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वंदना राग की ‘रीगल स्टोरी’

रीगल सिनेमा बंद हो गया. हम सबके अंतस में न जाने कितनी यादों के निशाँ मिट गए. इसी सिनेमा हॉल के बाहर हम तीन दिन लाइन में लगे थे ‘माया मेमसाहब’ की टिकट के लिए. तब भी नहीं मिली थी. फिल्म फेस्टिवल चल रहा था. हम डीयू में पढने वालों के लिए रीगल में कितना कुछ दफन है पता नहीं. आज वंदना राग ने इतना अच्छा, इतनी संवेदना के साथ रीगल के बहाने यह लेख लिखा है कि पढता गया और यादों के पन्ने पलटते गए. यूँही थोड़े वह हमारी पीढ़ी की सबसे जानदार लेखिका हैं. पढ़कर ताकीद कीजियेगा- मॉडरेटर

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जब सच के दरवाज़े खट से चेहरों पर बंद कर दिए जाएँ तो पैरोडी से काम चलाना पड़ता है.

नाम सत्या और बातें चांदी के तारों सी जिससे सचमुच का चाँद गढ लेने का वादा हो. चन्द्रकला सिर्फ एक मिठाई का नाम नहीं एक लड़की का नाम भी रखा जा सकता है. जिनके ज़माने में संगम नाम की पिक्चर राजकपूर नाम के जादूगर निर्देशित करते हों उन माँ –बापों को चन्द्रकला नाम आकर्षित कर सकता था.

सत्या तकनीकी मशीनों का मास्टर था, लेकिन भाते उसे हर्फ़ थे.चन्द्रकला की मशीनी जानकारी, संगम की सदी पर से कुछ आगे बढ़ी थी बस. वह घोषित लेखिका थी और लोग उसे सीरियस से थोड़ा कम लेते थे लेकिन वह खुद अपने लेखिका के किरदार को बहुत सीरियसली लेती थी. लोग नहीं जानते थे वह अपने लेखिकापने को ही जीती थी. वैसे थी वह बचपन से फक्कड़ और रिस्क उठाने वाली.

देश में हल्ला मच चुका था कि दिल्ली का ऐतिहासिक रीगल सिनेमा हाल अब सदा के लिए बंद होने वाला है. इस खबर ने सिनेमा प्रेमियों को मतलब सीरियस वाले सिनेमा प्रेमियों को अन्दर तक झकझोर दिया और लोग हुजूम बना कर चल पड़े संगम नाम की सुपरहिट फिल्म को देखने जिसे राजकपूर जैसे जादूगर ने बनाया था.

चंद्रकला जब रीगल पहुंची तो उसे आश्चर्य हुआ की उसके माँ पापा की उम्र के कितने सत्तर साला जोड़े एक दूसरे का हाथ पकडे, ठिठकते गिरते सँभलते हॉल के अन्दर प्रवेश कर रहे थे. उसका तो मन हो रहा था वह दौड़ लगा कर अन्दर बैठ जाये, क्यूंकि उसे बार बार अपनी माँ की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी जो बिना थके कहती जाती थी कि राजकपूर कितना स्टाइलिश एक्टर डायरेक्टर था और संगम कितनी मॉडर्न फिल्म. लेकिन बड़ी उम्र के लोगों का लिहाज़ कर वह रुकी और लगभग अंत में हाल के अन्दर पहुंची. उसके बैठते ही बत्ती गुल हो गयी और बगल से एक आवाज़ उभरी, आपको ऐसी फिल्म पसंद है या नास्टैल्जिया से भर आयीं हैं? वह चौंकी, नीम अँधेरे में आँख गड़ा कर देखा तो सत्या नाम का वह टेक्नोक्रैट निकला जो सिनेमा का दीवाना था और आजकल कहानियों पर भी हाथ आजमा रहा था. वह सोशल  मीडिया पर भी उससे जुड़ा था और  एक दो बार की मुलाक़ात भी थी.

ओह तुम! वह संभल कर और अन्दर पनपती हलकी नाराज़गी से बोली, क्यों क्या मुझे शौक नहीं हो सकता ऐसी फिल्म का?

जानते ही क्या हो मेरे बारे में?

यह तो संयोग है तुम मेरे बगल में बैठ गए.

न वह मुस्कुरा के बोला आप बैठी हैं मेरी बगल में.

एकदम गुलज़ार की तरह चाँद को चुरा चर्च के पीछे छिपाने जैसा शब्दों से रास रचाने वाला बंदा कहीं का ..उसने मन ही मन दांत पीसे.

फिल्म शुरू हो चुकी थी.

चारों ओर लोग ताली बजा रहे थे, डायलॉग दुहरा रहे थे गाने गा रहे थे.

सत्या भी.

चन्द्रकला चुप.

सत्या ने चोरी से देखा.

उसने मन ही मन सोचा क्या इसमें भी कुछ स्त्री विमर्श ढूंढ रही हैं ये? हर वक़्त की लेखिका!!!

आपको फिल्म कैसी लगती है?

मेरी माँ पापा की पसंदीदा फिल्म थी.

जी, और आपकी?

मुझे ठीक ठाक.

और तुम्हें?

वैजयंतीमाला को ज़बरदस्ती अपना प्यार कुर्बान करना पड़ा यह अच्छा नहीं लगा मुझे.

चन्द्रकला चुप रही. सत्या ने वहाँ कुछ नए रहस्योद्घाटन की झलक खोजी.

लेकिन उसे हैरान करती लेखिका की चिरपरिचित हंसी गूँज उठी हाल में, अरे बुद्धू यह तो उस समय का आदर्श था. त्याग से बड़ा मूल्य नहीं था उस ज़माने में.

मोहब्बत, हसरत सब आदर्श के लिए कुर्बान.

सत्या चुप, उसे चन्द्रकला बहुत पसंद है बस सच्ची कुछ ज्यादा है.

लोग उसे जो समझें वह समझता है अपने लेखिकापन को जीती है हमेशा.

और आज? सत्या उससे पूछता है, सोचता है थोडा सच को झूठ की तरह कह दे चन्द्रकला. लेकिन जवाब नहीं देती चन्द्रकला.

उसे अपना टूटा दिल याद आता है.वह फिर भी मोहब्बत से आजिज़ नहीं आया है.

फिल्म ख़त्म होती है.

सत्या धीरे से पूछता है, क्या आप फिर मुझसे मिलेंगी?

वह फिर हंसती है. लोग उन्हें देखने लगते हैं, वह मज़े से कहती है,

आज भी मोहब्बत मज़े की है. यह जवाब है तुम्हारा.

सत्या जानता है चन्द्रकला फिर सच बोल रही है, वह वाकई पूरी दुनिया से मोहब्बत कर सकती है. वह खुश हो जाता है. उम्मीद के मुताबिक जवाब कई बार कितना आश्वस्त करते हैं.

वे दोनों बाहर सड़क पर निकल आते हैं.चन्द्रकला की चाल में बेफिक्री है. सत्या संकोची है. आज वह शायद रीगल और राजकपूर की बदौलत चन्द्रकला से इतना खुल कर बतिया पाया.

चन्द्रकला सोचती है.

अब यह सड़क जाने कितने मोहब्बत करने वालों  के लिए अलग सी लगेगी. कितनी पीढ़ियों ने यहाँ आइसक्रीम खायी होगी फिल्म देखने के पहले या बाद. डीटीसी के बस के ज़माने में, आशिकों ने देर तक घर न आने के कितने बहाने गढ़ें  होंगे जो आज दफन हो जायेंगे स्मृति में, मोहब्बत के उन आदर्शों के साथ ही जो इस फिल्म में दिखाए गए थे.

सत्या  और चन्द्रकला एक दूसरे से विदा लेते हैं.

उन्हें पता है वे सोशल मीडिया पर फिर जल्द मिलेंगे. मेट्रो में बैठते ही शायद.

अब कोई दूरी कहीं नहीं रहती.

 त्याग की ज़रूरत ख़त्म.

रीगल ख़त्म.

मोहब्बत ख़त्म सत्या …कोई पिघलती आइसक्रीम सा सीने में उतर कहता है.

दोनों देखते हैं कुछ जोड़े जल्दी जल्दी संगम के गानों की  पैरोडी डिजाईन कर रहे हैं. शायद ऐडवरटिसमेंट की दुनिया के लोग हैं.

चारों ओर गर्मी फैलने लगी है.

सुना है वैक्स म्यूजियम बनने वाला है इस जगह.

लेकिन उसे हर हालत में संरक्षित किया जायेगा.

 
      

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4 comments

  1. Kaushal kumar lal

    इन हसरतो के ताबीज बांधने का शौक कभी पूरा नहीं हो पाया। एक बार गलती से या चाव से भैया ने कही से पत्रिका फ़िल्मी दुनिया उठा लाये। समझो बाबूजी ने पूरे घर को उठा लिया।फिर भला हो वो नादिया के पार का की हम इन हॉल के दहलीज को पार कर उस स्वर्ण लोक के तिलिस्म दुनिया को निहार पाये।वो पहली बार परदे पर रौशनी का चमकना और रोमांच से पोड पोड के रोये का आकर्षण से लम्बवत हो जाना ।अहा कितना सकून मिलता है इन यादो में।
    रोचक लेख।।।।।।।।

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