इन दिनों उर्दू के जानने-चाहने वालों के बीच उर्दू ज़बान के बनने को लेकर चर्चा गर्म है। ऐसा नहीं है कि ये चर्चा पहली दफ़ा शुरू हुआ है। (उर्दू में चर्चा (पु.) होता है, जबकि हिंदी में चर्चा (स्त्री.) होती है) गाहे-बगाहे ये चर्चा शुरू होकर ख़त्म हो जाता है। लेकिन इस दफ़ा हम एक नया सीरीज शुरू कर रहे हैं। जिसका नाम है- दास्तान-ए-उर्दू। इस सीरीज में उर्दू ज़बान के बनने की कहानी होगी। जिसे लिख रहे हैं बकुल देव। बकुल, अच्छे शायर हैं (जल्द ही, हम उनकी शायरी भी पढ़ेंगे)। फ़िलहाल जानकीपुल के पाठकों के लिए पेश है दास्तान-ए-उर्दू की पहली किश्त – त्रिपुरारि
दास्तान-ए-उर्दू #1
तक़रीबन 4000-5000 बरस पहले छांदस/वाक् ज़बान में दुनिया की सबसे पुरानी मुक़द्दस क़िताब लिखी गयी जिसे ऋग्वेद के नाम से जाना जाता है.
ईसा पूर्व लगभग आठवीं से चौथी सदी के बीच महर्षि पाणिनी ने वेदभाषा को नियमबद्ध किया माने कि उसका संस्कार किया…लिहाज़ा उसे संस्कृत कहा जाने लगा.
दुनिया का पहला रस्म उल ख़त भी संस्कृत का ही था.
वेदों में ही उपनिषद् भी जज़्ब हैं..जो प्रस्थान त्रयी (मोक्ष प्राप्त करने के तीन अरक़ान) का एक रुक़्न है.
इनमें दर्ज की गयी ज़ियादातर शाइरी “श्रुतियां” (सुनी गयी) कहलाती हैं..और इसी लिये इस बाबत कोई जानकारी मौजूद नहीं कि इनकी तख़्लीक दरअस्ल हुई कब..और तख़्लीककार कौन था.
इन श्रुतियों में से ज़ियादातर श्रुतियां एक जुमले के साथ ख़त्म होती हैं…
इति शुश्रुम पूर्वेषाम्
(जैसा कि हमने पूर्व आचार्यों से सुना)
मेरे नज़दीक़ ये छोटा सा जुमला ज़बान की जड़ों तक पंहुचने का सबसे कारगर सूत्र/फार्मूला है.इसमें दो पहलू निहां हैं..पहला तो ये ज़बान बुज़ुर्ग़ों से हम तक सुनते सुनाते पंहुची है..और दूसरा ये कि ये एक क़िस्म की सिलसिलाबंदी है..जिसके एक छोर पर खड़े हैं और दूसरे छोर पर नस्ले आदम का पहला फ़र्द.
ज़बान के बारे में बात करना इसलिये भी ज़रूरी है कि ये अपने बारे में बात करने जैसा है..ज़बान ही वो वाहिद अ़लामत है जो हमें बाक़ी जीवों/organisms से अलग और ख़ास बनाती है.
यूं तो ख़ामोशी की भी ज़ुबान होती है और आंसुओं की भी..लेकिन यहां जिस ज़बान की बात की जा रही है वो ख़मोशी और आंसुओं के बाद की इज़ाफ़त है..जिसे ख़ुद हमने दरयाफ़्त किया है.
साइंस/विज्ञान कहता है कि जब Human Evolution शुरू हुआ तो तबादला ए ख़याल की पहली ज़रूरत मां और बच्चे को हुई..तो पहले चेहरे के expressions आए फिर gestures/भंगिमाएं/इशारे आए और उसके साथ आवाज़/ध्वनि.
मां-बच्चे के हल्क़े से बाहर निकल कर यही शुरूआती ज़बान वसीअ़ होने लगी..तरह तरह की आवाज़ें धीरे धीरे लफ़्ज़ों में बदली और आपसी मश्विरे से उनके मआनी तय होने लगे.
ग़रज़ ये कि ज़बान एक तवील सफ़र पर निकल पड़ी..याद रहे अभी ये ज़बान सिर्फ़ और सिर्फ़ बोली जा सकने वाली ज़बान थी (spoken language) जिसकी उम्र तक़रीबन 2-2.5 लाख बरस बताई जाती है.
रफ़्ता रफ़्ता आबादी बढी..लोग मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में जा जा कर बसने लगे…नयी ज़रूरियात सामने आती रहीं और मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में अलग अलग क़द ओ क़ामत और शक़्ल के इंसान और ज़बान बयकवक़्त फलते फूलते रहे.
तो अगर ये कहा जाए कि ज़बान की तारीख़ ही आदमी की तारीख़ है तो इसमें हमें हैरत नहीं होनी चाहिये..और अगर कहा जाए कि ज़बान के सफ़र और तारीख़ की शिनाख़्त दरहक़ीक़त अपनी ही ज़ात की तारीख़ से रू ब रू होने जैसा है तो कुछ ग़लतबयानी न होगी.
अब बात उस जुमले की..
इति शुश्रुम पूर्वेषाम्
(जैसा कि हमने पूर्व आचार्यों से सुना)
इस श्रुति में एक ख़ास क़िस्म की इंकिसारी/विनम्रता है..जिसमें ऋषि ये तस्लीम करते हैं कि जो भी हम जानते हैं..जो भी कह रहे हैं..वो हमारा नहीं है..हमने ये सब बुज़ुर्गों से सुना है.
दूसरी बात ये समझ आती है कि ज़बान का तआल्लुक़ केवल और केवल सुने और समझे जाने से है…लिखे जाने से हरगिज़ नहीं.
(ये दीगर बात है कि एक वक़्त के बाद बहुत ज़ुरूरी बातों की हिफ़ाज़त के लिये रस्म उल ख़त ईजाद किये गये..या कुछ ज़बानों ने पहले ही ईजाद किये जा चुके रस्म उल ख़तआत में से किसी एक का इंतख़ाब कर लिया..और याद रहे…पुराने से पुराने रस्म उल ख़त की उम्र 5000 बरस से ज़ियादा नहीं है…तो साफ़ होना चाहिये कि ज़बान रस्म उल ख़त से बहुत बहुत पुराना और अलग मुआमला है.)
ज़बान हमें हमारे पुरखों से विरसे में मिली जागीर है.. और इस शर्त पर हमें दी गई है कि हम इस अमानत को ठीक वैसे ही अगली पीढी को सौंप देंगे जैसे हमें हमारे बुज़ुर्ग़ों ने सौंपी है..ये एक बड़ी ज़िम्मेदारी है जिसका अहसास शायद अभी हमें न हो.
मेरे नज़दीक़ ज़बान आदमीयत का नमक है…वो नमक जिसका हक़ अदा करने के लिये ज़मीन को कभी कोई मीर तक़ी मीर या कभी कोई तुलसीदास पैदा करना पड़ता है.
जारी…