सोशल मीडिया पर कई तरह के आरोप लगाये जाए हैं. वक़्त बर्बाद करने का और लोगों द्वारा भावनात्मक अथवा आर्थिक रूप से ठगे जाना उनमें मुख्य है. एक और ट्रेंड देखने में आया है. सोशल मीडिया द्वारा ‘फेक स्टारडम’ निर्मित किया जाना. यह मार्केटिंग का एक ज़बरदस्त साधन सिद्ध हो रहा है. मार्केटिंग के पारंपरिक तरीकों की बाधाएं और सीमायें इस साधन में नहीं है. ‘थ्रेशोल्ड’ को टूटते हम वहां देखते हैं जब फायदे और नुकसान के सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए बिना निवेश किये लोग फायदा पा रहे होते हैं. इस माध्यम का सहारा पाते ही ज़बानी मार्केटिंग इतनी पुख्ता हो उठती है कि खराब प्रोडक्ट भी अच्छे का तमगा पाकर धड़ल्ले से बिकते हैं.
फेसबुक जैसा माध्यम जहाँ लाइक्स और कमेंट्स किसी की प्रसिद्धि मापने के साधन हैं, वहां सवाल उठता है कि ज्यादा लाइक्स क्या किसी भी चीज़ के अच्छी होने की गारंटी है. उन पेजों को छोड़ भी दिया जाए जो अपनी बिक्री बढाने के लिए लाइक्स खरीदते हैं और स्पॉन्सर्ड होकर लोगों की न्यूज़फीड में आते हैं तो भी कितने ही लोग हमारे आस-पास हैं जो ज्यादा लाइक्स की बदौलत प्रसिद्ध होने का दंभ भरते हैं और बेकार माल लोगों के कमेंट्स का चमकीला वर्क लगा सबके आगे परोसते हैं. जिस तरह पैसा, पैसे को आकर्षित करता है उसी तरह प्रसिद्धि का ठप्पा लगे व्यक्ति के इर्द-गिर्द लोगों का जमावड़ा बढ़ता ही जाता है. लोग उनकी पीठ पीछे भले ही उनकी निंदा कर लें पर उनके आगे प्रशंसा का अम्बार लगा देते हैं. यह ‘वर्ड ऑफ़ माउथ’ न(?) चाहते हुए भी प्रोडक्ट को चर्चा में ला देता है. अब सवाल ये है कि यह कितना गलत है और कितना सही? ऐसा करके किसका भला हो रहा है? समाज का अथवा कला का कोई हित इस से होता हो ऐसा मुझे नहीं लगता. व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष को आर्थिक लाभ और ख्याति लाभ पहुंचाने के अतिरिक्त इस प्रवृत्ति का कोई फायदा नहीं है. व्यक्ति को परिष्कार की ओर अग्रसर करती कला की बुनियादी परिभाषा का यहाँ क्या बनता है?
भेड़चाल के पीछे न भागते हुए अच्छे-बुरे का अंतर करना सीखना ही होगा. इतने भ्रमजाल के बीच यह अंतर करना कैसे सीखा जा सकता है जबकि धारा के विरुद्ध जाने की हिम्मत सबमें नहीं होती. जहाँ चार लोग वाहवाही कर रहे हैं, वहां पांचवा विरोध में बोल दे तो उसकी समझ पर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं. जहाँ एक ओर सोशल मीडिया अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता देता है वहीं इस तरह की गुटबाजी इस आजादी की अदृश्य रूप से घेराबंदी कर देती है. अभिव्यक्ति की आजादी के असल मायने इस चमचागिरी के मध्य कहीं खोकर रह जाते हैं.
कहते हैं स्वर्ण अधिक दिनों तक मिटटी में छिपा नहीं रह सकता पर हम अक्सर देखते हैं कई अच्छी चीज़ें इस धुंध में सामने आ ही नहीं पाती. सामने आ भी जाती हैं तो लोगों का ध्यान उस तरह नहीं आकर्षित नहीं कर पाती जैसे करना चाहिए. हाल ही में एक फिल्म काफी चर्चा में रही. फिल्म असल में कैसी थी यह सिर्फ इनबॉक्स में सुनने को मिला. बाकी जगह विजय पताका फहराती हुई दिखी. यही हाल किताबों का होता है. क्या रचने वाले को मालूम नहीं होता कि उसकी कृति असल में कैसी है?क्या प्रशंसा की भूख इतनी तेज़ होती है कि आत्म-ज्ञान भी निगल जाती है या लोग स्वयं के प्रति इतना आसक्त होते हैं कि अपना रचा हुआ उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ होता है. क्या ख़राब लिखना या रचना कचोटता नहीं है. ‘फेक स्टारडम’ के इस मायाजाल में क्या मार्केटिंग ही सबसे बड़ा सच है?
दिव्या विजय