युवा शायर सीरीज में आज पेश है विपुल कुमार की ग़ज़लें – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल–1
जल्द आएँ जिन्हें सीने से लगाना है मुझे
फिर बदन और कहीं काम में लाना है मुझे
इश्क़ पाँव से लिपटता है तो रुक जाता हूँ
वर्ना तुम हो तो तुम्हें छोड़ के जाना है मुझे
मेरे हाथों को ख़ुदा रक्खे तिरे जिस्म की ख़ैर
मसअला ये है तुझे हाथ लगाना है मुझे
दिल को धड़का सा लगा रहता है वो जान न ले
और फिर जब्र तो ये है कि बताना है मुझे
माँग लेता हूँ तिरे ग़म से ज़रा सरदारी
एक दुनिया है जिसे दिल से उठाना है मुझे
ग़ज़ल–2
फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए
तेरे कहाँ से हों कि हम अपने नहीं हुए
कुछ क़र्ज़ अपनी ज़ात के हो भी गए वसूल
जैसे तिरे सुपुर्द थे वैसे नहीं हुए
अच्छा हुआ कि हम को मरज़ ला-दवा मिला
अच्छा नहीं हुआ कि हम अच्छे नहीं हुए
उस के बदन का मूड बड़ा ख़ुश-गवार है
हम भी सफ़र में उम्र से ठहरे नहीं हुए
इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
और फिर तमाम उम्र किसी के नहीं हुए
हम आ के तेरी बज़्म में बे-शक हुए ज़लील
जितने गुनाहगार थे उतने नहीं हुए
इस बार जंग उस से रऊनत की थी सो हम
अपनी अना के हो गए उस के नहीं हुए
ग़ज़ल–3
वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात
किस पे ख़र्ची है बता मेरी कमाई हुई रात
और फिर यूँ हुआ आँखों ने लहु बरसाया
याद आई कोई बारिश में बिताई हुई रात
हिज्र के बन में हिरन अपना भी मेरा ही गया
उसरत-ए-रम से बहर-हाल रिहाई हुई रात
तू तो इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत को लिए बैठा है
तो कहाँ जाती मिरे जिस्म पे आई हुई रात
दिल को चैन आया तो उठने लगा तारों का ग़ुबार
सुब्ह ले निकली मिरे हाथ में आई हुई रात
और फिर नींद ही आई न कोई ख़्वाब आया
मैं ने चाही थी मिरे ख़्वाब में आई हुई रात