युवा शायर सीरीज में आज पेश है आलोक मिश्रा की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
1-
लबालब दुःख से था क़िस्सा हमारा
मगर छलका नहीं दरिया हमारा
असर उस पर तो कब होना था लेकिन
तमाशा बन गया रोना हमारा
मगर आने से पहले सोच लो तुम
बहुत वीरान है रस्ता हमारा
अजब तपती हुई मिट्टी है अपनी
उबलता रहता है दरिया हमारा
तुम्हारे हक़ में भी अच्छा नहीं है
तुम्हारे ग़म में यूँ जीना हमारा
2-
इक अधूरी सी कहानी मैं सुनाता कैसे
याद आता भी नहीं ख़ाब वो बिछड़ा कैसे
कितने सायों से भरी है ये हवेली दिल की
ऐसी भगदड़ में कोई शख़्स ठहरता कैसे
फूल ज़ख़्मों में यहाँ और भी चुन लूँ लेकिन
अपना दामन मैं करूँ और कुशादा कैसे
काँच के जार से बस देखता रहता था तुम्हें
बंद शीशों से मैं आवाज़ लगाता कैसे
दुःख के सैलाब में डूबा था वो ख़ुद ही इतना
मेरी आँखों तुम्हें देता वो दिलासा कैसे
इसका फन मैंने बहुत देर तलक कुचला था
रह गया सांप तिरे दर्द का ज़िंदा कैसे
ख़ुश्क मिट्टी में पड़ा था मिरे दिल का पौधा
इसकी शाख़ों पे कोई फूल भी आता कैसे
3-
वो बेअसर था मुसलसल दलील करते हुए
मैं मुतमईन था ग़ज़ल को वकील करते हुए
अजीब ख़ाब था आँखों में ख़ून छोड़ गया
कि नींद गुज़री है मुझको ज़लील करते हुए
वो मेरे ज़ख़्म को नासूर कर गए आख़िर
मैं पुरउमीद था जिनसे अपील करते हुए
सबब है क्या कि मैं सैराब हूँ सरे सहरा
जुदा हुआ था वो आँखों को झील करते हुए
मरा हुआ मैं वो किरदार हूँ कहानी का
जो जी रहा है कहानी तवील करते हुए
4-
साल ये कौन सा नया है मुझे
वो ही गुज़रा, गुज़ारना है मुझे
चौंक उठता हूँ आँख लगते ही
कोई साया पुकारता है मुझे
क्यों बताता नहीं कोई कुछ भी
आख़िर ऐसा भी क्या हुआ है मुझे
तब भी रोशन था लम्स से तेरे
वरना कब इश्क़ ने छुआ है मुझे
मुस्तक़िल चुप से आसमाँ की तरह
एक दिन ख़ुद पे टूटना है मुझे
अब के अंदर के घुप अंधेरों में
एक सूरज उजालना है मुझे
आदतन ही उदास रहता हूँ
वरना किस बात का गिला है मुझे
क्या ज़ुरूरत है मुझको चेहरे की.?
कौन चेहरे से जानता है मुझे.
5-
बुझती आँखों में तेरे ख़ाब का बोसा रखा
रात फिर हमने अंधेरों में उजाला रखा
वक़्त के साथ तुझे भूल ही जाता लेकिन
इक हरे ख़त ने मिरे ज़ख़्म को ताज़ा रखा
ज़ख़्म सीने में तो आँखों में समुंदर ठहरे
दर्द को मैंने मुझे दर्द ने ज़िंदा रखा
मेरा ईमां न डिगा पाईं हज़ारों शक्लें
मेरी आँखों ने तेरे प्यार में रोज़ा रखा
साथ रहता था मगर साथ नहीं था मेरे
उसने क़ुर्बत में भी अक्सर मुझे तनहा रखा
क्या क़यामत है कि तेरी ही तरह से मुझसे
ज़िन्दगी ने भी बहुत दूर का रिश्ता रखा
6-
चीख़ की ओर मैं खिंचा जाऊँ
घुप अँधेरों में डूबता जाऊँ
कब से फिरता हूँ इस तवक़्क़ो पे
ख़ुद को शायद कहीं मैं पा जाऊँ
रूह तक बुझ चुकी है मुद्दत से
तू जो छू ले तो जगमगा जाऊँ
दुःख से कैसा भरा हुआ है दिल
उसको सोचूं तो सोचता जाऊँ
धूप पीकर तमाम सहरा की
अब्र बनकर मैं ख़ुद पे छा जाऊँ
लम्हा लम्हा ये छाँव घटती है
पत्ता पत्ता मैं टूटता जाऊँ
नींद आती नहीं है स्टेशन पर
सोचता हूँ कि घर चला जाऊँ
एक पत्ता हूँ शाख़ से बिछड़ा
जाने बहकर मैं किस दिशा जाऊँ
जी में आता है छोड़ दूँ ये ज़मीं
आसमानों में जा समा जाऊँ
7-
बुझे लबों पे तबस्सुम के गुल सजाता हुआ
महक उठा हूँ मैं तुझको ग़ज़ल में लाता हुआ
उजाड़ दश्त से ये कौन आज गुज़रा है
गई रुतों की वही ख़ुशबुएँ लुटाता हुआ
तुम्हारे हाथों से छूटकर न जाने कब से मैं
भटक रहा हूँ ख़लाओं में टिमटिमाता हुआ
तू शाहज़ादी महकते हुए उजालों की
मैं एक ख़ाब अँधेरों की चोट खाता हुआ
शिकन सी पड़ने लगी है तुम्हारे माथे पर
मैं डर रहा हूँ बहुत दास्ताँ सुनाता हुआ
निगल न जाए कहीं बेरूख़ी मुझे तेरी
कि रो पड़ा हूँ मैं अब के तुझे हंसाता हुआ…
मिरा बदन ये किसी बर्फ़ के बदन सा है
पिघल न जाऊँ मैं तुझको गले लगाता हुआ..
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