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मुक्ति-भवन – मोक्ष का वेटिंग रूम

कुछ फ़िल्में ऐसी होती है जो लीक से हटकर होती हैं। जिसे कुछ ख़ास तरह के लोग पसंद करते हैं। ऐसी ही फ़िल्म है मुक्ति भवन। फ़िल्म के बारे में युवा लेखक नागेश्वर पांचाल ने लिखा है। आप भी पढ़िए – सम्पादक

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गुस्ताव फ्लौबेर्ट कहते है “देयर इज नो ट्रुथ, देयर इज ओनली परसेप्शन.” मौत की बात करते वक़्त क्या हम इस विचार से मुत्तफ़िक़ हो पाते है. मौत अंतिम सत्य है या कोई परसेप्शन यहाँ भी गठित होता है.

युवा लेखक और निर्देशक शुभाशीष बड़े अनूठे तरीके से मुक्तिभवन के जरिये मौत, परिवार, जीवन और प्रकृति की बात करते है. एक मध्यमवर्गीय परिवार, एक कुम्लाही बीबी जिसका हर चीज़ के प्रति अपना नजरिया है, एक अलमस्त बेटी जो दादा के साथ अपना रूम शेयर करती है, एक हठी पापा जिनका ख्याल है कि उनका वक़्त आ गया है और एक मैं (साधारण इंसान). मैं यह फिल्म आदिल की निगाह से देखता हूँ.

विकिपीडिया के अनुसार मौत जीवन की प्रक्रिया करने की शक्ति को समाप्त करने की क्रिया को कहते हैं. फिल्म कहती है कि मौत एक प्रक्रिया है. खाने की टेबल पर बतियाते बतियाते दया दादाजी को लगता है कि उनका वक़्त आ गया है और अब उन्हें एक धूम धाम से इस जीवन से विदा ले लेनी चाहिए. मैं सोचता हूँ ये कैसा बेहूदा ख़याल है, क्या कभी सुव्यवस्थित रूप से मरा जा सकता है. अगर मरने की परियोजना बनाई जाए तो शायद इसका भी एक नया ही मार्किट तैयार हो जाये और बड़े लोगो की भाषा में इसे कूल डेथ या सेक्सी डेथ कहा जाने लगे. खैर वर्तमान में कैसे मरना है ये फैशन नहीं है.
मुक्तिभवन बनारस में एक भवन है जहाँ लोग मरने आते है और माना जाता है कि जो वहां प्राण त्यागेगा वो मुक्ति पा लेगा और इस जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जायेगा. मोक्ष को एकनाथ एवं ज्ञानेश्वर ने एक लालसा बताया है और असली संत मोक्ष की चाहत से मुक्त होता है. विनोबा कहते है कि मोक्ष की कामना करना भी एक कामना है. सेवा ही सबसे बड़ा मोक्ष है.

अपने हाथो पर सोते वक़्त लोशन लगाती लता, आदिल से पूछती है “कितने दिन लगेंगे?” सवाल शायद जायज़ नहीं लेकिन ब्रॉड पर्सपेक्टिव में देखे तो जरुरी है. आदिल घर को ऑफिस बनाए बैठे है और काम कर रहे है. “मेरे हाथ में यमदूत की लिस्ट रखी हो जैसे” आदिल जवाब देते है और लाइट बंद हो जाती है. हमारे समाज में गुस्सा जाहिर करने के बहुत तरीके है और उतने ही मौके.

हाथ रिक्शा, बनारस की गलिया, पंडित कम मैनेज़र मिश्रा जी और मुक्तिभवन. मुक्तिभवन में अनेक कमरे है जहाँ सिर्फ़ आप 15 दिन रह सकते है अगर इतने दिन में मोक्ष मिल गया तो ठीक. जमीन से मरे कीड़े को उठाते हुए मिश्रा जी कहते है की मोक्ष मिल गया इसे. विमला मुक्ति भवन में पिछले 18 साल से रह रही है और वो अपने पति के साथ मरने आई थी. हर 15 दिन में उसका नाम बदल जाता है. झूठ मुक्तिभवन के दरवाजे के भीतर समां गया है खैर क्या फर्क पड़ता हैं क्योंकि यमराज क्या इतना अपडेट होगा. मरने की कोशिश नहीं की जा सकती. वो अपनी मर्जी से आती हैं.

मुक्तिभवन जो मोक्ष के निकट का एक द्वार है जहाँ से मौत अपना रास्ता तय करती है वहां सब उड़नखटोला देखते है. जब चीज़े सीमित हो तो छोटी छोटी चीजों का महत्व पता चलता है और वक़्त, जगह मिलकर उसकी कीमत तय करते है.

सुनीता (पलोमी घोस) को मैंने मामी फिल्म फेस्टिवल की एक फिल्म नाचूम इन कुम्पसार, जो गोन संगीत पर आधारित थी में पहली बार देखा था सुनीता अपने दादा के बेहद करीब है और वो उनकी मित्र जैसी है. पिता जब पिता होता है तो उसे पता नहीं चलता कि वो किस हद तक अपनी संतान को नाराज़ कर रहा होता है.

मरना एक प्रक्रिया है, मौत मर जाने वाली प्रक्रिया की समाप्ति. दो तरह की मौत की बात की जाती है एक अगति और दूसरी गति. मरने के बाद अगर आदमी अर्चि मार्ग पर जाए तो वो ब्रह्मलोक पहुँचता है. छान्दोग्य उपनिषद आत्मा के स्तर के बारे में बात करता है जहाँ तुरीय अवस्था में वही आदमी पहुंचता है जिसे मोक्ष मिल गया हो.

फिल्म लय दर लय भीतर खुलने की बजाय मानवीय चीजों पर केन्द्रित होती जाती है. जहाँ विमला और दया गंगा में नाव में घूम रहे होते है और एक दूजे का हाथ थामे बाहर आते है. जहाँ सुनीता एक नया मोड़ ले लेती है और उसके जवाब समाज पर सवाल खड़ा करने लग जाते है. एक शोक सन्देश पढ़ते हुए व्यक्ति कहता है कि वो तो अपना शोक सन्देश खुद लिखकर मरेगा.

चीज़े व्यक्तित्व सहेज लेती है लेकिन व्यक्ति को सहेजने की अनुमति प्रकृति नहीं देती. कुछ शोध बताते है कि मौत एक ईवोलूशन है और ये जीवन लेने के तरीके पर निर्भर होती है. अगर आपको अगला जन्म मिले तो आप क्या बनोगे? कितने लोग वापस इसी योनी में आना चाहेंगे? “मैं तो कंगारू बनूँगा.”

एक डायरी, कुछ इच्छाये, डायरी पढ़ती सुनीता और सुनता आदिल. मुक्तिभवन में आप आने की तारीख लिख सकते हो जाने की कौन लिखेगा? मौत का कोई विकल्प नहीं होता. अत: हम क्या कर सकते है? नाजिम अली का एक शेर है-

ऐ हिज्र वक़्त टल नहीं सकता है मौत का
लेकिन ये देखना है कि मिट्टी कहाँ की है

(फिल्म में सारे कलाकार संजिंदगी से अपने किरदार जीते है. नाचूम इन कुम्पसार Let’s dance to the rhythm को बनाने में पुरे 10 साल लगे और इस फिल्म के गीत कमाल के है जो सारे कोंकणी म्यूजिक से लिए गए है. फिल्म जेज़ संगीतकार क्रिस पेरी एंड लोरना पर आधारित है.)

 
      

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