आज रेल दिवस है और संयोग से मैं रेल में हूँ। मैंने रेल यात्राएँ बहुत कम की हैं। उस पर भी अकेले तो बहुत ही कम मगर फिर भी रेल यात्राएँ सबसे अधिक लुभाती हैं। सबसे अधिक आरामदायक भी वही होती हैं।
पिछले साल दिल्ली गयी थी। तब लम्बे अरसे बाद रेल में अकेले सफ़र किया था। यात्रा बहुत अच्छी और यादगार रही थी पर वापस लौटते हुए मेरा फ़ोन ऐन उसी वक़्त ट्रेन के वॉशरूम में गिर गया जब अपना पर्स टटोलते हुए मैं सोच रही थी कि कुछ भी खोया नहीं…मैं सही-सलामत अपने सामान के साथ वापस लौट रही हूँ। तभी फोन गिरा और मेरी धड़कन मेरी हथेलियों पर आकर बैठ गयी। रेल चलने को थी और वहाँ मौजूद रेल कर्मचारियों ने कहा कि फ़ोन तो अब कल ही निकलेगा जब ट्रेन वापस लौटेगी और टैंक खुलेगा। मैं ये सुनकर सन्न थी। तब तक न जाने कौन उनके सीनियर अफ़सर को बुला लाया था। कोई ख़ान साहिब थे।लम्बे-चौड़े और बेहद स्मार्ट। आते ही पठानी लहजे वाली हिंदी में मेरी परेशानी पूछी और कर्मचारी वाली बात दोहरा दी। मेरा चेहरा लटक गया था और मैं शुक्रिया बोलकर मुड़ गयी। तभी उन्होंने आवाज़ दी…रुकिए। मैं रुक गयी और वो किसी को निर्देश दे रहे थे कि स्वीपर को बुला लाइए। उनके जूनियर उन्हें धीरे से कह रहे थे कि ट्रेन का टाइम हो गया है…चल पड़ेगी। तो उन्होंने हँसते हुआ कहा…ऐसे कैसे चल पड़ेगी जब तक ये सिग्नल नहीं देंगे..किसी की तरफ़ इशारा करते हुए वह बोले। फिर आउट ऑफ़ द वे जाकर भारतीय रेल सेवा के अफ़सरों ने शताब्दी को होल्ड कर मेरा फ़ोन निकलवाया था। ये अलग बात है कि फ़ोन फिर कभी नहीं चला पर चीज़ों को हमेशा के लिए खो देने से बेहतर उनका ख़राब होकर भी हमारी आँखों के सामने रहना है। उस रोज़ एक बानगी उन लोगों की मिली जो अपने पद का उपयोग अनजान लोगों की मदद के लिए करते हैं और सदा के लिए अपनी छाप मन पर छोड़ जाते हैं।
रेल के निचले स्तर के कर्मचारियों में इस से उलट व्यवहार देखने को मिला। ख़ासकर एसी डब्बों की सार-संभाल करने वाले अटेंडेंटस में। कोई प्रश्न पूछने पर अथवा कोई मदद माँगने पर यूँ बात करते हैं जैसे एहसान करे दे रहे हैं। किसी यात्री के उतरने पर न तो उसका बिस्तर समेट कर रख अगले यात्री के लिए सीट सही कर छोड़ेंगे बल्कि उस अगले यात्री के आने पर बड़ी ठसक के साथ कहेंगे कि इनको यही रहने दीजिएगा, अभी उठा लेंगे। एक-एक चादर तकिए के लिए उनकी मिन्नतें करनी पड़ती हैं। उनका व्यवहार ऐसा रहता है कि रेल उनकी निजी सम्पत्ति हो।
इस बार तो एक अजब ही वाकया हुआ। नहीं लिखूँगी तो बात अधूरी रहेगी। रात का सफ़र था। पहली बार रात में अकेली सफ़र कर रही थी और संयोग से मेरे आस-पास कोई नहीं था। चार सीट में से एक पर मैं थी और बाक़ी सब खाली। थोड़ी देर बाद अटेंडेंट आया और इधर-उधर देखकर रहस्यमयी लहज़े में बोला,
“मैडम, आपने सूटकेस को चेन क्यों नहीं लगायी?”
मैंने उसकी बात सुनी-अनसुनी कर दी।
थोड़ी देर बाद वो फिर आया और सर खुजा कर कहने लगा ” मैडम, सफ़र में सामान को बाँध कर ही रखना चाहिए।”
मैंने किताब पढ़ते हुए नज़रें ऊपर की तो वो सूट्केस को लगातार घूरे जा रहा था। फिर बाहर जाकर न जाने क्या करता रहा। दस मिनट बाद वो फिर आया और कहा, “मैडम, आप जानती हैं न चोरों का कोई भरोसा नहीं। चोरी कभी भी हो सकती है।”
मेरा सब्र जवाब दे गया था। मैंने उस से सख़्ती से पूछा कि इस तरह की बातें करने का क्या अर्थ है। वो बग़ैर जवाब दिए खिड़की के पास बैठ गया और चोर नज़रों से सूट्केस को देखता रहा। मैं आजिज़ आ कर उठी और अपना सामान ले दूसरे यात्रियों के पास आ बैठी। टी टी के आने पर उस से शिकायत की तो टी टी ने उसको फटकारा और ऐसी हरकतें न करने की वॉर्निंग दी। अपना नम्बर दिया कि ज़रूरत पड़ने पर मैं उस से फोन पर सम्पर्क कर सकती हूँ। लिस्ट चेक कर बताया कि अगले स्टेशन से एक परिवार आपके कैबिन में आने वाला है। उनके आने पर ही फिर मैं अपनी सीट पर वापस जा सकी। विडम्बना देखिए कि थोड़ी देर बाद टी टी पलट कर आया और बोला,
“मैडम, आपकी मिस्ड कॉल नहीं आयी अब तक। आपका नम्बर भी मिल जाता तो….”
यह वाक़या सोचने पर मजबूर करता है कि रेल में हम कितने महफ़ूज़ हैं।
रेल में मुझे अक्सर मददगार लोग मिले हैं पर अक्सर के अलावा बचे हुए वक़्त में वे लोग भी होते हैं जो अपनी चप्पल जूते पैसिज में यूँ ही बिखरे छोड़ सीट्स पर पसरे बैठे रहते हैं। अब कोई आए और कोई जाए उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता। आने-जाने वाले ख़ुद जगह बनाते हुए निकल जायेंगें। सामान के साथ किसी को आते देखेंगे तो मजाल है ज़रा हाथ लगाकर वे लोग दरवाज़ा पकड़ लेवें। ये वही लोग हैं जिनमें आलस इनबिल्ट होता है और जो रेल की सीट को किसी नवाब की हवेली मान ऐसे पोज़ में बैठे रहते हैं कि असल हुक्मरान भी शरमा जाएँ। सीट पर अख़बार बिखेरे, डूब कर लैपटॉप पर फ़िल्म देखते ये लोग घर पर कितने लापरवाह होते होंगे इसकी बानगी ये रेल में भी देते दिखायी देते हैं। खा- पीकर कचरा इस तरह इधर-उधर फेंकते हैं कि अच्छी-भली बोगी कचरादान बन जाती है।
रेल हमारी सम्पत्ति है। रेल में अपने आस-पास देखिए और सोचिए कि क्या एक सीट अस्थायी घर के समान नहीं है? चार्जर में लगा मोबाइल, स्टैंड पर लटकी पानी की बोतलें और सिलवट पड़े बिस्तर। रेल की सफ़ाई और आस-पास वालों की सुविधा का ख़याल रखने पर हमारी सहूलियतें भी तो बढ़ेंगी। और उन लोगों से अनुरोध जो भारतीय रेल के लिए काम करते हैं। अपने लहज़े से नहीं अपने व्यवहार से साबित करिए कि रेल आपकी है। आख़िरी गुज़ारिश रेल प्रशासन से…स्टेशन आने पर अगर स्टेशन का नाम अनाउन्स होने की व्यवस्था हो जाए तो मेरे जैसे लोगों को सहूलियत हो जाए जिनको पूरे रास्ते स्टेशन न छूट जाये इसी बात की धुकधुकी लगी रहती है।
रेल दिवस पर आपको शुभकामनाएँ। आपकी हर यात्रा मंगलमय हो।
– दिव्या विजय
Nice article
अच्छा लेख
अति सुन्दर लेख दिव्या जी, भारतीय रेल से जुडी एक पोस्ट हमने भी लिखी है, “भारतीय रेल में सौचालय की शुरुआत कब और कैसे हुई? ”
http://www.frogpitara.com/2017/10/history-of-toilets-in-indian-train.html एक बार अवश्य पढ़ें, धन्यवाद!
acha likha ha sir , par ye btao … train kabhi time par aati hai kya ,…. hahhaha
यह आपने सच कहा रेल हमारी संपत्ति है तभी तो सभी इसपर अपना मालिकाना हक़ ही समझते हैं | लोगों को विश्वस्तरीय सुविधाएं तो चाहिए पर हरकतें एकदम निम्न स्तरीय रहेंगी |