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महिलाएं और पॉर्न बनाम ज़बरदस्ती की शर्म

कुछ टॉपिक्स ऐसे होते हैं, जिन पर बहस कभी ख़त्म नहीं होती। जैसे कि भाषा, फ़ेमिनिज़्म, पॉर्न, फ़्रीडम, नेशन, वग़ैरह। ज़ाहिर है हर लिखने वाले का अपना नज़रिया होता है। जिसकी सोच जितनी गहरी होती है, वो उतने खुले दिमाग़ से चीज़ों को सोचता है। हाल में इंटरनेट पर महिलाओं द्वारा पॉर्न देखने का एकसेप्टेंस, कुछ ख़ास तरह के लोगों को नागवार गुज़रा है। इसी मुद्दे पर पेश है युवा रचनाकार भारती गौड़ का लेख – त्रिपुरारि

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र्वे के परिणाम या आंकड़ों को लिखने से कुछ साबित नहीं होगा, लिहाज़ा नहीं लिखूंगी। डिज़िटल युग है ज़ाहिर सी बात है सबके पास सब उपलब्ध है। पोर्न देखने ना देखने की पर्दादारी और समाज के तथाकथित टेबू जिनसे उलझती औरतें अपनी फेंटेंसी को ज़मीन में गाढ़ देने पर मजबूर है। निहलानी साहब भी ऐसा ही सोचते हैं इसलिए फीमेल फेंटेंसी से डरते हैं, क्योंकि इससे समाज बिगड़ जायेगा। उनका मतलब है कि औरतें बिगड़ जाएँगी। आदमी वो बुरे नहीं हैं, बस समाज का भला ज्यादा सोचते हैं। बेफिक्रे और ग्रैंड मस्ती जैसी धार्मिक फ़िल्मों को पास करके उन्होंने भारतीय समाज में कालजयी योगदान दिया है। खैर…

एक तो हमारे समाज में टेबू बहुत है। पीरियड्स को लेकर, सेक्स को लेकर अब फिर पोर्न को लेकर तो इन दोनों से भी ज़्यादा। कल एक लेख पढ़ रही थी जिसमें लिखा था कि पोर्न में दिलचस्पी रखने वाली महिलाओं को पुरुष संदिग्ध नज़रों से देखते हैं, उसमें भारतीय पुरुषों का प्रतिशत बाकियों की तुलना में ज़्यादा रहा। आश्चर्य नहीं। उनके हिसाब से पोर्न देखने वाली महिलाएं अश्लील होती हैं (भारतीय पुरुषों का प्रतिशत हर बात में ज़्यादा ही रहेगा, भाई जनसंख्या के नज़रिए से कह रही हूँ। आप जिस भी नज़रिए से समझें, समझ लीजिए, वो भी सही ही होगा)

पोर्न का देखना ना देखना विचारों से कैसे जुड़ा हो सकता है? खैर अजीब लेख था।

अभी कुछ लोग आयेंगे और कहेंगे कि आजकल पीरियड्स पर सेक्स पर और पोर्न पर बात करना फैशन बन गया है। हाँ बन गया है। आप जाकर पोर्न देखिए और उसको देखते देखते रामायण की बातें करिए। आपको यही सूट करता है। दोगले कहीं के।

मेरी कुछ मित्र हैं जो कहती हैं कि हमारे तो पति भी हमसे अजीब सवाल करते हैं कि “तुम अकेले में पोर्न क्यों देखती हो, अकेले में देखने का क्या मतलब?” और इस सवाल का क्या मतलब? हद है। फीमेल फेंटेंसी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी की मेल। समाज की ज़बरदस्ती की थोपी और मढ़ दी गयी गैरज़रूरी शर्म के तहत महिलाओं का या तो पोर्न देखना ही नहीं या देखने के बावज़ूद ये कहना कि “नहीं नहीं हम ये सब फालतू की चीज़ें नहीं देखते” अपनी तरह की एक मजबूरी है और झूठ भी।

पोर्न देखने वाली महिलाएं अश्लील कैसे हुईं और नहीं देखने वाली सभ्य कैसे? ये तो मतलब अजीब ही बात हो गयी। औरतों की कामनाओं के शब्द भी उन्हीं कलमों से लिखे जातें हैं जिनसे आदमियों के। फर्क तो उस टेबुनुमा दीवार का है जो जबरन थोपा गया है।

पोर्न व्यवसाय क्या है क्या नहीं उसकी बात नहीं हो रही, अभी आ मत जाइएगा ये कहते कि आपको क्या पता किन मजबूरियों में लड़कियां ये सब करती हैं किस में नहीं। ओ भाई! उसकी बात नहीं हो रही। जैसे पिछली पोस्ट पर एक जनाब बोले “ये आपकी नकारात्मक सोच के अवशेष मात्र है” (शब्द तो खतरनाक ही लिखे भाईसाहब ने, अवशेष मात्र? गज़ब और तर्क के नाम पर एक शब्द नहीं उनके पास) पोस्ट पढ़ेंगे नहीं पहली पंक्ति से ही सब पता चल जाता है इनको कि अन्दर क्या होगा। गज़ब अन्तर्यामी हैं! खैर…

बात तो किसी भी विषय पर आप करने ही नहीं देंगे ना। अभी पोर्न शब्द देखते ही आपको ये परम ज्ञान हो जायेगा कि मैं एक खतरनाक वाली बोल्ड किस्म की महिला हूँ, क्योंकि पोर्न शब्द इससे पहले आपने कभी सुना ही नहीं था। आज ही ईज़ाद हुआ है इसका मेरे श्रीमुख से।

जवाब दिया जा रहा है सार्वजनिक रूप से उस सवाल का जो कुछ महानुभव इनबॉक्स में आ आकर पूछते हैं। “आप पोर्न देखती हैं क्या?”

“हाँ भाई देखती हूँ, क्या करना है?” फीमेल फेंटेंसी को इन बकवास दो कोड़ी के टेबू से मुक्त रखिए। नहीं रख सकते तो सवालों पर क़ाबू रखिए। “लिपस्टिक अंडर माय बुर्का” निहलानी साहब ने आने नहीं दी वरना आपको पता चल जाता महिलाएं पोर्न देखती हैं या नहीं। हम किसी और मिटटी के बने हैं क्या? और पोर्न में महिलाएं खुद नहीं होती क्या?

जी हाँ, महिलाएं भी देखती है पोर्न। मैं भी देखती हूँ। आपके आस पास की भी वो सारी औरतें, लडकियां जिनके पास उपलब्ध है या देखने के साधन हैं, वो सब भी देखती हैं। आप उनको किसी भी इज्ज़त या नाम से नवाजें, किसको क्या फर्क पड़ना है। पोर्न और अश्लीलता में जो फर्क है उसको पहचानिए।

र पर या कहीं भी टीवी देखते वक़्त सहसा सनी लियोनी आपके सामने कंडोम का एड लिए प्रकट हो जाये तब आप भाग जाते हैं क्या? दूरदर्शन के ज़माने नहीं जब सांकेतिक रूप से कुछ समझाया जाता था अब 30 सेकंड के विज्ञापन में आपके पोते पोतियों को भी सब समझ आ जाता है और आप अब भी ये पूछ रहे हैं कि महिलाएं भी पोर्न देखती हैं क्या?

और हाँ पोर्न देखने वाली महिलाएं आतंकवादी नहीं होती। नॉनसेंस !!!

 
      

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2 comments

  1. भारती जी ने बहुत खरी बात कही।पोर्न देखने की आजादी मिले तो औरत और मर्द दोनों नंबर एक पर इसे देखना पसंद करेंगे। ।ठीक वैसे ही जैसे हस्तमैथुन से कोईअश्लील नहीं हो जाता,केवल आनंद और आत्मरति में कुछ पल संतुष्टि के गुजारता है,मुझे लगता है पोर्न भी आपको मानसिक तनाव से मुक्ति देने का एक मार्ग है।
    कहीं कहीं तो ठंडे और सुसुप्त हो रहे यौनिक संबंधों के उपचार में पोर्न देखने की सलाह भी दी जाती है।तो थोड़ा लाइट होइये,काहे भक्ति काल मे बहे जा रहे हैं।

  2. hasara samaj hi aisa hai. use apna sahi dikhta hai. samaj bhi kya kare purustva se nhi ubhar pa raha hai.
    mahilao ke sath sote samay sayad ramayan padte honge.
    samaj me hamre jahilo ki kami nhi hai

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