सजग पाठिका एवम सदैव साहित्य सृजन में उन्मुख ज्योति मोदी अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हैं। इनकी कई कविताएं राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रेम, प्रकृति, विरह के भाव की परिचायक हैं इनकी लेखनी। आइए पढ़ते हैं कुछ कविताएँ – दिव्या विजय
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एकालाप
परिंदों से भरे छज्जे पर मीठी धुप मुस्कुराये
तो बसंत आया समझना
गीली मेहँदी अपनी खुशबू में
सिन्दूरी रंग टटोले तो बसंत आया समझना
मैं समझती हूँ जोगनों के बसंत जरा अलग होते होंगे
कुछ वैसे जैसे गेरू में पुती हथेली की छाप को देर तक मैं टटोलती हूँ
उसमें दो कसीदे तुम्हारे नाम के डाल आहिस्ते घर की बत्तियां जलाती हूँ
तुम्हारे आलोक में जलती परिक्रमा करती हूँ
जाने किन किन निष्ठुर देवों की
पीला सा ताप कहता है
जिसके लिए तुम रखती हो चाँद को आँचल में
गिन गिन कर डालती हो फंदे गलबहियों में
चूरमे की चीनी चख लेती हो सबसे पहले और प्रगाढ़ निद्रा बोल उठती हो
छू कर देखो तो कंठ मेरे भरे से क्यों लगते हैं
वो नर्मदा का शीतल जल उड़ेले भी न पिघलेगा
मैं अपनी लकड़ियां बिन लाऊंगी
पर मैं न जली अगर इस बसंत भी तो किसे दोष दूंगी
मैं सब तेरे नाम करुँगी
तुम्हें जो सबसे ज्यादा पसंद हो मेरी छलकती आँख
उसे ही बसंत समझना I
स्त्री
याद नहीं आता
कब माँगा था उसने वैराग
स्त्री थी वो
पर कभी नहीं पहना था अध्यात्म
अंतत वो प्रेम हुई
चूमी गयी
प्रगाढ़ हुए मंत्रों से
फिर स्वयं हुई देह
मंज़ीरों की
फिर अनहद नाद …
मीरा
प्रेयस की देह पर लोटती
आशा निराशा में
कुंदन सी निखरती है प्रेयसी
आँचल संदली
बाहें रक्तिम
अंगों से झरते हैं कंवल
उस योगी ने सितारे मले थे जहाँ
वहाँ किलकारियाँ हैं झरनों की ..
वो गिरती है
उठती है
घंटियों के मधुर स्वर सी ठहरती है
जलती हुई शिला को करती है ईश्वर
वहाँ से लाती है हिम की चादर
जहाँ प्रेयस ने दिखाई थी
पवित्र उदगम वाली मीरा ..
कमर पर चारों दिशायें लपेट कर
वो उतरती है गहरे प्रेम में
एक आचमन खुली हथेली का
जिसे घूँट घूँट पीता है प्रेयस उसका ..
वो तिर जाएगी
हरसिंगर सी खुल कर
विकल प्रेयस के कंठ में महकेगी
कामनाओं की मृग छाल उतार कर
उजास मरीचिका की धूनी से
देखेगा उसकी तृप्ति …
रिक्त और सिक्त के मिलन से परे
वो स्वछन्द नर्तन में होगी
वो ही जीवन से पूर्ण
जिसे जान नहीं पाया योगी …
हर चीज़ अपनी जगह
हर चीज़ अपनी जगह
लौट जाती है
पहाड़ों के नीरव स्वर को
चीर कर निकलती नदी
खामोश भूरे मौन पर पसर जाती है
सहमी सकुचाई धून्ध
जंगलों और झरनों पर नीचे, बहुत करीब उड़ती है
टटोलती है जैसे अपना मन
फिर एक लंबी आह के साथ
रात में सिमट जाती है
हर चीज़ अपनी जगह लौट जाती है
अधखिले बिना खुश्बू वाले फूल
सुलगती आग से रंग को
बिन कुछ कहे
गीली ओस में तह लगाते हैं
ख़ूबानी से झड़ कर गिरी कच्ची सुबह
कोहरे भरी धूप में लौट जाती है
प्यास भरे पाँव
एक बार में लाँघ जाते हैं
पिघली बर्फ के गड्ढे
प्यासे झनझनाते हैं तराइयों पर
हर चीज़ अपनी जगह लौट जाती है..
तू भी लौट जा
एक जगह
सुनना कभी
वो बहुत तेज़ चीत्कार करती है ..तेरे बिन !!
बेहद सुंदर ।