इधर इस बात पर ध्यान गया कि बाबा नागार्जुन के उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ के लेखन का यह 70 वां साल है. इस उपन्यास के तीसरे संस्करण की भूमिका में नागार्जुन ने स्वयं यह लिखा है कि इसका रचनाकाल 1947 था. मुझे आज भी यह बात समझ में नहीं आई कि हिंदी के आरंभिक आंचलिक उपन्यास के रूप में इसकी चर्चा क्यों नहीं हुई. जबकि दरभंगा और उसके आसपास के जीवन का रस-रंग इसमें भरपूर है. बहरहाल, इस उपन्यास का एक अंश आज पढ़ते हैं- मॉडरेटर
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एक
चैत का महीना था और शाम का वक्त। बीच आँगन में टोला-पड़ोस की औरतें जमा थीं। सभी किसी-न-किसी बातचीत में मशगूल थीं। दो-एक की गोद में बच्चा भी था। दो-एक जनेऊ का धागा तैयार करने के लिए तकली लिए आई थीं। उनकी तकलियाँ किर्र-किर्र करके साँसें के कटोरे में नाच रही थीं और पूनी से खिंचकर सर्र-सर्र निकलता जा रहा था सूत।
एक ही थी जो बेकार और चुप बैठी थी। चेहरे पर विषाद की काली छाया मंडरा रही थी। वह न तकली ही कात रही थी, न गोद में उसके कोई बच्चा ही था। बाकी औरतें रह-रहकर उसकी ओर अजीब निगाहों से देख रही थीं।
इस बीच थोड़ी देर बाद दम्मो फूफी आ पहुँची। अदालत में मुजरिम हाजिर हो, वकील-मुख्तार, गवाह सभी मौजूद हों, फिर भी अगर जज ने किसी कारण से देर कर दी तो क्या होता है, दम्मो फूफी के बिना यही हाल था इस महिला-परिषद् का।
फूफी को आग्रहपूर्वक आसन पर बैठाया गया। गोरा और छरहरा बदन, गोल-मटोल चेहरा। नन्हे-नन्हे से पतले होंठ। गंगा-जमनी बाल। कानों मे सोने के छोटे-छोटे मगर लटके रहे थे। शांतीपुरी धोती पहने हुए थीं। गले में बारीक रुद्राक्षों की माला शिवभक्ति की सबूत थी या शौक की, कहा-नहीं जा सकता। अंटी में से चांदी की सुन्दर डिबिया निकालती हुई वे बोलीं,-आज गर्मी मालूम देती है, कहीं तूफान आया तो आम की फसल चौपट हो जायेगी नस निकालकर चुटकी से नाक के पूड़ों में उसे भरते हुए फूफी ने फिर कहा-गुज्जी बिटिया हमारे यहाँ से ज़रा पंखा तो लेती आ।
गुंजेसरी ने पंखा ला दिया।
इतने में रूपरानी का बच्चा रो पड़ा, न जाने किधर से सबकी नजर बचा-कर एक लाल चींटा आया और बच्चे को काट लिया। बाएँ पैर का अँगूठा धरती से छू रहा था। बच्चे की चीख बढ़ती ही गई। दम्मो फूफी ने कहा-जाओ रूपरानी लोहा छुआ दो। जलन जाती रहेगी।
अपने बच्चे को लेकर रूपरानी जब चली गई तो फूफी ने एक बार और सुंघनी सुड़की।
सभी की दृष्टि, सभी का ध्यान फूफी पर केन्द्रित था। एक ही थी जो विषाद और जड़ता की प्रतिमा बनी बैठी थी। अब दम्मो फूफी ने अच्छी तरह आँख फाड़कर उस पाषाणी को देखा। उसके बाद सभी को अपनी निगाह के दायरे में समेटती हुई बोलीं- उमानाथ की माँ, कब तक चुप रहोगी, कुछ-न-कुछ तो इसे कहना ही पड़ेगा। समूचे गाँव में इस बात की चर्चा है। आखिर जो होना था, वह होकर ही रहा। विधना के विधान को भला हम-तुम टाल सकते हैं यह बेचारी-
इतना कहकर अपने सुन्दर और कोमल हाथ से फूफी ने उस विषादमयी प्रतिमा की ओर संकेत किया। सुननेवाली औरतों ने साँस खींचकर अपने कानों को मानो और भी साफ कर लिया। फूफी बोलती गयीं-वैद्यनाथ के मरने के बाद कितनी कठिनाई से उमानाथ को पाल-पोसकर इतना बड़ा कर पायी है, यह तुममें से बहुतों को मालूम नहीं होगा। भगवान करें, उमानाथ अपने बाप का नाम रखे।
सहानुभूति के ये शब्द सुनकर उमानाथ की माँ की आँखें छलछला आईं और ऐसा लगा कि पाषाणी प्रतिमा में फिर से प्राणों की प्रतिष्ठा हो गई है। उसने कृतज्ञ आँखों से दमयन्ती (दम्मो फूफी) को देखा और सिर नीचा कर लिया। शिकार को गिरफ्त में करके बाघिन को जितना संतोष होता है, इस समय फूफी के भी संतोष की वही मात्रा थी। बेचारी उमानाथ की माँ को क्या पता कि इस सहानुभूति के पीछे एक डायन का निठुर अट्टहास छिपा पड़ा है ! बेचारी को जयनाथ याद आया, जो आज चार महीनों से लापता है।
फूफी ने सुंघनी सुड़कते हुए कहा-कोई चिन्ता नहीं, सारा इन्तजाम हमने कर लिया है। परसों इस समय तक यह बोझ तुम्हारे सिर से उतर जाएगा।
उमानाथ की माँ, रत्ती भर भी फिकर मत करो।
कृतज्ञता के मारे उमानाथ की माँ का जी करता था कि दमयन्ती के पैरों पर अपना सिर रख दे और सुबुक-सुबुककर कुछ देर रो ले। यह चतुर बुढ़िया उस बेचारी को ममता का अवतार प्रतीत हो रही थी। वह विधवा है, अकिंचन है। उसे गर्भ रह गया है। कहीं वह मुँह दिखाने के काबिल नहीं रही। पेड़-पौधे पशु-पक्षी सभी गुप-चुप उमानाथ की माँ के इस महान् कलंक का मानो कीर्तन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में यदि दम्मो फूफी जैसी संभ्रांत वृद्धा उसे सान्त्वना देने आई हैं तो इससे बढ़कर व्यावहारिक मानवता भला और क्या होगी मगर वहाँ तो बीसियों बैठी थीं, दम्मो फूफी अकेली रहतीं तब न। उमानाथ की मां को साहस नहीं हुआ कि फूफी के पैरों पड़ जाए। लज्जा भी निगोड़ी कैसी होती है कि उसका आँचल घोर से घोर पापी के लिए सुलभ है !
स्वर को अधिक से अधिक कोमल करके फूफी ने कहा- अच्छा, कौन था वह कलमुँहा उमानाथ की माँ, जिसने तुम्हें आग में यो झोंक दिया ?
इस असम्भावित प्रश्न से बेचारी के रोम-रोम काँप उठे, समूचे शरीर का लहू पानी-पानी हो गया। विकराल मुँह वाली राक्षसी याद आई, जिसकी कहानियाँ वह बचपन में अपने नाना से सुना करती थी। दमयन्ती का यह सौम्य रूप उमानाथ की माँ के लिए अब मिटता जा रहा था। उसकी जगह कहानी की विकरालवदना वही राक्षसी नजर आने लगी। अभागिनी का हृदय केले के पत्ते की तरह काँपने लगा।
तो क्या, जयनाथ का नाम वह बता देगी नहीं, कभी नहीं। उसने कहा-पता नहीं, मैं कैसे बताऊँ।
हूँ-दमयन्ती ने गौर से उमानाथ की माँ की ओर देखा और पेखे की बेंट से पीठ खुजलाते हुए मुस्कुराना शुरू किया। फूफी की इस लम्बी मुस्कान का और स्त्रियों ने हँसकर समर्थन किया। परन्तु इस मुस्कान और इस हँसी के पीछे उमानाथ की माँ को उछलता-कूदता काला पहाड़ा स्पष्ट दिखाई पड़ा जो कि आहिस्ते-आहिस्ते उसी की ओर आ रहा था। ये लोग मानेंगे नहीं, कुछ न कुछ कहना ही पड़ेगा। क्या कहा जाए, क्या नहीं- वह बेचारी देर तक इसी गुन-धुन में पड़ी रही।
फूफी ने बदले हुए स्वर में पूछा-तो तुम इस बारे में कुछ नहीं जानती.
उमानाथ की माँ नाखून से नाखून खोंट रही थी। आँगन के एक कोने में रतिनाथ बैठा था। महज ग्यारह वर्ष की उम्र होने के कारण ही वह स्त्रियों के इस गुप्त अधिवेशन में शामिल हो सका था। इस सवाल से उस लड़के का दिल धड़क रहा था कहीं उसी के बाप का नाम न चाची के मुँह से निकल आवे। चार मास से रत्ती का बाप-जयनाथ लापता है।
इस मातृहीन बालक का अपनी चाची के प्रति बहुत ही गहरा स्नेह था। चाची भी रत्ती को खूब मानती थी। पिछले चार माह में यह स्नेह और भी गाढा़ हो उठा था। चारों ओर लांछित, चारों ओर से तिरस्कृत होकर उमानाथ की माँ जब भूखे पेट ही सो जाना चाहती तो रतिनाथ सत्याग्रह कर देता- ऐसी क्या बात है चाची कि तुमने खाना-पीना छोड़ रखा है अच्छा, नहीं खाना है न खाओ, मगर कल मैं भी नहीं खाऊँगा, नहीं खाऊँगा, नहीं खाऊँगा। इतना कहकर वह चाची की पीठ से सटकर बैठ जाता और उसके रूखे बालों में अपनी नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ उलझाने लगता। चाची की देह सिहर उठती। वह उठ बैठती और दो चार कौर भात खा लेती। एक दिन पड़ोस की एक लड़की ने रतिनाथ से कहा था-तेरी चाची को, रत्ती, बच्चा होने वाला है। उसने कसकर छोकरी को तमाचा लगा दिया….बेचारे को कुछ पता नहीं कि आखिर बात क्या है। एक दिन दूर की किसी भाभी ने खुलासा कहा-लाला, तुम्हारी चाची की अगर दूसरी शादी हो गयी होती तो ठीक था। इस पर रतिनाथ ने उस भाभी को फटकारते हुए बतलाया था कि पंडित की लड़की होकर तुम ऐसी बातें करती हो। दूसरी-तीसरी शादी क्या कभी किसी विधवा या सधवा ब्राह्मणी ने की है।
अच्छा भई-फूफी ने उठते हुए कहा-अँधेरा हो गया, मुझे तो शिवजी के दर्शन करने नित्य इस समय भी मन्दिर जाना होता है। तुम्हारी मर्जी लेकिन पाँच साल की बच्ची भी इतना बता देती है कि आँखमिचौनी के वक्त उसकी पीठ थपथपाने वाला आखिर कौन रहा होगा, और एक हो तुम ओह, कितनी भोली….अबके फूफी खिलखिलाकर हंस पड़ी, औरों ने भी साथ दिया। यह उन्मुक्त हास उमानाथ की माँ को असह्य हो उठा। मन में आया कि वह भी कसकर चिकोटियाँ काटे। दयमन्ती के बालवैधव्य की रँगीलियों का उसे सारा हाल मालूम था। मगर नहीं, रत्ती की चाची ने अपने को सम्भाला और उठकर कहा-मैं और कुछ नहीं जानती। वह भादों का महीना था। अमावस की रात थी। एक घनी और अँधेरी छाया मेरे बिस्तरे की तरफ बढ़ आई। उसके बाद क्या हुआ, इस बात का होश अपने को नहीं रहा…
फूफी ने इस पर कुछ नहीं कहा। परन्तु, रामपुरीवाली चाची ने आँगन से निकलते समय हल्की आवाज में कहा था-होश कैसे होता ? मौज मारने की घड़ियों में किसी को भला कैसे होश रहेगा ? बला से, अब पेट कोहड़ा हो गया है तो होने दो !
दो
उस रात चूल्हा नहीं जला।
चाची जाकर बिस्तरे पर लेट गई। बिस्तरा क्या था, खजूर के पत्तों की चटाई थी। बीच घर में वही बिछाकर लेट गई, न तकिया लिया न सुजनी। दाईं बाँह पर सिर रखकर वह पड़ी रही और आँखों की रोशनी को घने अन्धकार में भटकने के लिए छोड़ दिया, जैसे थका और भूखा चरवाहा लापरवाह होकर अपने गायों को जंगल में छोड़ देता है। वे लौट भी आना चाहती हैं तो मार डंडा से, मार डंडा से वह उन्हें फिर-फिर जंगल की ओर खदेड़ देता है। बस्ती नजदीक नहीं होने से किसी पेड़ के नीचे वह भी बाँह का तकिया बनाकर करवट लेट जाता है…
रतिनाथ भी जाकर संदूक पर सो रहा। विपत्ति के अथाह समुद्र में गोते खा रही इस चाची के लिए बेचारे ने उस रात कितने आँसू बहाए, यह रहस्य भगवान ही जानते हैं। दिन का भात हाँड़ी में था, पत्थर के बड़े कटोरे में दाल थी। एक दूसरी पथरौटी में ज़रा-सा बैंगन का चोखा रखा हुआ था। पर किसी ने हाथ तक नहीं लगाया। रत्ती भूखा जरूर था, लेकिन उसकी भूख-प्यास हवा हो गई, जबकि टोला-पड़ोस की महिलाओं का दल मुस्कराता और आँखें मटकाता हुआ शाम को रत्ती के आँगन से चला गया। चाची बुत बनी वहीं खड़ी रही, उसकी आँखों से आँसू के चार बड़े-बड़े बूंद ढुलक पड़े थे। समाज व्यक्ति के प्रति इतना निठुर, इतना नृशंस हो सकता है, उस अबोध बालक को अपनी छोटी-सी आयु में आज यह सत्य पहली बार भासित हुआ था।
परन्तु दो पहर रात को किसी ने रत्ती के मुँह में दस-पांच कौर अवश्य डाल दिये थे। और कौन होगा। चाची ही होगी।
हाँ, चाची ही थी। उसी ने नींद में विभोर रतिनाथ को उठाकर दाल-भात और बैंगन का चोखा खिला दिया। रत्ती बराबर आँखें मूँदे ही रहा। खिला-पिलाकर कुल्ली कराकर चाची ने उसे अपने पास सुला लिया। खुद उसने कुछ नहीं खाया। बचा भात बाहर डाल दिया था।
उस रात चाची को नींद नहीं आई। जिसके माथे पर विपत्ति का इतना बड़ा पहाड़ हो वह भला कैसे सोए भादो, आसिन, कार्तिक, अगहन, पूस, माघ, फागुन और यह चैत-आठवाँ महीना चल रहा था। पेट में बच्चा ऊधम मचाने लगा था। चाची को ख्याल आया जयनाथ का चेहरा और फिर उसने सोए हुए रत्ती की मुंह चूम लिया। उमानाथ की मां जानती थी कि जयनाथ देवघर में था और आजकल काशी में है। बेचारी ने कई बार चिट्ठी लिखवानी चाही, मगर किससे लिखवाती। जयनाथ वादा कर गये थे कि दस दिन में ही मैं बाबा (बैद्यनाथ) को जल ढालकर आ रहा हूँ। पूस चढ़ते गए और यह चैत भी बारह दिन बीत गया। चाची को सारी पुरुषजाति से घृणा हो गई…इस मुसीबत का सामना जिसे करना चाहिए, वह कहीं यों बाबा बैद्यनाथ और काशी विश्वनाथ के इर्द-गिर्द गाल बजाता फिरे छिः ऐसा था तो मुझे भी साथ ले लिया होता। हे भगवान ! पानी में डूब मरने के अतिरिक्त क्या कोई और उपाय नहीं है सुनती हूँ, लहेरिया सराय के सरकारी अस्पताल की डाक्टरनी गर्भ गिराने में बहुत कुशल हैं….मगर वहाँ मैं पहुँचूंगी कैसे ?
मुसीबत की उस घड़ी में एकाएक चाची को अपनी माँ याद आई। उसने तय किया कि आज तो नहीं, कल रातोरात वह तरकुलवा चली जाएगी। वहाँ गाँव में ही, चमाइनें हैं। डाँट-फटकार, गंजन-फजीहत के बावजूद भी माँ आखिर माँ ही होगी। लड़की का कवच बनकर तमाम मुसीबतों को वह अपने ऊपर ले लेगी, इसमें भी क्या कुछ शक है ?
इस निश्चय से चाची को राहत मिली और रात्रिशेष में बेचारी की बोझिल पलकें जरा झपक गईं।
रतिनाथ की आँख सबेरे ही खुली। चाची को दूसरे दिन की भाँति आज उसने नहीं जगाया। आँख मलते-मलते वह चाची के घर के पिछवाड़े गया। पेशाब करते वक्त उसकी निगाह घिवही पर पडी। आम के इस बड़े पेड़ को वह बहुत प्यार करता था। इसके आम गोल-गोल होते थे। पकने पर मुँह पीला और बदन लाल हो जाता था। स्वाद घी जैसा। रस गाढ़ा और गुठली छोटी होती थी। इस आम का यह नाम दीदी का रखा हुआ था। पेड़ फलता भी खूब था। बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस हजार तो सिर्फ पकने पर निकलते। आँधी और तूफानों में हजारों कच्ची अंबियाँ गिरतीं सो अलग। वह भी बेकार नहीं जाती, अचार और सूखी खटाई लोग साल-भर खाते। पकने पर घिवही का पेड़ कल्पवृक्ष-सा मनोहर लगता। गाँव में ऐसा कौन होगा, जिसने घिवही के दस-पाँच आम न खाए हों। उनका अमावट ये लोग साल-दो साल तक खाते। इस बार भी घिवही में फल खूब आए थे। रतिनाथ ने देखा, पचासों टिकोरे गिरे पड़े हैं। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा, चटनी के लिए यह काफी है।
वह टिकोरे इकट्ठे करने लगा। चुनने को कुछ रह गए थे कि चाची ने आवाज दी-रत्ती, ओ रत्ती ! कहाँ गया ?
यह रहा चाची, टिकोरे चुन रहा हूँ-रतिनाथ ने जोर से जबाव दिया। तब तक चाची भी वहाँ पहुँच गई। नजदीक आकर रत्ती की ठुड्डी पर हाथ फेरती हुई बोली-तुझे क्या है पागल ? तू क्यों इतना दुबला हो गया है ?
लड़के ने नजर नीची कर ली। ज़रा देर बाद कहा-चाची आज मैं पाठशाला अवश्य जाऊँगा। रसोई तो भला तुम जल्दी कर लो, चटनी मैं खुद ही कर लूँगा।
चुने हुए टिकोरे लेकर चाची आंगन में चली आई। चौका-बर्तन करने के बाद उसने चूल्हा जलाया। खानदानी खबास की बुढ़िया औरत आज पानी भरने नहीं आई, घड़े रीते पड़े थे। रतिनाथ ने छोटी बाल्टी में पोखर का पानी ला-लाकर उन्हें भर दिया। चाची समझ गई कि दमयन्ती का अनुशासन उसके खिलाफ शुरू हो गया आज से। अब इस आंगन में न धोबिन आएगी न नाइन, न डोमिन, न चमाइन। ब्राह्मणी की तो भला बात ही कौन कहे। पुरानी दियासलाई में अभी चार-छः तीलियाँ थीं, एक तीली खिसकर चाची ने चूल्हा जला लिया था। नहीं तो गाँव-गंवई में आग एक घर से मांगकर दूसरा घरवाला ले जाता है, दूसरे से तीसरा। यों दियासलाई का काम ही नहीं पड़ता। फिर भी लोग सलाई की दस-पाँच तीलियाँ बचाकर रखते अवश्य हैं। यह नहीं कि रतिनाथ किसी के यहाँ से आग ला नहीं सकता था। ला सकता था, अगर किसी ने चाची के सम्बन्ध में कुछ अनाप-शनाप उसे सुना दिया तो लड़के के दिल को कितनी चोट लगेगी ! यही सब सोचकर चाची ने रत्ती को कहीं आग लाने नहीं जाने दिया।
रत्ती को चाची का यह रूख पसन्द नहीं आया। वह सोचता, जो एक सुनाएगा हम उसे दस सुना देंगे। जो आग नहीं देगी उसके चूल्हे पर पेशाब कर दूँगा।
खैर, थोड़े पानी से भी काम चल गया। चाची ने सिर्फ चार-छः लोटा पानी नहाने में खर्च किया, बाकी रसोई में। पीने के लिए एक बाल्टी रत्ती कुएँ से स्वयं ले आया भरकर। भात तैयार हो गया। तब जाकर पोखर में नहा आया।
सौ साल पहले पंडित नीलमणि ने यह पोखर खुदवाया था। वह रत्ती के दादा के दादा थे। अपने दालान के बिल्कुल करीब एक छोटा-सा पोखर खुदवा गए। इस पोखर के तीन भिंडों पर अब उपाध्याय घराने की बढ़ती आबादी छा गई थी। केवल पूरब वाला भिंडा बच रहा था। पास-पड़ोस के मर्द आकर उसी ओर के घाट पर नहाते।
आज शालिग्राम की पूजा में रतिनाथ का मन नहीं लगा। सराइयाँ तीन थीं, देवता दो ही थे-शालिग्राम और नर्मदेश्वर। ताँबे की सराई शालिग्राम के लिए, पीतल वाली नर्मदेश्वर के लिए। तीसरी भी पीतल की ही थी। वह पंच देवता के उद्देश्य से थी। चन्दन रगड़कर उसने अच्छत भिगोये। ‘‘ऊँ सहस्त्रशीर्षा…’’ आदि मंत्र पढ़कर शंख से शालिग्राम पर जल ढारा, फिर नर्मदेश्वर पर। फिर अनमने भाव से चन्दन, अच्छत, फूल वगैरह चढ़ाकर रत्ती ने पूजा खतम की। उधर थाली में भात-दाल परोसा जा चुका था।
थोड़ा-सा उसने खाया होगा कि तब तक चाची ने चटनी भी पीस ली। भुना हुआ जीरा भी दिया था उसमें। रतिनाथ ने चटनी का स्वाद ले-लेकर खूब खाया। खाते-खाते उसे चाची ने कहा-बेटा पाँच-छः रोज तुझे अकेला ही रहना पड़ेगा।
और तुम कहाँ रहोगी ?-उठते हुए कौर को रोककर रतिनाथ ने आँखों से ही सवाल किया।
तरकुलवा जाऊँगी, किसी से कहना मत !-चाची बोली।
उसने फिर कहा, रात को पड़ोस के आँगन में सो जाना। चावल, दाल, लकड़ी, धनियाँ, हल्दी, नमक, तेल-सामान सब मौजूद है। खुद पकाकर खा लेना। पांच-छः रोज की बात है उसके बाद तो मैं आ ही जाऊँगी।
रत्ती खाना खतम करते-करते बोला-मैं भी न साथ चलूँ ?
नहीं-चाची ने कहा-बात ऐसी आ पड़ी है कि अकेली ही जाऊँगी, यही अच्छा रहेगा।
रतिनाथ ने चुप रहकर चाची की बात का औचित्य मंजूर कर लिया। अब वह खाना खा चुका था। हाथ-मुँह धो आया। खाकर मुख शुद्धि के तौर पर सुपारी का एक छोटा-सा टुकड़ा चबाना उसके अभ्यास में शामिल हो गया था। सुपारी का टुकड़ा थमाते हुए चाची ने आले की ओर इशारा किया और कहा-यहाँ आठ-दस सुपारी रख जाऊँगी, सरौता भी रहेगा।
तब तक दिन काफी उठ आया था। रत्ती पाठशाला जा चुका था। चाची अपनी चिन्ता की धारा को समकूल रखने के लिए तकली लेकर बैठी। खाना वह देर से खाएगी।
बीच घर में बैठकर वह तकली कातने लगी किर्र-किर्र-किर्र। मिथिला की कुलीन ब्राह्मणियों के जीवन में इस तकली का बहुत बड़ा स्थान रहा है। कुटीर-शिल्प का यह मधुर प्रतीक अब तो उठता ही जा रहा है, फिर भी जनेऊ के लिए तकली से निकले इन बारीक सूतों की आवश्यकता अनिवार्य समझी जाती है। फुर्सत का वक्त स्त्रियाँ तकली के सहारे बहुत आसानी से काट लेती हैं। आठ-दस वर्ष की उम्र से लेकर जीवन-पर्यन्त तकली का और उनका साथ रहता है। कहते हैं कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन से पहले घर-घर तकली चलती थी। तकली के ये सुन्दर और महीन सूत मलमल बुनने के काम आते। परन्तु अब तो यह वस्तु ब्राह्मणों के ही घरों में रह गई है और इन सूक्ष्म मनोहर सूतों का उपयोग सिर्फ जनेऊ तक सीमित रह गया है। हाँ, तो तकली की मृदु मधुर ध्वनि में एकरस होकर चाची सोचनी लगी-इस समय अगर जयनाथ होते….अगर जयनाथ होते तो उन्हें कुछ न कुछ प्रतिकार अवश्य करना पड़ता। यह गरीबी और इतनी असहाय अवस्था। विपदाओं का यह महाजाल। कौन मुझे उबारेगा कुछ भी हो, मर्द फिर मर्द ही है।
चाची को एक-एक करके पुरानी बातें याद आने लगीं-सुखी माँ-बाप भरा, पूरा बचपन। कुलीन परन्तु दरिद्र से विवाह। रोगी पति। घुन लगा हुआ दाम्पत्य। लड़का उमानाथ, लड़की प्रतिभामा। वैधव्य। सुदूर दक्षिण (भागलपुर) में लड़की का बेचा जाना। ऋण से छुटकारा…ओह ! उमानाथ जब सुनेगा कि उसकी विधवा माँ गर्भवती हो गई है तो…
उमानाथ की उम्र पन्द्रह साल की थी। वह जिद्दी, गुस्सैल और पढ़ने में मन्द था। प्रतिभामा सत्रह साल की थी, उसे ससुराल गए तीन-चार साल होने को आ रहे थे। कुलीनता की दृष्टि से बहुत ही नीच, मूर्ख और चालीस साल के एक अधेड़ ब्राह्मण से सात सौ नकद गिनकर उससे शादी की। वह छः महीने के बाद ही गौना करा ले गया और तब से प्रतिभामा फिर शुभंकरपुर की इस धरती पर पैर नहीं रख पाई।
इतने में किसी के पैर की आहट पाकर चाची का ध्यान भंग हुआ। उसकी बोटी-बोटी काँपने लगी-हे भगवान् ! यह कौन आ रहा है…कल किसी ने कहा था कि थाने में भी इस बात की खबर हो गई है।
उसका दिल धड़कने लगा। मुसीबत के इन दिनों में किधर से भी वज्रपात हो सकता है। कैसी भी अनहोनी हो सकती है। चाची को टोला-पड़ोस की एक-एक औरत दमयन्ती मालूम दे रही दे रही थी। हवा से उड़ा हुआ एक-एक तिनका खतरे से भरा नजर आ रहा था।
आहट बिल्कुल करीब आ गई। चाची ने अपने को और कड़ा कर लिया-कोई भी हो, घबड़ाना नहीं चाहिए। बदनामी तो फैल ही गई। अब और इससे अधिक क्या होगा दारोगा फाँसी तो देगा नहीं, हाँ पहरा जरूर बैठा दे सकता है। सरकार के कानून में गर्भ गिराना नाजायज है; तो क्या सोचकर अंग्रेज बहादुर ने यह कानून बनाया होगा, कि कोई भी विधवा भ्रूणहत्या नहीं कर सकती…चाची अब भी उसी रफ्तार से तकली कात रही थी। पूनी पर पूनी खतम होती गईं, मगर सोचने का धागा अपने छोर पर नहीं पहुँचा।
चाची के सामने जयनाथ खड़े थे। दाढ़ी बढ़ी हुई, चेहरा खिला हुआ। चाची की उँगली रुक गई, तकली का तकुआ ठिठक गया। कता हुआ सूत तकली में जल्दी-जल्दी लपेटकर उसने पूनियाँ और तकली डाली में रख ली।
जयनाथ ने कहा-रहने दो उमानाथ की माँ ! तुम क्यों उठती हो ? पैर धोने के लिए लोटा-भर पानी घड़े से क्या खुद नहीं ले सकता मैं ?
पर चाची तब तक पानी ला चुकी थी। वह अपने हाथों से ही जयनाथ के पैर धोने लगीं, परन्तु जयनाथ नहीं माना। खुद पैर धोने लगा।
दातून भी नहीं की होगी-चाची ने कहा-ठहरो, ला देती हूँ। दक्खिन तरफ तो घर था, उसमें से वह साहड़ की दातून ले आई और जयनाथ को थमा दी। बोली-कल सुबह यह दातून रत्ती कहीं से लाया था। देखो न, अभी तक हरी है….कपार पर आई एक रूखी लट को बायें हाथ से ठीक करती हुई चाची फिर बोली-चार अच्छर लिखना तुम्हारे लिए पहाड़ हो गया। कोई खत नहीं, खबर नहीं ! बड़े अजीब आदमी हो !
जयनाथ ने कोई सफाई नहीं दी, मुस्करा भर दिया। गठरी में से उसने अपनी धोती निकाल ली और दातून करते-करते स्नान करने चला गया।
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