हिंदी में किसी भी विषय पर कविता-सीरीज लिखने की परम्परा रही है। ‘चिनार’ रमा भारती के कविता संग्रह का नाम है। आइए आज इसी सीरीज की कुछ कविताएँ पढ़ते हैं। चिनार बहाने ज़िंदगी के कई पहलुओं पर बात करती हैं ये कविताएँ अपने में एक विशेष अर्थ रखती हैं – सम्पादक
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चिनार 1.
पहाड़ों के सीने की धुकधुकी बढ़ी हुयी है
डल सुनती है हौले से कान लगाए गुमसुम
सूने शिकारे में बैठी लड़की
परदेसी की याद में गाती है विरह गीत
चिनारों की आतिशी कतारें
खड़ी हैं किसी मुखविर सी
मौसम की नव्ज़ पकड़ते ही
धू -धू जल उठता है वो यकीन
जिसे लिख छोड़ा था यहीं कहीं
एक कविता में बरसों पहले
अबकी भी सूना रहेगा गुलमर्ग-सोनमर्ग
कि बूटों के निशानों नें
बर्फ़ की आत्मा पर लिख दिया है
‘प्रतिबन्ध’
चिनार 2.
दिल्ली से बैठ कर
हाँकी जाती हैं पोजिशंस
और लाहौर से
तय किया जाता है असला
फ़ौजियों को भी अब
चिनार, डल, पहाड़
औ’ झेलम के पानी में
स्वर्ग का मौसम जँचता नहीं
मगर वे हैं वहाँ
तो ज़िन्दगी साँस लेती है
औ’ वादी बेख़ौफ़ सोती है
ये स्वर्ग के नियमों का
उलंघन नहीं
अमन की कोशिश भर है ……
चिनार 3.
जानें क्यों ?
इन दिनों बहुत याद आती है
वो दूधिया रंग में सिन्दूरी रंगत वाली
मेरी दूध-वाली
मुझे उसके ज़ेवर बहुत भाते
औ’ उसे मेरी आँखों की हंसी
हम ख़ामोशी से
एक दूसरे की बातें समझते
औ’ पिछले जन्म में बिछड़ी हुयी
बहनों से मिलते सुबह-शाम
वो अपने सवालों का जवाब
इन आँखों में पढ़ती रहती
औ’ मैं उसकी ख़ूबसूरती में तिर के
स्वर्ग तक घूम आती झट से
फ़िर एक रोज़ वो आई नहीं
इंतज़ार नें बेचैनियाँ भर दीं
औ’ पहले ही विस्फोट नें
अजनबियत
मैंने उसका घर ढूँढ़ लिया
मगर हमारा मज़हब
बदल चुका था अबतक
मेरा रंग उससे अलहदा हो गया
बस आँखों की भाषा मिलती रही
दूध पाउडर की शक्ल ले चुका था
औ’ उसकी रंगत ज़र्द चिनार सी
ख़ौफ़ का कोई इलाज नहीं
औ’ यक़ीन की कोई सूरत भी तो नहीं, शायद !
चिनार 4.
चलो !
चलें फ़िर
उन वादियों में जहाँ
चिनार के रंगीन बिस्तर पर
औंधा लेटा चाँद
करता था बतकही
शिकारों की खिड़कियों से
खिखिलाती जल-परियों से
जुगनुओं सी छिटकती रोशनी से
परछाइयों के रंगीन झुरमुट से
लिली पर बरसी शबनम की बूँदों से
रात भर …..
चिनार 5.
मैं चिनारों पे गोदना चाहती हूँ
‘विश्वास’
झेलम के पानी पे लिखना चाहती हूँ
‘शान्ति’
डल के शिकारे की तलहटी में
बोना चाहती हूँ
‘जीवन’
हर माँ की आँखों में देखना चाहती हूँ
‘चैन’
हर युवा के हाँथ में चाहती हूँ
‘रोज़गार’ की काँगड़ी
हर बच्ची की बर्फ़ होती रंगत में
भरना चाहती हूँ
‘केसर’ का रंग
हर औरत को देखना चाहती हूँ
‘टियूलिप औ’ लिली’ की मुस्कान में
हाँ !
मैं आख़िर से पहले
अपने पाँव में गुदे पहाड़ को
देखना चाहती हूँ ‘जीवंत’
पहले की तरह !
चिनार 6.
देवदारु औ’ चिनार
आमने-सामने खड़े
दो भाइयों से लगते हैं
एक मौलाना हो गए
दूसरे जनेऊ में खो गए
मिल के रहते थे दोनों
सेब, अख़रोट, खुबानी, बादाम के संग
पर अब दोनों के बीच
खिंची रेखा पर
रखी रहती है ‘बन्दूक’
औ’ दोनों करते हैं रतजगे
इस इंतज़ार में
कि कोई तीसरा हल लाए
औ’ ये असला ले जाए
मगर…..
अपने हरे ही दुःख हरता है प्यारे !
अपने मरे ही स्वर्ग मिलता है प्यारे !
चिनार 7.
जहाँ संगीनों के साए में
जीवन है
बूटों की ठोकर पे
धड़कन है
आहट-आहट फैला
माँ का आँचल है
गहरी-गहरी साँसों की क़ैद में
बचपन है
मिट्टी में खोई-खोई
केसर की गमगम है
लहू की खुशबू
चिनारों की रंगत में है
चलो !
क्यों न कुछ यूँ कर के देखें अब
टोपी न उतरे न ही जनेऊ टूटे
न दर्द बहे झेलम के मन में
न रूह जमें डल के तन में
एक आग मोहब्बत की
जला दें दोनों ओर
जिस्म-जिस्म से ये
हैवानियत हटा दें
न वो ज़िद से समझें
न हम ही अना से टूटें……
चिनार 8.
मैं रोज़ रात
अपने हिस्से के चिनार
के पत्ते चुनती हूँ
उनसे बनाती हूँ अनेक आकृतियाँ
लिखती हूँ खुले प्रेम पत्र
वादियों के नाम
फ़िर थक के ओढ़ लेती हूँ उन्हें
लाल दुशाला की तरह
उकेरती हूँ बूटियों में
हर रंग के सपनें
औ’ करती हूँ इंतज़ार
‘अमन’ का
जबकि दामन में
अनेक लिली औ’ टियूलिप
रहते हैं भरे
मैं जानें किस ख़्वाब की ख़ातिर
नहीं खोलती हूँ आँखें, अब भी…..
9.
इन दिनों
मैं एक जंगल से हूँ वाबस्ता
जो मुझमें उगता है
औ’ तुम तक आते आते मुक जाता है
मैं उलझी रहती हूँ
लता-पत्तियों में
औ’ तुम पर
हर फूल बिछ जाता है
तुमको जंगल भी
देते हैं दुआएं सुलझे रहने की
मुझ तक आते-आते
सहरा भी जंगल हो जाता है
अंदर के जंगल से निकलूँ
तो बाहर खो जाती हूँ
बाहर से अंदर लौटूँ
तो हर लम्हा तनहा हो जाता है
तुमको होना था
मेरा जंगल
मुझको खो जाने का डर खो जाता
ये बाहर भीतर का रस्ता एक सार हो जाता……
10.
मैंने माना है
मैंने जाना है
कि बंधन खोल देने में जो सुख है
वो न बाँध लेने में है
न ही बंधा रहने में
यूँ ही रहें ये धागे
आस्था औ’ प्रेम के
तिरते खुली हवाओं में
जहाँ होती है माटी में नमी
और बची रहती है
भरोसे की धूप
ये खुद ही रोप लेते हैं अपनी जड़ें
औ’ पौड़ते हैं अनंत की ओर…….
11.
मैंने जब कहा देखो! वो खर-पतवार है
उसने कहा हँसुआ मत उठाना
मैंने कहा उमस बढ़ती जाती है
उसने कहा आकाश पे नज़र मत लगाना
मैंने कहा सूरज डूबा-डूबा सा है
उसने कहा दूसरी और उग गया होगा
मैंने कहा अब अकेला नहीं लगता वो बूढ़ा बरगद
उसने कहा उसका नाम “अकेला” ही है युगों से
मैंने कहा मुझे पूरव में बसने दो
उसने कहा कुछ रोज़ पश्चिम की आँच लगने दो
अब मैंने कहना शुरू किया ‘जैसा तुम कहो’
उसने हँस कर कहा ‘प्रेम में परिपक्व हो गई हो तुम’……..
12.
मेरे पाँव पर फूल न रखना
इन्होंने बहुत कांटे झेले हैं
मेरे सीने पर भी न रखना
कि इसमें दुनिया-जहान के झमेले हैं
सिरहाने तो हरगिज़ नहीं
वहां एक भट्टी ज़िंदा रहेगी मरने के बाद भी
हाँ ! कभी-कभी
आँगन की किसी क्यारी में लगे
रजनीगंधा को सहला देना
कभी पीछे वाली क्यारी में
मोगरे को दुलरा देना
या गली के कोने पर झुके
अमलतास को देख मुस्कुरा देना
या फिर कुछ जतन कर
जकरण्डा और गुलमोहर को गले लगा लेना
मैंने कई-कई सुबहें
इनके सीने से लगकर
चुप्पी कविताएं लिखी हैं
मुझे तन्हा और बहुत तन्हा रहना
औ’ खिले-खिले, टिके-टिके रहना
इन दरख़्तों ने ही तो सिखाया है……
13.
मैं कभी अपने गर्भ में रहती थी
तब अनजाने लात चला कर
सूरज को बेदख़ल कर देती थी
अब मैं तुम्हारे गर्भ में रहती हूँ
तुम्हारी नाल से उलझी हैं सब साँसें
मैं तुम्हें बेदख़ल नहीं कर सकती
मैं दूर और पास के सब सपने
तुम्हारे लहू से होकर बुनती हूँ
मुझे किसी और रंग से क्या वास्ता…
14.
मैं नहीं डिगाना चाहती हूँ
तुम्हारा तेज
न चाहती हूँ
तुम सम से झुक जाओ
मैं तो बस
तुम्हारे आकाश के नील पर
लिखना चाहती हूँ
गुलाबी बोल
मैं जीना चाहती हूँ
ख़ामोशी में जन्मा आठंवा सुर
आरोह तक का क्षितिज
और अवरोह तक की ज़मीन…
15.
मैं टूट कर बिखरती नहीं
टिक जाती हूँ यहाँ-वहाँ
जैसे मैं टिक रही हूँ इन दिनों
एक अजनबी माथे की शिकन में
मैं देखती हूँ शहद की कुछ मक्खियाँ
टूटन के मुहाने पर दस्तक दे रही हैं
अबकी पहाड़ को विचलित करना होगा
लुढ़काना होगा उसकी आँखों के नीचे खिंची खाइयों से
मैं फिर रास्ते पर बहने लगूँगी
तुम फिर से कोई प्यास तृप्त कर सकोगे……
16.
मैंने उसे तब इतना नहीं जाना था
वो अंतर्मुखी पहाड़ की तरह
मुझे नदी होते देखना चाहता था
मैं बहती गयी उसकी निगाह से ओझल
जबकि मेरी आत्मा कुंडली मार
उसी के इर्द-गिर्द सुस्ताती रही
उसी वृत में कुछ पीपल उगे हैं
ये न उसकी चाहना थी न मेरी
हमने अनजानी विकलता का दीप प्रज्वलित रखा….
17.
मैं सड़क के
ठीक उसी मोड़ पे
लगाती हूँ ब्रेक
जहाँ से देख सकती हूँ
शिवालिक की छाती से
फूटता सुर्ख़ सूरज
आसामन के दूसरे छोर पर
नज़र पड़ते ही दिखाई देता है
फ़ीका-भूरा होता चाँद
जैसे थक के
लौट रहा हो
किसी रात के पैहरन से
मैं घुमाती हूँ यादों का आइना
तिरछी हुयी बिंदी में
भरती हूँ सूरज की लालिमा
और सोचती हूँ
दोनों के एक साथ
क्षितिज में होने की विडंबना
मैं डूबती हुयी
गहरी साँस में
हो जाती हूँ चाँद के साथ
सूरज की रोशनी
आँखों को चुभने लगती है
मैं भरे हुए दीदों में रखती हूँ एक अंतरा
औ’ इतने में दिन चढ़ जाता है
वक़्त की मुँडेर पर
कुछ नयी बात लिए, कुछ नयी सौग़ात लिए…..
18.
मैं ढूँढ़ लाती हूँ
मुस्काने की सारी विधियाँ
अंतस में डूब कर
आँखों पे बाँधती हूँ गांधारी की पट्टी
औ’ टटोलती हूँ सत्य ये हुयी
तबाही को मन के भीतर
फिर सीधा करती हूँ
रात के आँचल में झुका
चाँद का ज़र्द आइना
एक दाग़ में डुबोती हूँ तर्जनी
और माथे के बीचो-बीच
गोल रेखा खींचती हूँ
यूँ क़ैद कर प्रेम का सत्य
आँखों में भरती हूँ आसमान
पीती हूँ घूँट-घूँट वक़्त का हलाहल
तक़दीर से करती हूँ जिरह
औ’ महावर में भरती हूँ
कुआँरे सपने सभी
मैं मुस्काने की जुगत में
जीत जाती हूँ ज़िन्दगी से हर दफ़े
एक नए ख़वाब को रौंद कर………
19.
वो अक्सर कहता
हम पहाड़ पर एक घर बनायेंगे
मैं अक्सर चाहती
वो अपनी इस कामना को भूल जाए
वो नहीं जानता
पहाड़ की नदी होने की पीड़ा
वो तो यह भी नहीं जानता
पहाड़ नदियों की माँ जैसे होते हैं
जबकि नदियों को
पिता की कमी खलती है
रेगिस्तान पहुँचने तक
या किनारों के खो जाने से पहले ….
20.
बुआ हथेलियों का मीठा लेती हैं
कुछ रुपए रखती हैं
और मुट्ठी धीरे से बंद कर देती हैं
हम दोनों की आँखें झरने लगती हैं
आँसुओं की वजहें अलग-अलग हैं
हाँ ! नमक एक ही है …..
तब जन्नत ही था
हमने पाप की एक ऊँगली त्यागी
और पहुँच गए थे वहां।
उन राहो पर धड़कनों की संगीत थी
शिव क्रोध में न थे
शिवालय श्वेत सा जम रहा था।
अब पूण्य से भर पहुचे
जहाँ रह रह कर टपकती है
लहू टिप टिप
और राहो में मुर्दनी ख़ामोशी है
चिनार अपने पत्तो के रंग से
शायद शर्मिंदा है
शायद जन्नत इन श्राप से उबरे।।