हमारे देश में शराबंदी के पीछे राजनीतिक कारण अधिक होते हैं. कोई सोची समझ रणनीति नहीं होती है. आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में बहुत अच्छा सम्पादकीय पढ़ा. इसमें लिखा गया है अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी के एक वैज्ञानिक ने शोध में यह पाया है कि वाइन पीने से दिमाग दुरुस्त रहता है. पढ़ा तो सोचा कि साझा किया जाये- मॉडरेटर
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गणित का दिमाग से क्या नाता है, इस पर सदियों से काफी सिर खपाया जा रहा है। कहा जाता है कि दिमाग को अगर तेज, सक्रिय और युवा बनाए रखना है, तो गणित की पहेलियों और सुडोकू जैसी चीजों में वक्त बिताएं। माना जाता है कि इससे मस्तिष्क की मांसपेशियों की कसरत हो जाती है और दिमाग दुरुस्त रहता है। एक राय यह भी है कि इससे आप दिमाग के कई रोगों से बच भी सकते हैं। कुछ लोग इसे गंभीरता से करते भी हैं, ऐसे बहुत से लोग हैं, जो मानते हैं कि वे अपनी उम्र की जंग जोड़-घटाव और गुणा-भाग से जीत सकते हैं। जो नहीं करते, उनमें से बहुत से इसे न कर पाने को लेकर परेशान भी रहते हैं। पर अब वैज्ञानिकों का कहना है कि दिमाग की मांसपेशियों को दुरुस्त रखने का गणित से भी ज्यादा कारगर तरीका है, वाइन पीना। यह तरीका ज्यादा आसान भी है और ज्यादा अच्छा लगने वाला भी। लेकिन वाइन के ज्यादा कारगर होने का गणित क्या है?
इस मसले पर येल स्कूल ऑफ मेडिसिन के डॉक्टर गार्डन शेफर्ड ने जो शोध किया है, वह काफी दिलचस्प है। शेफर्ड का कहना है कि वाइन के जो शौकीन होते हैं, वे वाइन को पीते ही नहीं, साथ ही साथ उसका विश्लेषण भी करते हैं। वे उसके रंग को देखते हैं, उसकी गंध को परखते हैं, उसे चखते हैं और फिर सोचते हैं कि पिछली बार उन्होंने जो कई तरह की वाइन पी थी, उससे यह किस तरह अलग है? उनका कहना है कि इस पूरी प्रक्रिया में शरीर की सबसे बड़ी मांसपेशियों की कसरत हो जाती है। उन्होंने पाया कि जब कोई वाइन का छोटा सा घूंट लेकर उसे अपने मुंह के अंदर घुमाता है, तो जीभ की हजारों स्वाद तंत्रिकाएं सक्रिय हो जाती हैं। इसी तरह नाक की गंध ग्रहण करने वाला तंत्र भी सक्रिय हो चुका होता है।
यह पूरी प्रक्रिया दिमाग की जो कसरत कराती है, वह गणित के किसी जटिल सवाल को हल करने से कहीं ज्यादा होती है। इसके आगे शेफर्ड बताते हैं कि वाइन पीने के बाद लोग जब सांस को बाहर निकालते हैं, तो इसकी गंध फिर से हमारे मस्तिष्क पर असर करती है। हमें यह बात भले ही वाइन के समर्थन में दिया गया किसी शराबी का तर्क लग सकती है, लेकिन शेफर्ड ने न सिर्फ अपनी बात को वैज्ञानिक रूप से रखा है, बल्कि विज्ञान की एक नई शाखा की शुरुआत भी की है, जिसे उन्होंने ‘न्यूरोगेस्ट्रोनॉमी’ कहा है। शेफर्ड का यह भी कहना है कि वाइन का यह असर अलग-अलग व्यक्ति पर अलग-अलग होता है। वह यहां तक कहते हैं कि गंध व स्वाद के बहुत सारे गुण खुद वाइन में नहीं होते, बल्कि वे उसके शौकीन में ही होते हैं।
यहां असल बात वाइन की नहीं है, वाइन के बहाने शेफर्ड ने हमारे संवेदी तंत्र के अनुभवों और हमारे शारीरिक विकास में उसकी भूमिका की ओर इशारा किया है। याद कीजिए उन बुजुर्गों को, जो आम का रंग देखकर या उसे सूंघकर यह बता देते हैं कि यह कौन-सी किस्म का है? या गांवों-कस्बों में आज भी ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो खरबूजे को सूंघकर ही बता देते हैं कि वह मीठा होगा या नहीं? देखना, सूंघना और चखना घी, शहद और इत्र जैसी चीजों में असली व नकली की परख करने का हमारे यहां सदियों पुराना तरीका रहा है। गांवों, कस्बों और पुराने मुहल्लों के समाज में इस तरह की प्रतिभा रखने वाले लोगों की गिनती हमेशा सयानों में की जाती थी। उन्हें उससे कहीं ज्यादा सयाना माना जाता था, जितना आजकल गणित और विज्ञान की पहेलियां हल करने वालों को माना जाता है। यह बात अलग है कि ये सब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी के हिस्सा रहे हैं, इसलिए हम इसे ज्यादा महत्व नहीं देते। दिक्कत यह भी है कि बड़े स्टोर और ब्रांड वाली दुनिया में हमारी नई पीढ़ी इस तरह के अनुभवों से दूर होती जा रही है।