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रेणु के उपन्यास ‘परती परिकथा’ पर आलोचक मदन सोनी का लेख

अभी कुछ दिनों पहले लन्दन में रहने वाले एक तथाकथित लेखक ने फणीश्वरनाथ रेणु का मजाक उड़ाते हुए लिखा कि उनकी भाषा का अनुवाद होना चाहिए क्योंकि उनकी बिहार के बाहर के लोगों को समझने में मुश्किल होती है. मुझे याद आया कि निर्मल वर्मा ने रेणु जी के ऊपर लिखा था. अब ‘समास’ पत्रिका के नए अंक में प्रसिद्द आलोचक मदन सोनी का यह लेख, जो रेणु जी के उपन्यास ‘परती परिकथा’ पर लिखा गया संभवतः सबसे विस्तृत लेख है. हालाँकि यह लेख उस उपन्यास की असफलता की बात करता है, जिससे मुझे असहमति है लेकिन मदन जी ने बहुत तार्किक ढंग से लिखा है- मॉडरेटर

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हिन्दी में बहुत कम कृतियाँ – ख़ासतौर से औपन्यासिक कृतियाँ – ऐसी हैं जो उतना लम्बा जीवन जी सकीं हैं जितना परती परिकथा ने जिया है। लगभग साठ बरस बीत जाने के बाद आज भी यह कृति हमारा ध्यान आकर्षित करती है, और इसके दीर्घायु जीवन की सम्भावनाएँ अक्षत बनी हुई हैं। लेकिन इस सन्दर्भ में रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि इस कृति के आयुष्य का रहस्य इसका कथानक या इसके आख्यान में व्यक्त अनुभव की विलक्षणता में नहीं है, जैसाकि, मसलन, गोदान या शेखर एक जीवनी  या त्यागपत्र के सन्दर्भ में कहा जा सकता है। इस दृष्टि से देखें तो इसका कथानक बहुत क्षीण और विरल है। इस कृति के आयुष्य का रहस्य, दरअसल, उस विघि में, उस विघा में, है जिसमें वह कहानी कहीं गयी है – एक ऐसी विलक्षण और अद्वितीय विघा जो न सिर्फ़ हिन्दी उपन्यास की उस परिपाटी से मुक्त थी जो पश्चिम के उपन्यास और उसकी यथार्थवादी शैली के बेहद कमज़ोर क़िस्म के अनुकरण में विकसित हुई थी, बल्कि जिसने पहली बार ‘भारतीय उपन्यास’ जैसी सम्भावना का मार्ग खोला था। इसीलिए यह अकारण नहीं कि इस उपन्यास की कहानी नहीं बल्कि इसकी ‘आंचलिकता’, भाषा, वर्णन-शैली, और आख्यान में मिथकों, अनुश्रुतियों, लोकगाथाओं, लोकविश्वासों आदि की बुनावट जैसी चीज़ें इस पर होती आ रही चर्चा के केन्द्र में रही हैं।

लेकिन परती परिकथा का महत्त्व और सौन्दर्य, इससे भी ज़्यादा, इस बात में है कि इस कृति में न सिर्फ़ एक ज़बरदस्त आत्मचेतना है बल्कि यह आत्मचेतना और इसमें कही गयी कथा कुछ इस तरह एक दूसरे के विक्षेप के रूप में चरितार्थ हुए प्रतीत होते हैं कि उपन्यास के समक्ष उपस्थित लेखन-विधा के प्रश्न और उसके भीतर वर्णित समाज के समक्ष उपस्थित जीवन-विधा के प्रश्न के बीच परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब सम्बन्ध दिखायी देता है; मानों वे परस्पर रूपक में घटित होती दो कथाएँ हों – एक जो उसमें कही गयी है, और दूसरी जिसका चरितनायक वह स्वयं है। उपन्यास के कथानक का आकर्षण, अपने में उसकी क्षीणता और विरलता के बावजूद, इसी चीज़ में है कि उसमें उसकी अधिष्ठात्री कृति की आत्मचेतना का बिम्ब संश्लिष्ट है।

उपन्यास का पुनरावलोकन करने पर हम पाते हैं कि आत्मचेतना के इस बिम्ब का संश्लेष इसके एकदम शुरूआती दृष्य – ‘‘धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर…पतिता भूमि, परती ज़मीन, वन्घ्या धरती…’’ में ही मौजूद है, जब हम देखते हैं कि यह परती आसन्न रूप से एक साथ उन दो कृत्यों का विषय बनने को है, जो एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होने के बावजूद आगे चलकर अपनी व्यंजनाओं में एक हो जाने वाले हैं:  एक कृत्य, उसको जोतकर उपजाऊ, प्रसव के योग्य बनाये जाने का, और दूसरा, कथा का – कथा, जो ‘इस पाँतर की छोटी-मोटी, दुबली-पतली नदियों’, ‘हंसा-चकेवा’, पण्डुकी आदि की अ-मानवीय जुबानों से लेकर, गाँव के गँजेड़ी, बूढ़े भैंसवार और रघ्घू रामायणी तक सुनाते रहे हैं, और जिसे अब यह उपन्यास सुना रहा है। क्योंकि इस शुरूआती दृश्य के कुछ ही पृष्ठों के बाद, जब उपन्यास का एक पात्र भिम्मल मामा, जो उपन्यास नहीं पढ़ता ‘‘क्योंकि उपन्यास की सही परिभाषा आज तक किसी ने नहीं सुझायी है’’, यह कहता है कि ‘‘अजी, उपन्यास की परिभाषा किसी और के सामने पसारना।…चन्द्रकान्ता के बाद हिन्दी में कोई उपन्यास निकला ही नहीं। ऑल…बनस्पतिया’’,  तो हमारे सामने इस ‘परती’ का एक और रूप उभरता है – एक ऐसा रूप जिसके सन्दर्भ में तोड़ने-जोतने और कथा कहने के दोनों कर्म आपस में पर्याय बन जाते हैं। संकेत स्पष्ट है: भिम्मल मामा यह कह रहा है कि हिन्दी उपन्यास की ज़मीन लगभग उसके आविर्भाव के क्षण से ही परती पड़ी हुई है – प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, यशपाल, अमृतलाल नागर आदि के बावजूद। इस तरह यह वह परती है जो, उपन्यास के चरितनायक (जितेन्द्रनाथ मिश्र) के समक्ष चुनौती की तरह प्रस्तुत परानपुर की परती की भाँति, इस उपन्यास के समक्ष एक चुनौती की तरह प्रस्तुत है – भारतीय आख्यान की बंजर हो चुकी ज़मीन को तोड़कर उसके भीतर से एक ऐसी विघा की उपज को सम्भव बनाने की चुनौती जिसका बीज तो उपन्यास नामक आघुनिक पश्चिमी विधा का हो, लेकिन जो भारतीय लोकभूमि और जलवायु में पल्लवित-पुष्पित होने के नाते अपनी फलश्रुति में इस विधा का भारतीय अपभ्रंश हो। या इस विधा का एक उत्केन्द्रित (eccentric) रूप। यह ‘अपभ्रंश’ और ‘उत्केन्द्रिकता’ ही वे महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं जो उपन्यास की आत्मचेतना की हमारी उत्प्रेक्षा के लिए भिम्मल मामा के कथन को आधार बनाने को उत्प्रेरित करते हैं। क्योंकि, यूँ तो, जैसाकि कहा गया है, इस ‘‘गाँव में अँग्रेज़ी के शुद्ध और अपभ्रंश रूप का धड़ल्ले से व्यवहार होता है’’, लेकिन भिम्मल मामा के अपभ्रंश न सिर्फ़ कहीं ज़्यादा अर्थपूर्ण और लोकप्रिय हैं, बल्कि उसकी तो पहचान भी एक अपभ्रंश है: ‘‘सही नाम – विजयमल्ल सिंह। सिंह को मामा ने सन् उन्नीस सौ बीस में कतरकर फेंक दिया। तब लिखने लगे व्ही., मल्ल., म. म.। चूँकि भिम्मलकृत भानुमति पेटिका के एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका कोई, एक साल तक प्रतीक्षा करने के बाद भिम्मल मामा ने अपने नाम के साथ महामहोपाध्याय जोड़ना शुरू कर दिया। संक्षेप में म. म.! व्ही. मल्ल. म. म.। कालान्तर में भिम्मल मामा।’’ फिर, वह एक लेखकीय प्रतिभा से सम्पन्न या एक लेखकनुमा पात्र भी है। और कुछ-कुछ उत्केन्द्रित-सा (‘‘पगलेट’’) पात्र भी है, या कम से कम गाँव के लोग उसको ऐसा समझते हैं – जैसाकि उस जितेन्द्रनाथ मिश्र को भी समझा जाता है, जिसके नायकत्व में यह उपन्यास अपने नायकत्व को प्रक्षेपित किये हुए है। इसलिए भिम्मल मामा का यह कथन परती परिकथा में मौजूद उस दरार की तरह है जिससे रिसकर इस उपन्यास की आत्मचेतना की रोशनी हम तक पहुँचती है।

उपन्यास की कहानी, जैसा कि ज़ाहिर है, भारतीय समाज की संक्रमणकालीन दश की ओर संकेत करती है। वह उस अभूतपूर्व तथा अत्यन्त संश्लिष्ट और जटिल वास्तविकता की ओर संकेत करती है जो पिछली लगभग दो सदियों से लेकर अभी हाल तक (यानी उपन्यास में वर्णित और उपन्यास के लिखे जाने के समय तक) ज़ारी रहे उसके उपनिवेशीकरण के दौरान पश्चिम की सर्वथा अनूठी, अजनबी सभ्यता – उसकी पेगन-द्रोही ईसाई धार्मिकता के संस्कारों में लिथड़ी हुई आधुनिक सभ्यता – के साथ हुई उसकी अन्तर्क्रिया के दौरान विकसित हुई है। उसको राजनैतिक स्वाधीनता मिल चुकी है, लेकिन उसका स्वाधीन स्वत्व अब, एक ओर इस आधुनिक सभ्यता के गहरे प्रभाव, और दूसरी ओर,  उसके पारम्परिक संस्कारों के बीच जारी द्वन्द्व और टकराव की प्रक्रिया में आकार ले रहा है। उसमें दोनों के प्रति आकर्षण भी है और जब-तब एक के पक्ष से दूसरे के प्रति संशय और प्रतिरोध का भाव भी है। दोनों का एक साथ उपलब्ध होना उसके लिए एक बड़ी भारी सुविधा भी है, और वह अवसर आने पर अपने हित-साधन के लिए दोनों में से किसी की भी आड़ ले सकता है, किसी का भी दुर्विनियोजन कर ले सकता है। कुल, कुटुम्ब, परिवार जैसी सामूहिक पहचानें और आस्था के पारम्परिक सम्बल अन्दर से दरक रहे हैं, लेकिन उनके बाहरी ढाँचों की दृढ़ता और प्रभाव अभी भी बरक़रार हैं। एक सर्वथा नयी और अजनबी क़िस्म की ऐतिहासिक चेतना के आघात से महाकाव्यात्मक कल्पनाओं में ढले और उनसे प्रतिश्रुत उसके चक्राकार कालबोध में भी एक दरार पैदा हुई है। मनुष्य के भीतर इहलौकिकता और व्यक्तिचेतना के अंकुर फूट रहे हैं, लेकिन वह अपने भीतर जन्म लेती इन नयी सम्भावनाओं के प्रति उत्सुक, आकर्षित होने के साथ-साथ उनसे किसी हद तक आतंकित भी है, और अपने इस आतंक के निवारण के लिए धार्मिक आस्थाओं और सामूहिक पहचानों का इसरार करता है, उनमें छिपने की कोशिश करता है। उसके चेहरे पर नये का सामना करने का विस्मय और पुराने के टूटने का शोक है। सत्ता के पारम्परिक ढाँचों का विघटन हो चुका है और जनसाधारण में नये लोकतान्त्रिक ढाँचे के भीतर सत्ता में भागीदारी का अहसास उत्पन्न हुआ है, लेकिन क्योंकि शासक और शासित दोनों ही संस्कारतः अभी भी उन्हीं पारम्परिक ढाँचों से अनुकूलित हैं, इसलिए नयी लोकतान्त्रिक सत्ता के साथ रिश्ता बनाते हुए वे उन्हीं पुराने तरीक़ों और मानसिकताओं से परिचालित हैं। और इस तरह की तमाम चीज़ों ने इस समाज में साभ्यतिक, सांस्कृतिक, वैयक्तिक तथा सांस्थानिक आदि विभिन्न स्तरों पर अनेक विद्रूपों, अन्तर्विरोधों, विरोधाभासों को, काइयाँपन और पाखण्डों को जन्म दिया है।

लेकिन लेखक के सामने समस्या सिर्फ़ यह नहीं है कि वह इस सर्वथा अस्वीकार्य किन्तु उतनी ही अनिवार्य औपनिवेशिक विरासत को, और इस विडम्बना के भीतर से जन्म लेते भारतीय समाज के उक्त वैचित्र्य को किस तरह सम्बोधित करे, उसको किस तरह अभिव्यक्ति दे। समस्या, उसके समक्ष, इससे कहीं ज़्यादा बड़ी, इस अभिव्यक्ति को सम्भव बना सकने वाले माध्यम की है। क्योंकि वह माध्यम (उपन्यास) जो उसे प्रदत्त है, वह स्वयं उस विडम्बना का एक प्रभाव है, जिस विडम्बना को उसे अभिव्यक्ति देनी है। वह स्वयं भी एक औपनिवेशिक विरासत है – उसी तरह एक साथ अनिवार्य और अस्वीकार्य विरासत। अनिवार्य इस अर्थ में कि इस वास्तविकता में निहित आधुनिक संवेदन, इन संवेदनों के अनगढ़ स्वरूप के बावजूद, स्वभावतः इस आधुनिक विधा की पूर्वापेक्षा करते हैं; उत्तरोत्तर प्रबल होते ऐतिहासिक संवेदनों से अनुप्राणित, और अपने स्वभाव में एक ऊबड़-खाबड़, खुरदुरी गद्यात्मकता लिए यह वास्तविकता कर्म की पदावली में अपने सांगोपांग निरूपण के लिए इसी विधा के साथ संगत बैठती है। लेकिन दूसरी ओर इस वास्तविकता में स्पन्दित पारम्परिक संस्कार, अपनी गम्भीर विकलांगता के बावजूद, इसको इस विधा की आधुनिक प्रज्ञा से इस कदर असंगत बनाते हैं कि अगर उसको इस विधा में बाँधने की कोशिश की जाती है तो वह इस विधा के द्वारा अनुकूलित की जाकर अपनी सचाई से हाथ घो बैठती है। इस तरह तत्कालीन भारतीय वास्तविकता का यह विचित्र द्वैघ उसको इस लगभग अस्तित्वपरक संकट जैसी गम्भीर स्थिति के सामने ला छोड़ता है कि वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए ठीक उस विघा पर निर्भर है जो इस अभिव्यक्ति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा भी है।

यह समस्या, ज़ाहिर है, लेखक को अपनी इस विघा के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग बनाती है। बल्कि आत्मसजग। क्योंकि यह विघा, जिसके साथ उसकी लेखकीय चेतना तदात्म है, सिर्फ़ उसके समाज की वास्तविकता की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, स्वयं उसकी आत्माभिव्यक्ति का माध्यम भी है। वह इस विघा के हाथों अपने आत्म के अनुकूलन की सम्भावना के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। उसको उसके प्रति आलोचनात्मक होना अनिवार्य है। यही वह आलोचनात्मक आत्मचेतना है जो परती परिकथा के सर चढ़कर बोलती लगती है, जिसका ज़िक्र हमने ऊपर किया है। बहरहाल, यह कृति इसी उभयसंकट का समाघान पाने की हिन्दी उपन्यास के इतिहास की सबसे महत्त्वपूर्ण कोशिश है; आख्यान का एक ऐसा ढाँचा गढ़ने की कोशिश जिसमें उपर्युक्त वास्तविकता को, उसके समूचे द्वैघ में सम्यक ढंग से अभिव्यक्ति मिल सके।

लेकिन परती परिकथा का यह उद्यम क्या सफल हो पाता है?

कथानक के स्तर पर रेणु परानपुर को तत्कालीन भारतीय समाज के एक मिनियेचर के रूप में कल्पित करते हुए इस वास्तविकता का एक रूपक गढ़ते हैं। लैण्ड सर्वे सैटलमैण्ट और कोसी प्रोजैक्ट जैसी अपेक्षाकृत वृहत परियोजनाओं, नयी जाति के बीजों, राजनैतिक दलों, चुनावों और अन्तरजातीय प्रेमविवाह जैसी घटनाओं से लेकर ट्रैक्टर, बुल्डोज़र, पेट्रोमैक्स, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, कैमरा, टीकोज़ी, टीपॉट, कॉकर स्पेनियल कुत्ता, हैट, मडबूट तक अनेक चीजें हैं जिनमें रूपायित होते आधुनिक संवेदनों और इस गाँव के पारम्परिक संस्कारों के आपसी टकराव से गाँव के सामाजिक, मानसिक जीवन में वे छोटी-छोटी हलचलें पैदा होती हैं जिनको इस उपन्यास की घटनाएँ कहा जा सकता है (‘‘परानपुर ही नहीं, सभी गाँव टूट रहे हैं। गाँव के परिवार टूट रहे हैं। व्यक्ति टूट रहा है – रोज़.रोज़, काँच के बर्तनों की तरह। …नहीं! ….निर्माण भी हो रहा है। नया गाँव, नये परिवार और नये लोग!’’) इसी टकराव की सबसे बड़ी आहट, जो उपन्यास के आरम्भ से लेकर लगभग अन्त तक बनी रहती है, गाँव में जितेन्द्रनाथ मिश्र के आगमन, उसकी उपस्थिति, से पैदा होती है। जितेन्द्र आधुनिक है – अपनी शिक्षा-दीक्षा, सोच-विचार, भावतन्त्र, भाषा और रहन-सहन आदि तमाम चीज़ों में। अपनी मातृभूमि (परानपुर) के साथ उसका सम्बन्ध अपनी माँ के साथ के उसके सम्बन्ध से बहुत भिन्न नहीं रहा है; एक अर्थ में, दोनों के साथ अलगाव में, दोनों से दूर चले जाने में, ही उसका आधुनिक मानस विकसित हुआ है। और अब जब वह बरसों बाद, इस आधुनिक मानस के साथ, वापस लौटा है, तो सिर्फ़ अपनी मातृभूमि में ही नहीं लौटा है, वह अपनी माँ के पास भी लौटा है: उपन्यास में माँ की नॉस्टेल्ज़िक स्मृति के अन्तहीन हवाले हैं। और, यह रेखांकित करने योग्य तथ्य है कि माँ की यह नॉस्टेल्ज़िक स्मृति, लगभग निरपवाद रूप से, हर बार एक वर्तमान प्रच्छन्न कामपरक सन्दर्भ से जुड़ी होती है:  यह स्मृति अक्सर ताजमनी (जो जितेन्द्र की बचपन की सखी और अब प्रेयसी और रक्षिता है) के सन्दर्भ में जागती है – उसके रूप, हावभाव, वेषभूषा, वाणी आदि को देखने-सुनने के क्षण में (‘‘ताजमनी के कण्ठ में बैठकर माँ बोल रही है? ताजू के चेहरे पर स्पष्ट छाप, माँ की एक परिचित मुद्रा की! तजू की ठुड्डी में भी गड्ढा पड़ जाता है बोलते समय?,’’ ‘‘ठीक माँ की तरह साड़ी पहरती है ताजू।’’ ‘‘ताजमनी ने माँथे पर कपड़ा डालने की चेष्टा की। मीत ने आँचल खींच लिया दाँत से। XXX जित्तन बाबू को याद आयी, वह भी बचपन में माँ का आँचल खींच-खींच लेता था।’’ ‘‘ताजमनी नित्य प्रसन्नवदना होती जा रही है। मुस्कराहट की वक्रता मिट गयी है। अन्दर हवेली की उजड़ी क्यारियों में हरियाली जाग रही है, धीरे-धीरे। तुलसी चौरे पर तुलसी का बिरवा सदा फूला-फला रहता है – जिद्दा! माँ आ रही है! आनन्दमयी, प्राणमयी माँ!’’ ‘‘…ताजमनी की लिखावट में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है। और, इस पत्रे को खो देना अन्याय होगा।…माँ की वेदी का एक स्केच, हल्के गेरुए रंग में अंकित! मिथिलाक्षर, देवनागरी और बँगला लिपि से प्रभावित, पवित्र क़िस्म के अक्षर! XXX पत्रे को यत्नपूर्वक जेब में रखते हुए जितेन्द्रनाथ ने ताजमनी की उँगलियों की ओर देखा – स्वर्ण-चम्पा की कलियाँ! इन उँगलियों को सूँघने की इच्छा हुई। चूमने का मन…!’’)। और इस दृष्टि से, उसका गाँव के बाहर से, शहर से, उत्तीर्ण होकर आना और गाँव की सैकड़ों वर्ष पुरानी परती को आधुनिक तकनीक से जोतकर उपजाऊ बनाने का उद्यम करना उपन्यास में स्पष्ट प्रतीकात्मक अर्थ रखता है। मातृत्व का कामरंजित अतीत-स्मरण उसको उस प्रेयसी के रूप में पुनरुपलब्ध करने की चाह से जोड़ता है जो गतयौवना होकर भी अभी तक प्रसव से वंचित है। इस चाहना की पुष्टि उसकी उपलब्धि के क्षण में होती है; उपन्यास की अन्तिम पंक्ति में जहाँ वह परती अब परती नहीं रह गयी है बल्कि वह आसन्नप्रसवा है (‘‘आसन्नप्रसवा परती हँसकर करवट लेती है।’’)।

और यह प्रतीकात्मकता सिर्फ़ उस टकराव (जिसकी प्रतिध्वनि को हम परती को तोड़ते उसके ट्रैक्टर की भटभट में सुन सकते हैं ) के सन्दर्भ में नहीं है जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है, वह उपन्यास के रूपात्मक उद्यम के सन्दर्भ में भी है: वह आधुनिक दुनिया से आये उपन्यास के औज़ार से भारतीय आख्यान की परती को तोड़कर नये सिरे से उर्वर बनाने के प्रतीक के रूप में भी समान रूप से दृष्टव्य है (और यह निरी तुकबन्दी नहीं होगी अगर हम कहें कि इस आख्यानपरक टकराव की प्रतिध्वनि भी इस उपन्यास की ध्वन्यात्मकता (phonetics), में सुनी जा सकती है।)। ऊपर हमने जिस अपभ्रंष की बात कही है, विधा के स्तर पर उस अपभ्रंष को रचे जाने की कोशिशें बहुत ज़ाहिर-सी हैं। मसलन अगर उपन्यास मनुष्य या नृतत्त्व की केन्द्रीयता के लिए जाना जाता है तो वह मनुष्य तो यहाँ है लेकिन यहाँ उसकी इहलौकिकता उसकी सामूहिक आध्यात्मिक स्मृति के सान्निध्य में है: उसका विमर्श ब्रह्मपिशाच, दन्ता राक्षस, सुन्नरी नैका, शामा-चकेवा, माँ तारा, परमादेव, बहलिया पीर, रामलला, तुलसी चौरा, पंचचक्र, श्रीचक्र आदि के मिथकों, अनुश्रुतियों, लोकगाथाओं, लोकविश्वासों में बिखरे ध्वस्त महाकाव्य के भग्नावषेषों के बीच गतिशील होता है। वह अँग्रेज़ी का अपभ्रंष बोलकर अपनी आधुनिकता का अपभ्रंष रचता है, और ऐसा करके वह जितना अपना विद्रूप उजागर करता है उतना ही स्वयं उस आधुनिकता को विद्रूप बनाता है। सिर्फ़ यह नहीं कि वह ‘डेमॉक्रसी’ के लिए ‘दिमाकृशि’ या ‘पॉलिटिक्स’ के लिए ‘पौलटीस’ जैसे शब्दों का प्रयोग करता है, बल्कि लोकतन्त्र और राजनीति में जाति और वर्ण के अपमिश्रण से वह इन अवधारणाओं का भी अपना अपभ्रंश तैयार कर उनको बरतता है।

इसी तरह ‘व्यक्ति’ (इण्डिविडुअल) भी इस उपन्यास में एक अनूठे ढंग से रूपान्तरित है। यह वह व्यक्ति नहीं है जिसे हम, मसलन, मादाम बावेरी या आन्ना कैरेनिना जैसी एकल मानवीय सत्ताओं में प्रस्फुटित-विकसित होते देखते हैं। इस दृष्टि से, इस उपन्यास में क़ायदे से ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है – तथाकथित चरितनायक जितेन्द्र समेत – जिसके कृत्यों, निर्णयों से, या किसी अन्य के साथ उसकी अन्तर्क्रिया से उसके व्यक्तित्व की कोई अद्वितीयता या विषिष्टता आकार लेती दीखती हो। कह सकते हैं कि उसकी विषिष्टता और अद्वितीयता अभी भी कुल, कुटुम्ब, जाति, वर्ण, क्षेत्र जैसी सामूहिक, संश्लिष्ट पहचानों में अवरुद्ध है। लेकिन रेणु इसी सामूहिकता या संष्लिष्टता को उसकी अपनी अद्वितीयता और विषिष्टता में उभारते हुए परानपुर गाँव के रूप में एक अनूठा व्यक्ति गढ़ते हैं। इस गाँव में रहने वाले लोग, यानी उपन्यास के विभिन्न चरित्र, मानों परानपुर नामक इस व्यक्ति के वे स्वभावगत लक्षण, नाक-नक्श, हाव-भाव और विभिन्न चारित्रिक रंगतें हैं जिनमें इस व्यक्ति का अन्तरविरोधी, विरोधाभासी, विकेन्द्रित, उत्केन्द्रित और जीवन्त व्यक्ति-वैशिष्ट्य चरितार्थ होता है। मसलन, उपन्यास में प्रचुर मात्रा में ऐसे संवाद हैं (अवतरण चिह्नों के साथ) जिनके साथ उनको बोलने वाले चरित्रों के सन्दर्भ नहीं दिये गये हैं, और इसलिए वे, वस्तुतः पाठक को सम्बोधित, इस गाँव के अपने संवादी, विवादी एकालाप के रूप में सुनायी देते हैं।

ऊपर हमने उपन्यास विधा की विजातीयता की तरफ़ संकेत किया है। यह समस्या, दरअसल, इस विधा से पहले अभिव्यक्ति के उस अभिनव माध्यम, यानी खड़ी बोली गद्य, की भी है, जिसमें यह विधा रूप लेती है। अपरिहार्यता और अस्वीकार्यता का जो द्वैधपूर्ण तर्क नयी वास्तविकता पर और उसके सन्दर्भ में उपन्यास पर लागू होता है, लगभग वही तर्क उपन्यास के सन्दर्भ में खड़ी बोली के गद्य पर लागू होता है। इस माध्यम का उद्भव और विकास भी उपनिवेशवाद को प्रतिरोध देने, किन्तु साथ ही इसी उपनिवेशवाद द्वारा प्रक्षेपित आधुनिकता के मूल्यों को आभ्यन्तरीकृत करने की प्रक्रिया में हुआ था। वह जन्मजात रूप से एक आधुनिक माध्यम था (है)। इसके पहले तक, जैसाकि हम जानते हैं, गद्य और खड़ी बोली दोनों ही हमारे लेखन के माध्यम नहीं थे; हमारे लेखन का माध्यम पद्य था – उन अन्यान्य बोलियों में लिखा जाने वाला पद्य जिनके साथ व्यापक हिन्दी समाज का जीवन्त सम्पर्क था क्योंकि ये इस समाज के विभिन्न समुदायों द्वारा बोली जाने वाली बोलियाँ थीं। खड़ी बोली की विडम्बना यह थी कि बावजूद इसके कि इसकी गढ़न में इन विभिन्न बोलियों का (जैसेकि संस्कृत, उर्दू और किसी हद तक अँग्रेज़ी का भी) पर्याप्त योगदान था, यह स्वयं किसी समुदाय की वाणी नहीं थी। जिसका अर्थ है कि उसमें वाचिकता (orality) का अभाव था। अपनी शुरूआत में वह शुद्ध रूप से लेखन की, और सिर्फ़ गद्य-लेखन की, भाषा थी। इस तरह, एक ओर आधुनिक संवेदनों के साथ उसकी अनुकूलता या मैत्री और, दूसरी ओर, व्यापक जनसमुदाय और काव्य-लेखन में अन्तर्प्रवाहित परम्परा से उसका दोहरा अलगाव उसे उस उपन्यास के सन्दर्भ में एक साथ अपरिहार्य-किन्तु-अस्वीकार्य बनाता था जो खुद भी अपरिहार्यता और अनिवार्यता के वैसे ही एक द्वैध में व्यंजित होती वास्तविकता के बरक्स स्वयं अपनी अपरिहार्यता और अनिवार्यता के द्वैध का हल तलाषने की चुनौती का सामना कर रहा था।

खड़ी बोली गद्य के उपर्युक्त द्वैध के बरअक्स ही परती परिकथा के गद्य का महत्त्व उजागर होता है। यद्यपि वह गद्य ही है और खड़ी बोली का ही है, लेकिन इस गद्य की अद्वितीयता, इसकी इस सबसे पहली और सबसे बड़ी विषेशता में है कि यह अद्भुत रूप से ध्वन्यात्मक (phonetic) गद्य है। इस उपन्यास में ये चरित्रों के कर्म नहीं बल्कि उनका बोलना – वाणी का कर्म – है जो उनको गोचर बनाता है। बल्कि, उनको ही क्यों, स्वयं उपन्यास को भी; हम उसे सुनते हुए, सुनने के अर्थ में, पढ़ते हैं। इस अर्थ में वह, खड़ी बोली के गद्य का अपभ्रंश है: खड़ी बोली गद्य की मूलभूत लिख्यात्मकता (writtenness), में वाचिकता का, श्रव्यात्मकता का, समावेश कर रचा गया अपभ्रंश। वह उपन्यास में वर्णित अंचल विशेष (मिथिला अंचल) की बोली से (और सिर्फ़ उसकी शब्दावली, संज्ञाओं और क्रियापदों से ही नहीं बल्कि उसके उच्चारण और लहजे से, उसके मुहावरों और लोकोक्तियों से भी) गहरे अनुप्राणित है। और उसकी इस ध्वन्यात्मकता में सिर्फ़ यह मानवीय वाचिकता ही योगदान नहीं करती, बल्कि परिन्दों और पशुओं से लेकर ढोल, मृदंग, सारंगी, टेपरिकॉर्डर, माइक, खड़ाउँ, कैमरा, टाइपराइटर, ट्रैक्टर, सरकारी कुएँ की ज़ंजीर जैसी अनेक चीज़ों तक ग़ैरमानवीय वाचिकता का भी उसमें पर्याप्त योगदान है। कहा जा सकता है कि भाषा यहाँ निरूपण (representation) का नहीं बल्कि निष्पादन (performance) का माध्यम है।

इस तरह, ये वे चीज़ें हैं जिनके सहारे रेणु उपन्यास की विधा का एक देसी रूपान्तरण रचते हुए उसको तत्कालीन भारतीय वास्तविकता के सन्दर्भ में संगत बनाते हैं। इस अर्थ में उनका यह उद्यम हिन्दी उपन्यास को लेकर निर्मल वर्मा की इस शिकायत का अपवाद कहा जा सकता है कि अपने कथात्मक गद्य के लिए एक नितान्त भिन्न सांस्कृतिक अनुभव-क्षेत्र में पनपी और विकसित हुई उपन्यास-जैसी विधा का हमारा चुनाव एक ऐसे बने बनाये मकान में रहने लगने जैसा था जो दूसरों ने अपनी ज़रूरतों, संस्कारों, स्मृतियों के अनुसार बनाया था। हम कह सकते हैं कि रेणु इस मकान में पर्याप्त तोड़फोड़ कर उसका अनुकूलन करते हैं।

लेकिन अपने आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इस उद्यम की विडम्बना, अगर हम निर्मल वर्मा के उपर्युक्त रूपक में ही विस्तार करते हुए कहें तो, यह है कि यहाँ स्थिति लगभग उलट गयी लगती है – इस अर्थ में कि उस मकान का एक देसी संस्करण तो तैयार होता है लेकिन उसमें जिस सचाई को अन्ततः बसाया जाता है वह स्वयं इस बार विजातीय है। बाहरी संरचना और उसके आन्तरिक सत्व के बीच की जिस असंगति की ओर निर्मल वर्मा ने इषारा किया है वह, अपने प्रतिवर्ती (inverted) रूप में, जस की तस बनी रहती है। क्योंकि इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यह है अन्ततः आधुनिक ही (उसका जैसा भी रूप उपन्यास में उभारा गया हो), जिसको उपन्यास की कथा में न सिर्फ़ प्रश्नांकित नहीं किया गया है, बल्कि उसका जश्न मनाया गया है। उपन्यास की संरचना जिस आधुनिकता को तद्वत् स्वीकार न करने और इस नाते उसका अपभ्रंश रचने के तर्क पर खड़ी हुई है, कथा के स्तर पर, उसी आधुनिकता की ओर उपन्यास का झुकाव शुरू से अन्त तक बना रहता है। इस उपन्यास की समीक्षा करते हुए निर्मल वर्मा ने, उचित ही, यह शिकायत दर्ज़ की है कि जित्तन (जितेन्द्र) को, उपन्यास के अन्य चरित्रों के मुक़ाबले, लेखक की अतिरिक्त सहानुभूति प्राप्त हुई है; उसके चरित्र की रचना करते हुए रेणु ‘‘निर्वैयक्तिक, निरपेक्ष दृष्टिकोण’’ अपनाने में विफल रहे हैं; उसके व्यक्तित्व का अभिजातवर्गीय ‘‘सन्तुलन आत्ममन्थन, मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों अथवा सत्य-असत्य के नैतिक प्रश्नों के अनिश्चय से उत्पन्न हुए हृत-आलोड़न का परिणाम नहीं है;’’ वह उसके ‘‘चरित्र का ‘एरिस्टो-क्रेटिक ट्रेट’ है जिसके आधार पर रेणु ने उसे धूल में सने लड़ते-झगड़ते प्राणियों के ‘असन्तुलन’ से उत्कृष्ट सिद्ध करने का प्रयास किया है;’’ और यह कि उसका ‘‘जितना लगाव ‘ट्रैक्टर’ से है, उतना ही शायद वह परानपुर की धरती से दूर है।’’ लेकिन क्या जितेन्द्र के चरित्र को लेकर निर्मल वर्मा का यह आलोचनात्मक पर्यवेक्षण, वस्तुतः, उस आधुनिक दृष्टि पर लागू नहीं होता, जो परानपुर की परती को तोड़कर आसन्नप्रसवा बनाये जाने के रूपक में समूचे उपन्यास में, उसके पहले वाक्य (‘‘धूसर वीरान, अन्तहीन प्रान्तर’’) से लेकर अन्तिम वाक्य (‘‘आसन्नप्रसवा धरती हँसकर करवट लेती है’’) तक आद्यन्त ध्वनित है? उपन्यास का वास्तविक नायकत्व दरअसल इसी आधुनिक दृष्टि को प्राप्त है, जिसको उपन्यासकार की मुक्त सहानुभूति प्राप्त हुई है, जिसकी अन्ततः जीत होती है, और जिसके बरक्स परानपुर के पारम्परिक संस्कार निरीह और निष्क्रिय प्रतिनायकत्व के रूप में उभरते हैं; परती पड़े हुए मन के रूप में (‘‘जितेन्द्र सोच में पड़ गया। हाथ के प्लेट्स को उलटते हुए बड़बड़ाया – ‘तमाशा है!…पिछले पाँच सौ वर्षों की बेकार पड़ी हुई परती पर खेती के लायक़ ज़मीन पायी गयी। देष के लोगों की बात दूर, गाँव वाले भी नहीं जानते कि सरकार परती क्यों तोड़ रही है। कोसी योजना की सबसे बड़ी पेचीदा समस्या हल हुई है। दुलारीदाय को कोसी की मुख्य धारा से संयुक्त करके सिर्फ़ करोड़ों रुपयों की बचत ही नहीं, करोड़ों की आमदनी भी होगी। …बेचारी जनता का क्या दोष? ऊपर से थोपे हुए सुख को वह क्या समझे? मन की परती ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। वीरान होती जा रही है।’ ’’)। ज़ाहिर है, यह वह आधुनिक दृष्टि है जो उपन्यास के वर्णन/वर्णित काल में प्रभावी थी: आधुनिक भारत के निर्माण के नेहरू के स्वप्न और उद्यमों में प्रतिबिम्बित होती आधुनिक दृष्टि। जिस अभिजात सन्तुलन की बात ऊपर कही गयी है, वह दरअसल इस आधुनिक दृष्टि में है जिसको आत्ममन्थन, अन्तर्द्वन्द्वों और नैतिक प्रश्नों के बीहड़ से बचाकर निकाल ले जाने में, या सर्वथा अनालोचनात्मक ढंग से प्रक्षेपित करने में, हासिल किया गया है। यह अकारण नहीं कि सारे विद्रूप, असंगतियाँ और असन्तुलन इस प्रतिनायक में ही केन्द्रित हैं, वे नायकत्व को कहीं से भी नहीं छूते। नतीजतन उपन्यास इस आधुनिक दृष्टि का एक वफ़ादार प्रवक्ता बनकर रह जाता है। परानपुर की परती जिस तर्कणा से टूटती है, और इस प्रक्रिया में उपन्यास विकास के जिस मॉडल को वैधीकृत करता है, उस तर्कणा और मॉडल की वैज्ञानिकता और आधुनिकता में परानपुर के मिथक, अनुश्रुतियाँ, लोकगाथाएँ, लोकविष्वास आदि कोई अपभ्रंश पैदा नहीं कर पाते, वे उपन्यास के घटनाक्रम को प्रभावित नहीं कर पाते। एकबार फिर निर्मल वर्मा के शब्दों का अनुसरण करते हुए कहा जा सकता है कि उपन्यास का जितना लगाव इस आधुनिक दृष्टि से है उतना ही वह, अपने साभ्यतिक बोध के स्तर पर, इन मिथकों, अनुश्रुतियों आदि से दूर है। परिणामतः ये चीज़ें वहाँ अपने वैचित्र्य से इस आधुनिक दृष्टि का मनोरंजन करती, मात्र विष्कम्भक बनकर रह जाती हैं।

और अन्ततः, यह दूरी क्या स्वयं उस आधुनिक संवेदन के प्रति भी नहीं कही जाएगी जिसके साथ कोई भी सम्यक रिश्ता इस रिश्ते के आलोचनात्मक होने की पूर्वापेक्षा करता है? जिस आधुनिक चेतना के बरक्स परानपुर का पारम्परिक समाज प्रश्नांकित होता है, जिसके समक्ष उसका विद्रूप उभरता है, उस चेतना का प्रतिनिधित्व करते जितेन्द्र में स्वयं अपनी आधुनिकता को लेकर कोई संशय-भाव नहीं है, जोकि आत्मसंशय के अभाव की वह स्थिति है जो एक आधुनिक व्यक्ति के रूप में उसकी पहचान को अविश्वसनीय बनाती है।

परती परिकथा का अन्त सुखद है। सुखान्त। संरचना की दृष्टि से यह इस उपन्यास का एक और अनूठा लक्षण प्रतीत होता है। पष्चिम ने हमें लगभग स्थायी तौर पर जिस उपन्यास का अभ्यस्त बनाया हुआ है उसमें हम शुरूआती तौर पर सामान्य, सुघड़, सुखद प्रतीत होने वाली मानव-स्थितियों को उत्तरोत्तर संकटापन्न अवस्थाओं से गुज़रते, और अन्त में अपूरणीय विघटन की त्रासद अवस्था में पर्यवसित होते हुए देखते हैं। यहाँ स्थिति, मानों भारतीय महाकाव्यात्मक परम्पराओं के अनुरूप, उलट गयी है: उपन्यास के शुरू में जो विकट समस्या है (‘‘धूसर वीरान, अन्तहीन प्रान्तर। पतिता भूमि, परती ज़मीन, वन्ध्या धरती…’’), अन्त में वह उतने ही सुखद रूप से हल हो चुकी होती है (‘‘आसन्नप्रसवा धरती हँसकर करवट लेती है’’ )। लेकिन समस्या से समाधान के बीच की इस सरलरैखिकता को, जो अगर किसी दैवीय अनुकम्पा या दैवीय नियति का परिणाम नहीं है नहीं है तो, मनुष्य की दुस्साध्य रूप से उच्चावचनयुक्त, ऊबड़-खाबड़ दुनिया के सन्दर्भ में एक ही तरीक़े से आरेखित किया जा सकता है – इस दुनिया का, इस दुनिया के उच्चावचन और ऊबड़खाबड़पन का, सरलीकरण करके, उसको सपाट बनाकर। यह सरलीकरण यहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष (यानी आधुनिकता और उसका प्रतिनिधित्व करते व्यक्ति के रूप में जितेन्द्र, और जितेन्द्र के प्रति व्यक्तिगत प्रतिषोध-भावना रखते लुत्तो, तथा पारम्परिक संस्कारों और उनको रूपायित करते विभिन्न ग्रामीण चरित्रों), और पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच सम्बन्ध – तीनों ही स्तरों पर है। सन्तुलन-असन्तुलन, संगति-असंगति, उदारता-अनुदारता आदि के बीच दोटूक विभाजन से दो विरोधी पक्षों का गढ़ा जाना, प्रत्येक युग्म के पहले गुण से पक्ष का और दूसरे गुण से प्रतिपक्ष का मण्डन, पहले में बल और दूसरे में निर्बलता का आरोपण, और अन्ततः पहले के हाथों दूसरे के शमन में, उसको पालतू बना लिये जाने में, दोनों के बीच के द्वन्द्व का समाहार – यह शृंखलाबद्ध सरलीकरण ही इस उपन्यास के त्रासद सुखान्त का मार्ग प्रशस्त करता है। यह अकारण नहीं कि यह सुखान्त अत्यन्त रोमेण्टिक बल्कि तर्कहीन, भावुक ढंग से, यहाँ तक कि आधुनिक ‘टेक्नॉलॉजी’ की भावुकतापूर्ण आलोचना करते हुए, हासिल किया गया है। यह कहने के बाद कि – ‘‘प्राण नहीं, अनुभूति नहीं! अब, मनुष्य को यन्त्र चला रहा है।…टेक्नॉलॉजी के युग में हम लोग जीवन-उपभोग का मूल तकनीक ही खो बैठे हैं। हज़ारों-हज़ार जनता के बीच भी हरेक आदमी विच्छिन्न है, अकेला है। हँसी-खुषी, उत्तेजना-अवसाद, आनन्द-उल्लास – सभी यान्त्रिक हैं!’’ – यह कहने के बाद, जब कोसी को दुलारीदाय से जोड़े जाने के ख़िलाफ़ गाँव के लोग हिंसक आन्दोलन पर उतारू हो जाते हैं, तो जितेन्द्र कहता है, ‘‘…बेचारी जनता का क्या दोष? ऊपर से थोपे हुए सुख को वह क्या समझे? मन की परती ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। वीरान होती जा रही है।’’ – और फिर सदियों से पड़ी हुई यह ‘मन की परती’ क्षण भर में टूट जाती है: जितेन्द्र द्वारा एक समाचारपत्र की छोटी-सी ख़बर के पढ़कर सुनाये जाने और एक छोटा-सा भाषण दिये जाने के साथ वह उग्र आन्दोलन गति पकड़ने के पहले ही नाटकीय ढंग से दम तोड़ देता है, और मानों उसकी क़ब्र पर एक मंच तैयार होता है, जिसपर जितेन्द्र की पहल पर कोसी परियोजना के परानपुर संस्करण का एक सचमुच का प्रचारात्मक नाटक प्रस्तुत किया जाता है – इस प्रचार के लिए परानपुर की लोककथाओं, जनश्रुतियों, लोकगीतों आदि का इस्तेमाल करते हुए।

यह सुखान्त, जिसकी ओर उपन्यास की गति समूची कथा के दौरान अलक्षित नहीं की जा सकती, ही क्या इस उपन्यास की सबसे बड़ी त्रासदी नहीं है? क्योंकि यह सुखान्त, दरअसल उपन्यास का अपना हासिल नहीं है, बल्कि, जैसा कि हमने ऊपर संकेत किया है, यह उपन्यास के लेखन/वर्णन काल में प्रभावी (और तब से अब तक लगातार जारी) एक आख्यान-विषेष का सुखान्त है, जिसपर यह उपन्यास प्रतिहस्ताक्षर करता है, बजाय उसको प्रश्नांकित करने के, या उसको आलोचना के दायरे में लाने के। परती परिकथा की इस त्रासद, विडम्बनापूर्ण विफलता का सामना करते हुए एक बार फिर, बरबस ही, भिम्मल मामा नामक चरित्र का ऊपर उद्धरित वह कथन याद आता है जिसे मैंने इस उपन्यास की आत्मचेतना के स्वर के रूप में पहचानने की कोशिश की है: …चन्द्रकान्ता के बाद हिन्दी में कोई उपन्यास निकला ही नहीं। ऑल…बनस्पतिया’’। अगर हम यह कह सकें कि चूँकि ‘‘अडल्ट्रेशन’’ की खिल्ली उड़ाने वाले इस चरित्र ने स्वयं अपनी पहचान भी, एक अर्थ में, ‘‘अॅडल्ट्रेशन’’ के शिल्प से ही गढ़ी है, और इसलिए दूसरों को ‘‘ऑल…बनस्पतिया’’, ‘‘ऑल अडल्ट्रेशन’’ कहकर वह परोक्षतः वह अपनी भी खिल्ली उड़ाता है, तो शायद हम कह सकते हैं कि उसके कथन में ध्वनित इस उपन्यास की आत्मचेतना में कहीं न कहीं स्वयं इसकी विफलता की भी स्मृति मौजूद है।

 

 
      

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