, अपने तरह की हो. वह चाहे तो सांस्कृतिक हो और चाहे तो आधुनिक. बातचीत के अंत में जब संचालक ने पैनल के वक्ताओं से पूछा कि आपकी सीता कैसी हो? इस बात का जवाब देते हुए मनीषा पांडे ने कहा मेरी सीता अपना निर्णय ख़ुद लेगी और पूर्वा भारद्वाज का कहना था कि उनकी सीता स्वाबलंबी होगी,
वहीं सबसे मौलिक बात कही वरिष्ठ लेखिका वंदना राग ने. उन्होंने सीता की ज़रूरत को ही ख़ारिज करते हुए कहा कि हम नए समय में कोई नयी छवि गढ़ सकते हैं जिसका अपना अस्तित्व हो और अपना एक नया नाम हो जो आज के समय के अनुरूप हो. हमें सीता या किसी और देवी की तरह बनने या उसके पदचिन्हों पर चलने की ज़रूरत को ख़त्म करना होगा. आज के सन्दर्भ में यह बात काबिले-दाद है.