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नया लेखन तो ठीक है लेकिन नया पाठक कहाँ है?

 

कभी-कभी ऐसा होता है कि अचानक आपको कोई मिल जाता है, अचानक किसी से फोन पर ही सही बात हो जाती है और आप कभी पुराने दिनों में लौट जाते हैं या किसी नई सोच में पड़ जाते हैं. सीतामढ़ी के मास्साब शास्त्री जी ने न जाने कहाँ से नंबर लेकर अभी हाल में ही मुझे फोन किया. बोले, ‘खूब आशीर्वाद, सुना है लेखक बन गए हो. अब कुछ ऐसा भी लिखो कि नवतुरिया लोग भी पढ़ें. आजकल नवतुरिया लोग या तो कम्पीटीशन का किताब पढता है या अंग्रेजी में लफाशूटिंग वाला उपन्यास. अब तो हिंदी में बच्चा सब जासूसी उपन्यास भी नहीं पढता है…’ वे बोलते रहे मैं सुनता रहा.

सोचता रहा कि क्या सच में हिंदी में नवतुरिया यानी नई उम्र के लड़के-लड़कियां, स्कूलों में बड़ी कक्षाओं में पढने वाले, कॉलेज में ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने वाले हिंदी में किसी तरह का साहित्य नहीं पढ़ते हैं? यह सवाल इसलिए गंभीर बन जाता है क्योंकि इस समय हिंदी में युवा लेखन का जोर है. नई उम्र के अनेक लेखक नई नई विधाओं में लिख रहे हैं. लेकिन किसके लिए लिख रहे हैं?

पिछले दिनों जब एक प्रसिद्ध हिंदी वेबसाईट के संपादक से बात हो रही थी तो उन्होंने भी यही रोना रोया कि मार्केटिंग वाले अंग्रेजी की तर्ज पर हम हिंदी वालों से भी कहते हैं कि 18-24 साल के युवाओं की भाषा में, उनके सोच को ध्यान में रखते हुए सामग्री का प्रकाशन कीजिए. जबकि यह समझना आज भी टेढ़ी खीर बनी हुई है कि क्या 18-24 साल की उम्र की पीढ़ी हिंदी में सोचती भी है, पढ़ती भी है?

पहले मैंने सोचा था कि शास्त्री जी बातों को बुढभस समझ कर जाने दूँ. लेकिन उन्होंने जैसे मेरे लिए सोच की एक नई खिड़की ही खोल दी. एक अध्यापक के रूप में, एक लेखक के रूप में, नई मीडिया में एक वेबसाईट के संपादक के रूप में अपने अनुभवों के आधार पर मैं भी यही समझने लगा हूँ कि हिंदी में साहित्य लिखने-पढने की तरह हमारा रुझान परिपक्व होने के बाद ही होता है. हालाँकि 80 के दशक या कह सकते हैं कि 90 के दशक के मध्य तक भी स्कूल-कॉलेज में पढने वाले युवा हिंदी से जुड़ते थे. उसका एक कारण यह था कि मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे तब तक अधिकतर सरकारी स्कूलों से पढाई करते थे. इसीलिए 90 के दशक में ‘वर्दी वाला गुंडा’ जैसी किताब छापकर करोड़ों में बिक जाया करती थी. वह हिंदी की आखिरी किताब थी जिसको बड़ी तादाद में पाठकों में पढ़ा. उसके बाद बस एक किताब आई जिसकी बिक्री ने चौंकाया था वह थी शिव खेड़ा की ‘जीत आपकी’, जो मोटिवेशनल किताब थी. वह लाखों में बिकी. उसके बाद और कोई ऐसा उदाहरण हिंदी में मुझे अभी तक दिखाई नहीं देता है.

यह बहुत अच्छी बात है कि हिंदी में युवाओं को ध्यान में लेकर न केवल किताबें लिखी जा रही हैं बल्कि हिंदी में बड़े बड़े प्रकाशक उनको छाप भी रहे हैं. लेकिन उनका हश्र क्या हो रहा है इसके ऊपर भी गंभीरता से विचार करने की जरुरत है. हो यह रहा है कि हिंदी का जो वयस्क पाठक वर्ग है इन किताबों को भी वहीं खपाने की कोशिश की जा रही है. अगर कॉलेजों आदि शिक्षण संस्थाओं में इन नई किताबों को लेकर कार्यक्रम हो भी रहे हैं तो ज्यादातर हिंदी विभागों द्वारा आयोजित हो रहे हैं.

मसला सिर्फ नए लेखक तैयार करने का ही नहीं है बल्कि उससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि नए पाठक किस तरह से तैयार किये जाएँ? शास्त्री जी की भाषा में कहें तो नवतुरिया लेखक से ज्यादा जरूरी है नवतुरिया पाठक तैयार करना. उस पाठक को इस नई वाली हिंदी से जोड़ना जो कम्पीटीशन की किताबों में डूबा रहता है!

प्रभात रंजन 

 
      

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7 comments

  1. जी दुरुस्त फ़रमाया। हिंदी में बच्चों के लिए कुछ लिखा जा रहा हो तो वो पढ़े भी। हम हिंदी वालों की गलती ये रही है कि हमने हिंदी साहित्य को मनोरंजन के साधन के तौर पर देखना ही गंवारा नहीं किया। इसलिए पंचतंत्र और जातककथाएं तो बच्चों के लिए मिल जाएँगी लेकिन मनोरंजन करने वाली सामग्री नहीं मिलेगी।

    एस सी बेदी इकबाल के बाल उपन्यासों की कभी धूम रहती थी लेकिन मार्किट में अभी उनके दो पुराने उपन्यास ही मिल पा रहे हैं। सूरज पॉकेट बुक्स ने एक नया निकाला है। और कोई दूसरा लेखक ऐसा दिख नहीं रहा जो इस तर्ज पे कुछ लिखे। बच्चों के लिए केवल शिक्षाप्रद कहानियाँ हैं। अब कोई कब तक शिक्षा लेगा। कभी तो मनोरंज चाहिए।

    नये लेखक नयी वाली हिंदी में भी बच्चो के लिए नहीं युवाओं के लिए लिख रहे हैं। मैं अपने १२-१३ वर्षीय भतीजे, भांजे को पढ़ने के लिए खौफनाक किला, पत्थर का रहस्य या सत्यजित राय के फेलूदा के हिंदी में अनुवादित उपन्यास दे सकता हूँ मसाला चाय या मुसाफिर केफे नहीं।

    वहीं आप अंग्रेजी की बात करें तो उन्होंने यंग एडल्ट फिक्शन के नाम पर पूरा बाजार स्थापित किया है। जिसमे पाठको के पास पढ़ने को जासूसी साहित्य , साइंस फिक्शन, हॉरर , मैथोलॉजिकल फिक्शन यानी गल्प साहित्य की हर श्रेणी मौजूद है। तो बच्चे अक्सर उधर चले जाते हैं।

    हम अक्सर ये मानकर ही चलते हैं कि जो मनोरंजक साहित्य पढता है वो गंभीर नहीं पड़ेगा और जो गंभीर पढता है उसे मनोरंजक साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए। जबकि ऐसा नहीं है। हम दोनों ही पढ़ सकते हैं।

  2. ¿Cómo recuperar mensajes de texto móviles eliminados? No hay una papelera de reciclaje para mensajes de texto, entonces, ¿cómo restaurar los mensajes de texto después de eliminarlos?

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