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अमरेन्द्र ही नहीं, शिवगामी और देवसेना भी हैं बाहुबली

इस कठिन समय में जब एक लड़की या औरत क्या पहनेगी,कहाँ जाएगी,किसके साथ घूमेगी इसका निर्णय लेने के लिए भी  स्वतंत्र नहीं वहीं महिशमती राज की दो औरतों को एक राज्य नियंत्रित करते देखना बहुत सुखद है. पढ़िए बाहुबली पर रोहिणी कुमारी का लेख- दिव्या विजय
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बीते शुक्रवार लोगों को इस सदी का सबसे महान और मुश्किल सवाल ‘कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?’ का जवाब अन्तत: मिल ही गया. लगभग पिछले दो सालों से एक साये की तरह पीछा करता हुआ यह सवाल इतना ज़्यादा वाइरल हो चुका था कि मुझ जैसा इंसान जो साल में बस एक सिनेमा ही देखना अफ़ॉर्ड कर पाता है इससे अछूता नहीं रह पाया और नतीजा यह था कि पहले दिन का आख़िरी शो हमने देख लिया और हम उन तमाम लोगों से बस एक दिन कि लिए ज़्यादा ज्ञानी हो गए जिन्होंने बाहुबली २ अबतक नहीं देखी थी या है…किसी सवाल का जवाब जान लेने का सुख एक विद्यार्थी से बेहतर भला कौन जानेगा.
ख़ैर अब आते हैं सिनेमा की बात पर…मैं रिव्यू नहीं लिखने वाली क्योंकि मेरे जीवन का यह संभवत: पहला सिनेमा है जिसे देखकर लगा मुझे यह रिव्यू, आलोचना आदि से परे है. मैंने इसका पहला भाग रिलीज़ होने के लगभग एक साल बाद देखा था और उस वक़्त यह एहसास हुआ कि ओह कुछ बहुत अच्छा मिस कर दिया मैंने इसे हॉल में ना देखकर. इसलिए भाग २ को थिएटर में जाकर देखने की योजना और संकल्प साल भर पहले ही बनाई और ली जा चुकी थी. वैसे तो ज़्यादा ज्ञान मुझे हिंदी फ़िल्मों का भी नहीं है लेकिन जब साउथ की फ़िल्मों की बात आती है तो वहाँ काला अक्षर भैंस बराबर वाला मामला हो जाता है मेरे लिए. बावजूद इसके प्रभास को पहचान लेना और उसकी ऐक्टिंग और लुक  पर मर मिटने वाली फ़ीलिंग आ ही गई थी.
अभिनय के नाम पर कोई भी कलाकार किसी से काम नहीं था इस सिनेमा में. प्रभास की बात तो है ही लेकिन बाहुबली के दोनो भागों में एक चेहरा ऐसा है जो मेरे लिए ख़ास है. और वह है महिशमती की राजमाता शिवगामी का. उनके भाव और भंगिमा इतने तेज़ और चमकदार लगे हैं दोनों भागों में कि एक पल के लिए भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि वह एक सिनेमा के परदे पर अभिनय भर कर रही हैं.
आज का ये दुरूह समय जब आधी आबादी को इस देश में फिर से अपने अस्तित्व के लिए नई लड़ाई की तैयारी करनी पड़ रही है वहाँ एक ऐसे कहानी को लेकर लोगों के बीच में आना जिसका केंद्र मातृसत्ता निश्चय ही सराहनीय है. लार्जर देन लाइफ़ के सेट पर इसके सारे किरदार भी उसी अनुपात में गढ़े और रचे गए हैं. महिषमती की शिवगामी एक सशक्त महिला है जिसने बाहुबली जैसा वीर और योद्धा तैयार किया है. वह राज और प्रजा के सारे निर्णय स्वयं लेती है और उसकी जनता को उसके निर्णय पर ख़ुद से ज़्यादा यक़ीन है. सिनेमा में औरतों के प्रबल रूप को दिखाने का एक भी मौका इसके निर्माता ने नहीं छोड़ा है. एक तरह जहाँ बाहुबली,कटप्पा,भल्ललदेव  का अनोखा और विशाल किरदार दिखता है वहीं उन्हें टक्कर देने के लिए शिवग़ामी और देवसेना का रौद्र रूप भी तैयार किया गया है. सिनेमा की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसमें एक स्त्री के सभी रूपों को देखा और अनुभव किया जा सकता है. स्वयं शिवगामी ही हर रूप में दिखाई पड़ती है.जहाँ शुरू में वह महिशमती जैसे विशाल राज्य की कर्ताधर्ता है उनकी राजमाता है वहीं कभी कभी बाहुबली और अपने पुत्र भल्ललदेव के लिए उनमें  माँ का वात्सल्य भी दिख जाता है. वह एक अच्छी शासक होने के साथ साथ एक माँ के कर्तव्य का निबाह भी कर रही है. जब अपने बेटे के लिए जीवनसंगिनी खोजना हो तो उनके पैमाने अलग हैं लेकिन उन्हें यह भी याद रहता है कि वो महिशमती की होने वाली रानी भी होगी और उनकी खोज की दिशा बदल जाती है. शिवग़ामी से कहीं छोटा क़द देवसेना का भी नहीं है.वह एक ऐसी राजकुमारी है जो अपने राज्य की सबसे बेहतरीन धनुर्धारी भी है और संगीत में भी उतनी ही माहिर.बाहुबली के लिए बिलकुल पेरफ़ेक्ट मैच या यूँ कहें फ़ीमेल बाहुबली और  यह रूप आख़िरी तक  बना रहता है.
मैंने इस सिनेमा को बस इसी नज़रिए देखा और साझा कर रही हूँ. इस कठिन समय में  जब एक लड़की या औरत क्या पहनेगी कहाँ जाएगी किसके साथ घूमेगी इसका निर्णय लेने  भी स्वतंत्र नहीं  वहीं महिषमती राज के दो औरतों को एक राज्य को नियंत्रित करते हुए देखना कितना सुखद है यह मैं शायद शब्दों  में बयान नहीं कर पा रही हूँ.
और जहाँ तक यक्ष प्रश्न के जवाब का मामला है तो जनाब जाइए और थिएटर में देख कर आइए कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?
आजतक हम सिनेमेटोग्राफ़ी और सेट के  लिए हॉलीवुड का मुँह ताकते आए हैं लेकिन मेरा मानना है कि बॉलीवुड के लोग पहले साउथ के सिनेमा के  की बराबरी ही कर लें तो उन्हें फिरंगियों का मुँहताक नहीं होना पड़ेगा.हालाँकि सिनेमा के कहानी की पृष्ठभूमि नई नहीं थी किसी अन्य राज पाठ वाले कहानी से फिर भी “कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?” यह प्रश्न सदी का सबसे मुश्किल और लोकप्रिय प्रश्न बन गया है इसकी कोई तो वजह रही होगी…..
और अंत में सबसे ज़रूरी बात ये कि आपको सिनेमा में दिलचस्पी हो ना हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है.और कुछ नहीं  तो राष्ट्रगान दोहराने के लिए ही थिएटर चले जाना चाहिए महीने में एक बार.जब हमारी सरकारें हमारे लिए इतना कुछ कर रहीं हैं तो देश के लिए हम आप इतना तो कर ही सकते हैं…
#जय हिंद
#जय महिशपती
 
      

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