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जब चेतन भगत को पढने से परहेज नहीं तो पढ़ाने से क्यों?

‘हर तरफ ऐतराज होता है

मैं अगर रौशनी में आता हूँ-

लगता है दुष्यंत कुमार ने यह शेर चेतन भगत के लिए ही लिखा था. हालाँकि जितना ऐतराज होता है वे उतनी अधिक रौशनी में आते हैं. वे मुझे बहुत पसंद हैं- इसलिए नहीं कि वे बहुत अच्छा लिखते हैं. इसलिए क्योंकि भारतीय अंग्रेजी साहित्य की जितनी ऐसी तैसी उन्होंने की उतनी किसी ने नहीं. आज वे भारतीय अंग्रेजी लेखन की सबसे बुलंद तस्वीर हैं- कोई माने या न माने. वे लेखक नहीं एक फिनोमिना हैं. उनके इतने क्लोन पैदा हुए कि अंग्रेजी का समकालीन लेखन परिदृश्य मेरे जैसे हिंदी लेखकों के कलेजे को बहुत ठंढक पहुंचाता है. अंग्रेज राज के बाद यह बच गए अंग्रेजी राज की अकड़ ढीली करने में बहुत बड़ा योगदान चेतन भगत का रहा है.

ताजा प्रसंग यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में उनके पहले उपन्यास ‘फाइव पॉइंट समवन’ को शामिल कर लिया गया है. हालाँकि यह अंग्रेजी में ऑनर्स की पढ़ाई करने वालों के पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं बल्कि अन्य विषयों से ऑनर्स की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी चॉइस बेस्ड पाठ्यक्रम में उनको पढ़ सकते हैं. पढने न पढने का विकल्प उनके पास होगा क्योंकि इस पाठ्यक्रम में जे के रोलिंग स्टोन, अगाथा क्रिस्टी सहित कुछ अन्य लोकप्रिय लेखकों की किताबें हैं. कल तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले प्राध्यापक ‘व्हू इज चेतन भगत’ कह कर उनका मखौल उड़ाते थे आज वे हाय तौबा मचा रहे हैं. इन अंग्रेजी पढ़ाने वालों ने इस बात से लगातार अपनी आँखें फेरे रखी कि अंग्रेजी साहित्य का वर्तमान इतने लोलुप, बाजारवादी लेखकों से कैसे भरता गया. वे अपनी अतीत को थामे क्लासिक पढ़ाने में लगे रहे और सोचते रहे कि यह संकट है, टल जायेगा. लेकिन यह संकट नहीं यथार्थ है. अंग्रेजी विभागों को लगता है कि वे श्रेष्ठ भाव से बने रह पायेंगे. लेकिन इस खुशफहमी के साथ बहुत दिनों तक नहीं रहा जा सकता था. चेतन भगतों ने देश में अंग्रेजी का दायरा बहुत बढ़ा दिया है. अब वह सिर्फ एलिट्स की भाषा नहीं रह गई है. उसको मॉस अपील बढ़ गई है. अंग्रेजी वाले इस बात को समझते हैं लेकिन मानना नहीं चाहते थे. अंग्रेजी वाले दो चेहरों को ओढ़कर चलते हैं. चेतन भगत को पढने से उनको कोई ऐतराज नहीं है पर पढ़ाने से है.

दिल्ली विश्वविद्यालय ने तो पोपुलर के बढ़ते महत्व को पहले ही समझ लिया था और दो साल पहले ही अपने पाठ्यक्रम में सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा आदि लेखकों को शामिल कर लिया था. वहां कोई सुगबुगाहट भी नहीं हुई.

अंग्रेजी वालों ने बाजार को बहुत पहले स्वीकार कर लिया था. जब विक्रम सेठ, अरुंधती रे, राजकमल झा आदि लेखकों को लाखों डॉलर मिल रहे थे तो वे ख्सुह होते थे, फिर चेतन भगतों को मिलने पर अफ़सोस क्यों? बाजार है- इसमें कुछ भी चल जाता है.

यह स्वागतयोग्य बात है कि अंग्रेजी विभाग ने चेतन भगत को पाठ्यक्रम में जगह देकर आज के समाज की प्रवृत्ति को समझा है. अंग्रेजी अब जनता छाप भाषा होती जा रही है तो जनता के लेखक से परहेज क्यों?

-प्रभात रंजन 

 
      

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