अच्छी शायरी करना एक बात है और अच्छा इंसान होना दूसरी बात। अज़हर इक़बाल, जितनी अच्छी शायरी करते हैं उतने ही बेहतर इंसान भी हैं। उनसे मिलते हुए यूँ महसूस होता है, जैसे कभी बिछड़े ही न थे। बात करते हुए लगता है कि गुफ़्तगू कभी ख़त्म न हो। ऐसा प्यारा शख़्स, जिसकी शख़्सियत किसी ख़ुशरंग रूह की तस्वीर जैसी है और शायरी बहती हुई नदी की रवानी लिए हुए। जो न सिर्फ़ अपने तजरबे को इज़्ज़त बख़्शता है, बल्कि उसे उसी रूप में पेश भी करता है। आज युवा शायर सीरीज में पढ़िए अज़हर इक़बाल की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
ग़ज़ल–1
दरख़्तों से था एक रिश्ता हमारा
ज़मीं उनकी थी और साया हमारा
कोई तो पाओं की ज़ंजीर बनता
कोई तो रोकता रस्ता हमारा
तआल्लुक़ झूठ की बुनियाद पर था
मगर वो इश्क़ था सच्चा हमारा
सवेरे लौटना पड़ता है घर को
सवाली हो गया बच्चा हमारा
अभी तक याद आती है तुम्हारी
अभी उतरा नहीं नश्शा हमारा
अचानक मर गया किरदार कोई
अधूरा रह गया क़िस्सा हमारा
खड़े हैं मुट्ठियों में रेत लेकर
हुआ करता था एक दरिया हमारा
ग़ज़ल–2
गुलाब चांदनी रातों पे वार आये हम
तुम्हारे होंठो का सदक़ा उतार आये हम
वो एक झील थी शफ़्फ़ाफ़ नीले पानी की
और उस में डूब के खुद को निखार आये हम
तेरे ही लम्स से उनका ख़िराज मुमकिन हैं
तेरे बगैर जो उम्रें गुज़ार आये हम
फिर उस गली से गुज़रना पड़ा तेरी ख़ातिर
फिर उस गली से बहोत बेक़ारार आये हम
ये क्या सितम है के इस नश्शा ऐ मुहब्बत में
तेरे सिवा भी किसी को पुकार आये हम
ग़ज़ल–3
ज़मीन ऐ दिल एक अरसे बाद जल थल हो रही है
कोई बारिश मेरे अन्दर मुसलसल हो रही है
लहू का रंग फैला है हमारे कैनवस पर
तेरी तस्वीर अब जाकर मुकम्मल हो रही है
हवा ऐ ताज़ा का झोंका चला आया कहाँ से
के मुद्दत बाद इस पानी में हलचल हो रही है
मेरी आवाज़ ख़ामोशी में ढल जाएगी एक दिन
कोई हसरत मेरे अन्दर मुक़फ़्फ़ल हो रही है
तुझे देखे से मुमकिन मग़फ़िरत हो जाए उसकी
तेरे बीमार की बस आज और कल हो रही है
हर एक मन्ज़र मुझे धुन्दला नज़र आने लगा है
कोई तस्वीर इन आँखों से ओझल हो रही है
वो शब आ ही गई बंद ऐ क़बा खुलने लगे हैं
पहेली थी जो एक उलझी हुई हल हो रही है
ग़ज़ल–4
घुटन सी होने लगी उसके पास जाते हुए
मैं ख़ुद से रूठ गया हूँ उसे मनाते हुए
ये ज़ख्म ज़ख्म मनाज़िर लहू लहू चेहरे
कहाँ चले गए वो लोग हँसते गाते हुए
तुम्हारे आने की उम्मीद बर नहीं आती
में राख होने लगा हूँ दिए जलाते हुए
है अब भी बिस्तर ऐ जां पर तेरे बदन की शिकन
मैं ख़ुद ही मिटने लगा हूँ इसे मिटाते हुए
न जाने ख़त्म हुई कब हमारी आज़ादी
तआल्लुक़ात की पाबन्दियाँ निभाते हुए
ग़ज़ल–5
तेरी सम्त जाने का रास्ता नहीं हो रहा
रह ऐ इश्क़ में कोई मोजज़ा नहीं हो रहा
कोई आईना हो जो ख़ुद से मुझ को मिला सके
मेरा अपने आप से सामना नहीं हो रहा
तू ख़ुदा ऐ हुस्न ओ जमाल है तो हुआ करे
तेरी बन्दगी से मेरा भला नहीं हो रहा
कोई रात आ के ठहर गयी मेरी ज़ात में
मेरा रौशनी से भी राब्ता नहीं हो रहा
इसे अपने होंटो का लम्स दो के ये सांस ले
ये जो पेड़ हे ये हरा भरा नहीं हो रहा