आज मूर्धन्य लेखक अज्ञेय जी की पुण्यतिथि है. आज ही के दिन 1987 ईस्वी में उनका निधन हुआ था. यह उनकी मृत्यु का 30 वां साल है. आज उनको याद करते हुए पढ़िए उनका यह लेख ‘मैं क्यों लिखता हूँ?- मॉडरेटर
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मैं क्यों लिखता हूँ?
मैं क्यों लिखता हूँ? यह प्रश्न बड़ा सरल जान पड़ता है पर बड़ा कठिन भी है क्योंकि इसका सच्चा उत्तर लेखक के आंतरिक जीवन के स्तरों से संबंध रखता है। उन सबको संक्षेप में, कुछ वाक्यों में बाँध देना आसान तो नहीं ही है, न जाने संभव भी है या नहीं। इतना ही किया जा सकता है कि उनमें से कुछ का स्पर्श किया जाए विशेषकर ऐसों का जिनका जानना दूसरों के लिए उपयोगी हो सकता है।
इसका एक उत्तर तो यह है कि मैं इसीलिए लिखता हूँ कि मैं स्वयम् जानना चाहता हूँ कि मैं क्यों लिखता हूँ – लिखे बिना तो इसका उत्तर नहीं मिल सकता। वास्तव में सच्चा उत्तर यही है। लिखकर ही लेखक उस आभ्यंतर विवशता को पहचानता है जिसके कारण उसने लिखा और लिखकर ही उससे मुक्त हो जाता है। मैं भी उस आंतरिक विवशता से मुक्ति पाने के लिए, तटस्थ होकर उसे देखने और पहचान लेने के लिए लिखता हूँ। मेरा विश्वास है कि सभी कृतिकार ; क्योंकि सभी लेखक कृतिकार नहीं होते न उनका लेखन ही कृति होता है, सभी कृतिकार इसीलिए लिखते हैं। यह ठीक है कि कुछ ख्याति मिल जाने के बाद कुछ बाहर की विवशता से भी लिखा जाता है– संपादकों के आग्रह से, प्रकाशक के तकाज़े से, आर्थिक आवश्यकता से। पर एक तो कृतिकार ईमानदारी से अपने सम्मुख यह भेद बनाए रखता है कि कौन-सी कृति भीतरी प्रेरणा का फल है और कौन-सा लेखन बाहरी दबाव का, दूसरे यह होता है कि बाहरी दबाव वास्तव में दबाव नहीं रह जाता, वह मानो भीतरी उन्मेष का निमित्त बन जाता है।
यहाँ कृतिकार के स्वभाव और आत्मानुशासन का महत्त्व बहुत होता है। कुछ ऐसे आलसी जीव होते हैं जो बिना इस बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते, इसी के सहारे उनकी भीतरी विवशता स्पष्ट होती है यह कुछ वैसा ही है जैसे प्रातः काल नींद खुल जाने पर भी कोई तब तक बिछौने पर पड़ा रहे जब तक घड़ी का अलार्म न बज जाए। इस प्रकार वास्तव मेें कृतिकार बाहर के दबाव के प्रति समर्पित नहींं हो जाता है बल्कि इसे एक यंंत्र की तरह काम में लाता है, जिससे भौतिक यथार्थ के साथ उसका संबंध बना रहे। मुझे इस सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन उससे कभी बाधा भी नहीं होती। उठने वाली तुलना को बनाए रखूँ तो कहूँ कि सबेरे उठ जाता हूँ अपने आप ही, पर अलार्म भी बज जाए तो कोई हानि नहीं मानता।
यह भीतरी विवशता क्या होती है? इसे बखानना बड़ा कठिन है। क्या वह नहीं होती यह बताना शायद कम कठिन होता है या इसका उदाहरण दिया जा सकता है, कदाचित वही अधिक उपयोगी होगा। अपनी एक कविता की कुछ चर्चा करूँ जिससे मेरी बात स्पष्ट हो जाएगी।
मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और मेरी नियमित शिक्षा उसी विषय में हुई है। अणु क्या होता है, हम रेडियम-धर्मी तत्त्वों का अध्ययन करते हुए कैसे विज्ञान की उस सीढ़ी तक पहुँचे जहाँ अणु का भेदन संभव हुआ। रेडियम-धर्मिता के क्या प्रभाव होते हैं इस सबका पुस्तकीय या सैद्धांतिक ज्ञान तो मुझे था। फिर जब हिरोशिमा में अणु-बम गिरा तब उसके समाचार मैंने पढ़े और उसके परवर्ती प्रभावों का भी विवरण पढ़ता रहा। इस प्रकार उसके ऐतिहासिक प्रभावों का परिणाम भी सामने आ गया। विज्ञान के इस दुरुपयोग के प्रति बुद्धि का विद्रोह स्वाभाविक था, मैंने लेख आदि में कुछ लिखा भी पर अनुभूति के स्तर पर जो विवशता होती है वह बौद्धिक पकड़ से आगे की बात है और उसकी तर्क संगति भी अपनी अलग होती है। इसलिए कविता मैंने इस विषय में नहीं लिखी। यों युद्धकाल में भारत की पूर्वीय सीमा पर देखा था कि कैसे सैनिक ब्रह्मपुत्र में बम फेंककर हज़ारों मछलियाँ मार देते थे जबकि आवश्यकता उन्हें थोड़ी-सी होती थी और जीव के इस अपव्यय से जो व्यथा भीतर उमड़ी थी उससे एक सीमा तक अणु बम द्वारा व्यर्थ जीव नाश का अनुभव तो कर ही सका था।
जापान जाने का अवसर मिला तब हिरोशिमा भी गया था और वह अस्पताल भी देखा जहाँ रेडियम-धर्मी तत्त्वों से आहत लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार अनुभव भी हुआ पर अनुभव से अनुभूति गहरी चीज़ है, कम-से-कम कृतिकार के लिए। अनुभव तो घटित का होता है पर अनुभूति कल्पना और संवेदना के सहारे उस सत्य को आत्मसात् कर लेती है जो वास्तव में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ। जो आँखों के सामने नहीं आया, जो घटित के अनुभव में नहीं आया, वही आत्मा के सामने ज्वलंत प्रकाश में आ जाता है, तब वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाता है।
तो हिरोशिमा में सब देखकर भी तत्काल कुछ लिखा नहीं क्योंकि इसी अनुभूति प्रत्यक्ष की कसर थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए देखा कि एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है। विस्फोट के समय वहाँ कोई खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें उसमें रुद्ध हो गयी होंगी, जो आस-पास से आगे बढ़ गयीं उन्होंने पत्थर को झुलसा दिया, जो उस व्यक्ति पर अटकीं उन्होंने उसे भाप बनाकर उड़ा दिया होगा। इस प्रकार समूची ट्रैजेडी जैसे पत्थर पर लिखी गयी।
उस छाया को देखकर जैसे एक थप्पड़-सा लगा। अवाक् इतिहास जैसे भीतर कहीं सहसा एक जलते हुए सूर्य-सा उग आया और डूब गया। मैं कहूँ कि उस क्षण में अणु विस्फोट मेरे अनुभूति प्रत्यक्ष में आ गया। एक अर्थ में मैं स्वयम् हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया। इसी में से वह विवशता जागी। भीतर की आकुलता बुद्धि के क्षेत्र से बढ़कर संवेदना के क्षेत्र में आ गयी.. फिर धीरे-धीरे मैं उससे अपने को अलग कर सका और अचानक एक दिन मैंने हिरोशिमा पर कविता लिखी। जापान में नहीं, भारत लौटकर, रेलगाड़ी में बैठे-बैठे।
यह कविता अच्छी है या बुरी इससे मुझे मतलब नहीं है। मेरे निकट वह सच है क्योंकि वह अनुभूति प्रसूत है, यही मेरे निकट महत्त्व की बात है।
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12 जनवरी 1959 को अज्ञेय ने ‘हिरोशिमा’ कविता एक सफ़र के दौरान रेल में लिखी थी–
एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।
मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के;
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर;
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।
मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।