Home / Featured / वैजयंतीमाला आई थी रीगल के आखिरी शो में ‘संगम’ देखने

वैजयंतीमाला आई थी रीगल के आखिरी शो में ‘संगम’ देखने

युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर को रीगल के आखिरी शो में वैजयंती माला सिर्फ मिली ही नहीं बल्कि उनकी उनसे मुलाकात भी हुई. वह फिल्म की ही तरह सफ़ेद साड़ी पहने आई थी. पढ़िए बहुत दिलचस्प है सारा वाकया- मॉडरेटर

===================================================

कल की बात – १६८

कल की बात है। जैसे ही मैंने आटो के बाहर कदम रखा, कनॉट प्लेस पर यौवन बीते हुए लोग की गहमागहमी में अजब से जोश को देखा। आउटर सर्किल पर रीगल सिनेमा के आखिरी दिन की खातिर भीड़ उमड़ रही थी। रात के साढ़े आठ बज रहे थे। दस बजे से फ़िल्म ‘संगम’ का आखिरी शो दिखा कर यह मशहूर सिंगल स्क्रीन सिनेमाहॉल हमेशा के लिए बंद हो जाने वाला था। सुबह से ही इसके चर्चे थे, कि किस तरह इस सन १९३२ में बने सिनेमाघर में लार्ड मांउटबेटन, पंडित नेहरु और राजकपूर जैसे नामचीन हस्तियाँ आया करती थीं। राजकपूर अपनी फ़िल्मों का प्रीमियर यहीं किया करते थे। आखिरी दो शो की टिकट आनलाइन बुक नहीं हो रही थी। टिकट न मिलने के डर से मैं काफ़ी पहले चला आया था। आने को तो और दोस्त भी आने वाले थे। मैं टिकट लेने की लाइन में खड़ा हुआ ही था कि देखा कि कुछ मीडिया वाले कैमरा लिए इस हॉल के इतिहास के बारे में बता रहे थे। टिकट खिड़की के पास एक खूबसूरत नवयौवना सबसे यहाँ आने का कारण पूछ रही थी और अपने अनुमान को खुद ही पुख्ता कर रही थी कि लोग राजकपूर को श्रद्धांजलि देने आए हैं। ‘कितनी हैरानी की बात है कि आप लोग में किसी ने यहाँ पहले फ़िल्म न देखी और जब यह हॉल बंद होने के आया है, तब आप आ रहे हैं।’ उसके कटाक्ष में नरमी थी। उसने मेरे से आगे लगे सज्जन को अपने बारे में बताया कि वह एक पत्रकार है और इस मौसमी भीड़ का जायजा लेना चाहती है।
बालकॉनी और बॉक्स की टिकटें बिक चुकी थी। केवल सौ रुपए और अस्सी की साधारण टिकट ही मिल रहे थे। मैंने दो हज़ार का नोट दे कर जब चार टिकट माँगे तो काउंटर के क्लर्क ने छुट्टे न होने के कारण हाथ खड़े कर दिए। मैंने उसे छुट्टे लाने का वायदा किया और दो हज़ार का नोट वहीं रख कर चार टिकट ले लिए।
बाहर भीड़ बढ़ रही थी। मैंने बाहर निकल कर किसी एटीएम से पाँच सौ का नोट निकाला। वहीं से अपने दोस्तों को फ़ोन लगाने लगा। ‘अभी आफिस में ही फँसा हुआ हूँ।’ ‘हमें एक जनाजे में जाना पड़ गया। तीन घंटे धूप में खड़े होने का कारण तबियत बिगड़ गयी है।’ ‘कल सुबह जल्दी निकलना है और यह शो डेढ बजे तक खत्म होगा। घर पहुँचते हुए अढाई बज जाएँगे। इसलिए अब ऐसा विचारा जा रहा है कि सिनेमाघर आना ठीक नहीं।’ मुझे लगा इस तरह कि मेरे तीनों टिकट बरबाद ही होंगे। काउंटर पर पाँच सौ का नोट दे कर मैंने सौ रूपए और दो हज़ार का गुलाबी नोट वापस ले लिया। सोचा कि इस तीन अतिरिक्त टिकट मुझे अलग ही शक्ति देगी। जब कुछ लोग टिकट को तरस रहे होंगे, तब शायद किसी योग्य दर्शक को ये टिकट दिए जाएँगे। योग्यता का पैमाना होंगे – शैलेन्द्र के प्रति अपार भक्ति, हसरत जयपुरी के लिए आदर और शंकर-जयकिशन के लिए प्रेम और मुकेश के प्रति अनुराग।
तभी मेरे कानों में सामूहिक गान जैसी आवाज़ आयी –
सुनते हैं प्यार की दुनिया में, दो दिल मुश्किल से समाते हैं, क्या गैर वहाँ अपनों तक के साये भी ना आने पाते हैं, साये भी ना आने पाते हैं।
हमने आखिर क्या देख लिया, क्या बात है क्यों हैरान है हम? एक दिल के दो अरमान हैं हम, ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम

दो अधेड़ दम्पति समवेत स्वर में यह गाना गा रहे थे। मीडिया वाले उनको गाते हुए फ़िल्मा रहे थे। दोनो पुरुष शायद पचपन-साठ साल के होंगे। मानों स्कूल के दिनों में भाग कर रीगल में ही संगम देखी हो। वही महिला पत्रकार जो कुछ देर पहले लाइन में लगे लोग से सवाल कर रही थी, मेरे पास खड़ी हो कर यह गाना सुनने लगी। कई लोग ने उन दोनों उत्साही गायकों के साथ सुर में सुर मिला कर गाने लगे थे। मैंने उस महिला पत्रकार को टोक कर कहा, “गाने का यह अंतरा इस फ़िल्म में फ़िल्माया ही नहीं गया है। फिर भी आम आदमी की जुबान पर है।” उसने हाँ में सर हिला कर मुँह फेर लिया। शायद कह रही थी कि मसखरे कभी-कभी हद कर देते हैं और साथ मोहतरमाओं को हमारी हद नहीं पता।
साढ़े नौ बजे तक दर्शकों का हुजूम बढ़ रहा था। लोग ‘संगम’ के पुराने पोस्टर के साथ तस्वीरें खिंचा रहे थे। तभी मेरी नज़र सफेद साड़ी में लिपटी एक मोहतरमा पर जा पड़ी। वह थी देश की एक मशहूर लेखिका। कहते हैं कि उनका रूप का ऐश्वर्य उनकी लेखनी से बढ़ कर है, और कंठ स्वर नयनों के बाण से ज्यादा खतरनाक। उनके घुँघराले लम्बे लहराते खुले बाल उनके चाँद जैसे चेहरे को बादलों जैसे ढँकते रहते हैं। उन्हें मैं चाँद कहता था, मगर उसमें भी दाग है। उन्हें सूरज मैं कहता था, मगर उसमें भी आग है। उन्हें इतना ही कहता हूँ कि वे लाजवाब हैं, वे लाजवाब हैं, वे लाजवाब हैं। सोशल मीडिया के बावस्ता मुझे ये उम्मीद थी कि वे मुझे पहचानती होंगी, क्योंकि मैं उनके हर वक्तव्य और तस्वीर पर टिप्पणी किया करता था। दूर से कई बार देखा था और आज पहली बार उन्हें इतने पास से देखने का अवसर मिल रहा था। बिना मौका गँवाए उनके पास पहुँच कर मैंने नमस्ते किया और अपना परिचय दिया। उन्होंने हाँ-हाँ कहते हुए कहा कि सोशल मीडिया पर उन्होंने मेरा नाम देखा है। फिलहाल उन्हें टिकट लेने की जल्दी थी। मैंने बताया कि सारी टिकट बिक चुकी हैं तो वे थोड़ा परेशान हो गयीं। ‘कोई बात नहीं। बड़ा मन था रीगल को इतने करीब से देखने का।’ थोड़ी चुप्पी के बाद उन्होंने कहना शुरु किया, ‘जब मैं पहली बार दिल्ली आयी थी तो मेरे पति मुझे यहाँ ले कर आए थे। वे पुराने हिन्दी फ़िल्मों के गानों के बड़े शौकीन हैं। सहगल के बाद वाले… तुम अब इसके अंदर जाओगे तो देखना अंदर देव आनंद, मीना कुमारी, अशोक कुमार, मधुबाला, राज कपूर-नर्गिस, दिलीप कुमार और वैजंयतीमाला की श्वेत-श्याम तस्वीरें फ्रेम में जड़ी हैं। आज भी होंगी।’
मैंने कहा, ‘मेरे पास चार टिकट हैं और मेरे तीन दोस्त नहीं आ रहे। आप फ़िल्म देखना चाहेंगी तो …?’ कह कर मैंने अपनी पतलून की जेब से टिकट निकाल कर उनको दिखाया। उनके चेहरे पर मुस्कान तो आयी, जाने कब इन आँखों का शरमाना जायेगा? मैंने कहा, ‘रात में आपको देर हो रही होगी तो मैं आपको घर भी छोड़ सकता हूँ।’ अब वे हँसने लगीं। उन्होंने कहा, ‘अरे, मेरे पास गाड़ी है। ड्राइवर भी है। तुम परेशान न होओ।’ मैंने सकुचाते हुए कहा, ‘आप तो दोस्त हैं। इसलिए कह दिया।’
लोग जब अंदर जाने के लिए लाइन में लगे, तब मैंने कुछ सकुचाते हुए कहा कि मैंने आपकी रचनाएँ अभी तक नहीं पढ़ी है। इससे पहले कि वे ‘कोई बात नहीं’ कहतीं, मैंने दायाँ झट से ऊपर कर के कहा, ‘हिन्दी नहीं आती न! पंडित जी ठीक कहा करते थे कि हिन्दी का ज्ञान बहुत ज़रूरी है।’ उन्हें मेरी बात समझ नहीं आयी। मैंने खुलासा किया कि मैंने हाल ही में ‘संगम’ इंटरनेट पर देखी थी। इसमें शुरु में राजकपूर को हिन्दी पढ़ना लिखना नहीं आता, पर बाद में वह हिन्दी में लिखा राजेन्द्र कुमार का प्रेम पत्र पढ़ लेता है।
रीगल सिनेमाघर के हॉल में घुसने से पहले मेरी नज़र देव आनंद और मीनाकुमारी की श्वेत श्याम तस्वीरों पर गयी। बाद में मैंने एक-एक कर उनकी बतायी सारी तस्वीरों को उनके साथ देखा। ‘आपकी याददाश्त की दाद देनी पड़ेगी।’ मैंने कहा। अंदर बैठते ही मुझे पुराने शहरों के टूटे-बेजान सिनेमाघर याद आ गए। अंदर अभी भी पुराने पंखे लगे हुए थे। दीवारों के रंग उजड़े हुए थे। सिनेमा का पर्दा छोटा था। संसार की यही रीत है कि जो समय के साथ नहीं बदलता, उसे दुनिया बदल देती है। मुझे रीगल के बंद होने का कोई ग़म न था, न ही ‘संगम’ देखने के लिए कोई दीवानगी। अगर कोई सुरूर मेरे पर छा रहा था तो यह कि सफेद साड़ी में इठलाती खुशबू बिखेरती मोहतरमा। आखिरी पंक्ति की सीटों पर तशरीफ रखते हुए मैंने उन्हें कहा, ‘क्या पता यह संजोग है यह आपको मालूम है, इस फ़िल्म में वैजयंतीमाला ने केवल सफेद साड़ी पहनी है।’
सुनते ही वह खिलखिला पड़ी। ‘इससे क्या होता है? मैं कोई वैजयंतीमाला थोड़े ही हूँ।’ जी में आया कि उनसे कम भी नहीं है, पर कहने की हिम्मत नहीं हुई। जैसे ही फ़िल्म शुरु हुई, कई लोग अपने फोन के कैमरे से फोटो खींचने लगे। जब परदे पर ‘किस बात से नाराज़ हो, किस बात का है ग़म, किस सोच में डूबी हो तुम, हो जायेगा संगम’ गाते नायक-नायिका झील में धुँध में खो रहे थे, मैंने कई दर्शकों को वैसे ही खोया पाया। जब राजेन्द्र कुमार वैजयंतीमाला से राजकपूर के प्रेम की बात कर रहे थे तब मैंने उनसे पूछ लिया, ‘आप जो कि स्त्रीवादी लेखिका मानी जाती हैं, आपको नहीं लगता कि इस फ़िल्म का कथानक बकवास है।’ उन्होंने न में सर हिलाया और पूछा, ‘क्यों?’ मैंने कहा, ‘आदमी की जिन्दगी का कोई मोल नहीं होता? एक फालतू के प्रेम के नाम पर कोई खुद को गोली मार लेता है!’ उन्होंने मेरी बात पर ध्यान तक नहीं दिया और कहा, ‘देखो इस दृश्य में वैजयंतीमाला की साड़ी का किनारा जामुनी है और उन्होंने बालों में गुलाब लगा रखा है। केवल दाहिने हाथ में चूड़ियाँ पहने अपनी सैंडिल उठा रखे हैं। ऐसा लगता है कि राजा रवि वर्मा के तस्वीरों की नायिका है।’ मैंने हाँ में सर हिलाया।
‘ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर’ गाना शुरु होते ही लोगों ने सम्मिलित हो कर हाथों से ताल देने लगे। इसके बाद पहला मध्यांतर हुआ। वे हमारे साथ बाहर निकली। बातों बातों में उन्होंने बताया कि जयकिशन ने गलती से पत्रकारों के सामने खुलासा कर दिया था कि ‘ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर’ उनकी रचना है और इससे शंकर बहुत नाराज़ हो गए थे।
पूरी फ़िल्म देखने की न तो उनकी इच्छा थी, न मेरी। उन्होंने जब कहा कि वो जाना चाहती हैं, तो मैं भी तैयार हो गया। उन्होंने चलते चलते एक बात कही। हर बात समझने का तरीका होता है। ‘संगम’ देखना है तो दिलीप कुमार-अशोक कुमार की ‘दीदार’ भी देखो। ये उस समय की फ़िल्में थी, अब उसमें दोस्ती की गहराई ढूँढोंगे या मोहब्बत की ऊँचाई तो कुछ खास नहीं मिलेगा। मैंने रूखेपन से कहा, ‘मासूमियत के नाम पर अपना ज़हर बोना। त्याग करने की जिद लोग पर थोपना – ये कोई बात हुई?’
इस पर उन्होंने सौम्य सी गम्भीरता से कहा, ‘मैं जान गयी कि तुम्हारी भी कोई राधा थी। दिल में बहुत से शिकवे छुपा रखे हैं तुमने! अब भूल जाओ।’ मैंने कुछ कहना चाहा पर उन्होंने टोक कर कहा, ‘दोस्त मानते हो मुझे तो इतना कहने का हक है मेरा।’ उनकी गाड़ी आ गयी थी। उनके ड्राइवर ने उतर कर उनकी चमचमाती गाड़ी की दरवाजा खोला। बैठने से पहले उन्होंने कहा, ‘वफ़ा करना है तो ज़ब्त करना सीखो। बेवफाई ज़ब्त करना सीखो।’
वफ़ा के ले के नाम जो
, धड़क रहे थे हर घड़ी
वो मेरे नेक-नेक दिल
, तुम्हीं तो हो
जो मुस्कुरा के रह गए
, ज़हर की जब सुई गड़ी
वो मेरे नेक-नेक दिल
, तुम्हीं तो हो
अब किसी का मेरे दिल
, इंतज़ार ना रहा
ज़िंदगी हमें तेरा ऐतबार ना रहा

ये थी कल की बात!

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

ज़ेरी पिंटो के उपन्यास ‘माहिम में कत्ल’ का एक अंश

हाल में ही राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘माहिम में क़त्ल’ का मुंबई में लोकार्पण …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *